चाची सप्ताहांत में घर आती थीं। चाचा चाची तीज-त्यौहार और छुट्टियों में ही मिलते थे। क्योंकि चाची शहर से बाहर अध्यापन करती थीं। डेढ बरस पहले चाची जब रिटायर हुईं तो कहा तीस साल बाद आज़ादी मिली। अब बचा जीवन काशी में काटना है, आनंद के साथ। पर गए हफ़्ते चाची दुनिया छोड़ गईं। दिल ने साथ नहीं दिया। लेकिन उन्हें मौत का इंतज़ार नहीं करना पड़ा। आधे घंटे में झटपट चली गईं। हां, जाने के लिए उन्होंने वही दिन चुना जिस रोज़ 20 साल पहले माता गईं थीं।
चाची से अपना खास लगाव था। उन्हें कंधा देने बनारस भी गया। चाचा की शादी के लिए मैं उन्हें देखने काशी विश्वनाथ मंदिर भी गया था। तब अपने समाज में ‘रिंग सेरेमनी’ होटलों में नहीं बल्कि मंदिरों में हुआ करती थी। जीवन, सुख, दुख और संताप पर चाची की दृष्टि साफ थी। वजह उनका मायका ‘मणिकर्णिका घाट’ के पास ही था। वही मणिकर्णिका जहां मोक्ष की कामना में और परलोक सुधारने के लिए लोग अन्तिम समय में आते हैं। इसलिए जीवन से जगत का रिश्ता वे बेहतर समझती थीं। उन्हीं घाट की सीढ़ियों पर उनका बचपन बीता था। जहां उनका दाह संस्कार हुआ। इसे ही समय का चक्र कहते हैं। मणिकर्णिका की जिस गली में कभी चाचा की बारात गई थी। उसी रास्ते शवयात्रा जा रही थी। अजीब स्थिती है जब से सूर्य उत्तरायण हुआ है। हर रोज़ किसी आत्मीय के जाने की ख़बर आती है। शायद अब हम उम्र के इस मोड़ पर हैं जहां से लोग बिछड़ना शुरू हो जाते हैं।
“क्षेत्रे भोजन मठे निद्रा। बाक़ी दुनिया ठेंगे पर।” अन्न क्षेत्र बनारस में धर्म के प्रचार के लिए धन्ना सेठों द्वारा चलाए जाने वाले लंगर को कहते हैं। ये आम बनारसी का जीवन सूत्र है। पर अगर आप एक दिन मणिकर्णिका घाट पर बिता लें तो आप बाक़ी जीवन का सार भी जान सकते हैं। श्मशान वैराग्य से मुक्त हो सकते हैं। मणिकर्णिका यानी महाश्मशान। जहां कभी शिव के साथ जाते हुए सती के कान की मणि गिरी थी। उसी वजह से नाम पडा मणिकर्णिका। इस घाट की दिनचर्या से ही बनारस और बनारसियों का चरित्र समझा जा सकता है। शायद जिसे देख केदारनाथ सिंह ने लिखा है- अद्भुत है इसकी बनावट/ ये शहर आधा जल में है/ आधा मंत्र में/ आधा फूल में है/ आधा शव में/ आधा नींद में है/ आधा शंख में/ अगर ध्यान से देखो तो आधा है/ आधा नहीं है।
इसी होने ना होने के बीच मैं चाची की देह के साथ मणिकर्णिका घाट पर था। गंगा के किनारे चिता पर चाची की देह और अस्त होते सूर्य का रंग एक था। इस माहौल को जाने बिना जीवन के ज्ञान-विज्ञान को नहीं जाना जा सकता। ऐसा लगता है कि वसंत यहां स्थित मंदिरों के शिखर, डोम राजा की धूनी, पत्थर की सीढ़ियों के साथ ही जलती चिताओं पर उतरा है। इन्ही सीढ़ियों पर गुलाव और गेंदे के फूल बिखरे पड़ हैं। गंगा से इस घाट का ‘लैंडस्कैप’ पियाव नदी के किनारे बसे वेनिस से भी सुंदर दिखता है। हर समाज अपने आनंद के कुछ ज़रिए बनाता है। मणिकर्णिका का समाज मुर्दा फूंककर आनंद लेता है। शिव काशी के अधिपति देवता हैं। वो महाश्मशान में रहते हैं। यहीं खेलते हैं, यहीं रमते हैं। तभी तो वसंत में पंडित छन्नूलाल मिश्र यहां गाते हैं- “खेलें मसाने में होरी दिगम्बर, खेलें मसाने में होरी। भूत पिशाच बटोरी दिगम्बर, खेलें मसाने में होरी।”
