इक्कीसवीं सदी का प्रेम-गीत
ओ प्रिये
दिन किसी निर्जन द्वीप पर पड़ी
ख़ाली सीपियों-से
लगने लगे हैं
और रातें
एबोला वायरस के
रोगियों-सी
क्या आइनों में ही
कोई नुक्स आ गया है
कि समय की छवि
इतनी विकृत लगने लगी है ?
कहा पिताजी ने
जब नहीं रहेंगे
तब भी होंगे हम —
कहा पिताजी ने
जिएँगे बड़के की क़लम में
कविता बन कर
चित्र बन कर जिएँगे
बिटिया की कूची में
जिएँगे हम
मँझले के स्वाभिमान में
छोटे के संकल्प में
जिएँगे हम
जैसे हमारे माता-पिता जिये हममें
और अपने बच्चों में जिएँगे ये
वैसे ही बचे रहेंगे हम भी
इन सब में–
कहा पिताजी ने
माँ से
हाँ, मैं चोर हूँ
व्यस्तता की दीवार में
सेंध लगा कर
मैं कुछ बहुमूल्य पल
चुरा लेना चाहता हूँ —
क्या पुलिस मुझे पकड़ेगी ?
बीत चुके वर्षों की
बंद अल्मारी में
चोर-चाबी लगा कर
मैं कुछ बहुमूल्य यादें
चुरा लेना चाहता हूँ —
क्या पुलिस मुझे पकड़ेगी ?
‘ हलो-हाय ‘ संस्कृति वाले महानगर
के अजायबघर का ताला तोड़ कर
मैं कुछ सहज अभिवादन
चुरा लेना चाहता हँू —
क्या पुलिस मुझे पकड़ेगी ?
इस युग की कथा
इस युग की कथा
जब कभी लिखी जाएगी
तो यही कहा जाएगा कि
फूल ढूँढ़ रहे थे ख़ुशबू
शहद मिठास ढूँढ़ रही थी
गुंडे पीछे पड़े थे शरीफ़ लोगों के
नदी प्यासी रह गई थी
पलस्तर-उखड़ी बदरंग दीवारें
ढूँढ़ रही थीं ख़ुशनुमा रंगों को
वृद्धाएँ शिद्दत से ढूँढ़ रही थीं
अपनी देह के किसी कोने में
शायद कहीं बच गए
युवा अंगों को
जिसके पास सब कुछ था
वह भी किसी की याद में
खोया हुआ था
सूर्योदय कब का हो चुका था
किंतु सारा देश सोया हुआ था
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प्रेषक: सुशान्त सुप्रिय
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