धूप, अगरबत्ती, गांजे और ठहरे पानी की गंध के साथ चिताओं से उठती चिरांध से युक्त यहां की हवा ही काशी की प्राणवायु है। इस हवा और पानी का अपना समाजवाद है। पंडे, पुरोहित, नाई, डोम, मेहत्तर, साधु, भिखारी चिताओं से सोना-चांदी बीनते मल्लाह (गंगापुत्र) एक साथ बैठते हैं। खाते-पीते हैं। गप्प करते हैं। अड़ी लगाते हैं। इस समाज में सब बराबर है। यहां के राजा हैं डोम राज। उनकी हैसियत इतनी बड़ी है कि उन्होंने राजा हरिश्चंद्र को खरीदकर अपने यहां नौकर रखा था। मुक्ति की इस धुरी पर चौबीस घंटे जलती लाशों के बीच उनकी धूनी है। धूनी देख लगता है कि समय ठहर गया है। घड़ी रुक गई है। इसी धर्मध्वजा के नीचे मदिरा से आकंठमग्न डोमराज मुर्दों को फूंकने के लिए आग देते हैं। दुनिया के साथ उनका परिवार भी बढ़ा है। अब डोमराज के 16 परिवार हो गए हैं जिनकी पारी बारी-बारी से आती है।
मणिकर्णिका का सच वहां गए बिना नहीं समझ सकते। पिण्ड और ब्रह्माण्ड को एक समझने वाली दृष्टि ही इस सच को पहचान सकती है क्योंकि मृत्यु यहां जीवन की लीला है। अंत नहीं है। मृत्यु यहां मंगल है। चिता-भस्म आभूषण है और गंगाजल औषधि। दुनिया ना माने पर ये शहर तो ऐसे ही चल रहा है। शायद इसीलिए मणिकर्णिका की गलियों में शवयात्रा और बारात में कोई खास अंतर नहीं रहता। श्रीकांत वर्मा ने लिखा था- “तुमने देखी है काशी/ जहां जिस रास्ते जाता है शव/ उसी रास्ते आता है शव।” मणिकर्णिका से कुछ दूर आगे ही पंचगंगा घाट पर चादर बुनते थे कबीर। वही चादर- जिसे उन्होंने ज्यों की त्यों धर दी थी। उससे थोड़ा आगे जूता गांठते थे रैदास। और घाट-घाट जाते तो कोई दो किलोमीटर पहले अस्सी घाट पर रामकथा लिख रहे थे तुलसी। तुलसी ने भी इस शहर के जीवन-दर्शन पर अपनी टिप्पणी की थी- “मांग के खइबो, मसीद में सोइबो/ लेवे के एक, न देवे के दोऊ।” इन सबका जीवन से सामना इन्हीं घाटों की सीढ़ियों पर हुआ था। सीढ़ियां इस शहर की पहचान हैं। एक लोकोक्ति है- “रांड, सांड, सीढ़ी, संन्यासी, इनसे बचे सो सेवै काशी”। इन सीढ़ियों पर सांड इतनी तादाद में मिलते हैं कि भ्रम होता है, शायद धर्म इन्हीं के सहारे टिका है। दरअसल काशी में पुरखों की याद में सांडों को दागकर छोड़ने का चलन है। गोवंश की बढ़ोतरी के लिए।
कहना ठीक नहीं है कि काशी मरने की नगरी है। दरअसल, ये जीने की कला भी बताती है। क्योंकि ये शहर आधा शव में है। आधा फूल में। काशी महाश्मशान भी है। आनंद वन भी। भक्ति, श्रद्धा, त्याग और बेपरवाही का ऐसा संगम अनूठा है। मणिकर्णिका से लौटते वक़्त यही अहसास चाची की मृत्यु के शोक को कम कर रहा था। चाची से अपना बेहद लगाव था।