आधुनिक समाज के बदलते मूल्यों को रेखांकित करते हुए अपने आत्मकथ्य के साथ-साथ अपने अन्दर के सन्नाटे से मुक्ति पाने की कोशिश में नारी खुद के मन को भेदती है, लहुलुहान करती है। औरत के पात्र की गहराई और गरिमा में खुद औरत डूब जाती है। इस तत्व पर कमलेश्वर जी कलाम के माध्यम से चक्रव्यूह को छेदने का काम करते हुए लिखते हैं – “ ताज महल से ज़्यादा खूबसूरत परिवार नामक संस्था का निर्माण करने वाली औरत खुद उसी में घुट घुट कर दफ़न होती है, सबके लिये सुख और शुभ तलाश करती औरत अपने ही आँसुओं के कुँओं में डूबकर आत्महत्या करती है।“
अपनी ही बनाई दीवारों में औरत बन्दी हो जाती है. अपने भीतर के न्यायलय में स्वयं को यह निर्णय सुनाती है, कारावास का दंड भोगती है. लेकिन आज ज़माना बदलाव की ओर क़दम बढ़ा रहा है। जिसके मन में आग लगे वही बुझाने के रास्ते ढूँढने को आमद रहता है। कहते हैं जब तक पानी हमारे पैरों तले से नहीं गुज़रता, पाँव गीले नहीं होते। अपनी समस्या का समाधान पाना अब नारी का ध्येय बन गया है। पुरुष प्रधान समाज में हालातों से मुकाबला करने की दिशा में एक संघर्ष है जो लक्ष्य की ओर जाता है।
यहाँ मैं सिंध पाकिस्तान की जानी मानी शाइरा आतिया दाऊद की काव्य धारा के कुछ अंश सिंधी से हिन्दी अनुवाद करके पेश कर रही हूँ। इसी क़ैदख़ाने के संदर्भ में नारी मन के मनोभावों को ज़बान देते हुए वे नारी मन की दशा और दिशा कुछ इस तरह बयान करती है कि पढ़ते ही मन में कुछ खौल उठता है। उनकी कलम की नोक तेजाबी तेवरों में अपनी जात को लेकर अंगारे उगलते हुए लिखतीं हैं —
मेरी ज़िंदगी के सफर में
घर से कब्रिस्तान तक
लाश के तरह
बाप, भाई, बेटे और शौहर के कंधों पर धरी हूँ
मज़हब का स्नान करते हुए
रस्मों का कफ़न पहन कर
बेखबरी से कब्रिस्तान में दफनाई गई हूँ !”
विभाजन के छः दशक बाद भी आज शक्ति सम्पन्न नारी त्याग और संवेदना की वशीभूत यातनायें झेलने को विवश है। आज के दौर में कलम तलवार की धार बनकर बेज़ुबान की ज़ुबान बन गई है। आतिया दाऊद उसी धार से वार करते हुए कहती है—
तुम इंसान के रूप में मर्द
मैं इन्सान के रूप में औरत
लफ़्ज़ एक है
मगर माइने तुमने कितने दे डाले
मेरे जिस्म की अलग पहचान के जुर्म में ……. !
नारी मन की व्यथा, पीड़ा और अन्तर्मन की अकुलाहट को पलपल महसूस किया जा सकता है। जैसे दुख उनके जीवन का अहम हिस्सा है, देह के ज़रूरी अंग-सा! तभी तो उसका अस्तित्व चीत्कार उठता है –
‘‘मैं नारी मात्र हूँ नारी ही रहना चाहती हूँ।’
सीता नहीं होना चाहती
उसे पसंद नहीं सीता का परीक्षा देना
राम की परीक्षा का विकल्प तब भी था,
और आज भी !
स्वतंत्र रूप से अपने भीतर की संवेदना को, भावनाओं को निर्भीक और बेझिझक स्वर में वाणी दे पाने में सक्षम हुई है। अपने अन्दर की छटपटाहट को व्यक्त करना अब नारी का ध्येय बन गया है। लेखक परिवेश की उपज ही तो है। स्त्रीवाद लेखन अस्मिता का प्रमाण है, कोई मनोरंजन नहीं। इन पंक्तियों में स्वरूप ध्रुव के शब्दों में नारी मन की व्यथा और संघर्ष दोनों ज़ाहिर हैं :
सुलगती हवा में स्वास ले रही हूँ दोस्तो/
पत्थर से पत्थर घिस रही हूँ दोस्तो
सिंध की लेखिका आतिया दाऊद ने भी दोस्तों की दोस्ती को मानवता की तराजू में तोलते हुए लिखा है —
दोस्त, तुम्हारे फरेब के जाल से निकल तो आई हूँ
मगर हक़ीक़त की दुनिया भी दुख देने वाली है
अपने मन की सइरा में शायद उसका सफर कितनी सदियों से जारी है। आगे अपने मन रूपी ज्वालामुखी से पिघले हुए लावे की मानिंद अपनी काव्य धारा में वे निरंतर नारी के प्रताड़ित मन की हर अवस्था में झाँकते हुए लिखती है। अब ज़माना बदला है, नारी पुरुष की जागीर नहीं, उसके साथ कंधे से कंधा मिलकर चलने में सक्षम है। आधुनिक नारी पुरुष की संपति मात्र न बनकर उसकी सहभागिनी होकर जीवन व्यतीत करना चाहती है। घर और बाहर की हर परिधि में अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अपने परिवार से, अपने पति से सहकार के अपेक्षा रखती है –
‘मुझे खाध पानी चाहिए फलने फूलने के लिए, डाली के साथ।
मैं खुश हूँ सिर्फ ‘मैं’ होने में!’
इस ‘मैं’ की परिपूर्णता नारी का स्वाभिमान है, उसकी अपनी पहचान है। अब वह स्वयं अपने भले- बुरे की पहचान रखती है, अपने दायित्व को निभाने की शक्ति रखती है। यह सच है कि स्त्री को पुरुष से कोई विरोध नहीं, हाँ उसकी मानसिकता से ज़रूर है।
शिक्षण की रोशनी में अब नारी अपने रास्ते खुद तय कर रही है। पुरानी पगडंडियों को लांघते हुए आज हर क्षेत्र में नारी कार्यरत है- पुलिस में, सेना में, विदेश-विभाग, प्रौध्योगिकी, विज्ञान, स्वस्थ, पत्रिकारिका से लेकर अन्तरिक्ष यात्रा व उपग्रह प्रक्षेपण जैसे चुनौती भरे कार्यों में वह पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलकर चल रही है। अपनी क्षमताओं के कारण वह आज बच्चे का पालन भी झुलाती है, विमान भी चलती है, हर ज़रूरत का ध्यान रखते हुए वह अपने घर से बेमुख नहीं होती। पर जब परिस्थितियाँ उसके स्वाभिमान और सम्मान के चिथड़े उड़ाने लगतीं हैं, तब वह चीत्कार उठती है —
दुनिया ने जिसे सिर्फ औरत / और तूने महज़ बच्चों की माँ समझा
विरोध को सह कर भी नारी अपने हौसलों को विराम नहीं देती। उसकी संघर्ष-क्षमता और ऊर्जा में ही उसकी अपनी पहचान है यह वह जान गई है। जैसे एक नन्हा दीपक घनघोर अंधकार में भी पराजय नहीं मानता, ऐसे में नारी अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ते हुए हर उस चक्र से मुक़्त होना चाहती है, जो उसे क़ैदख़ाने की घुटन बख्शता है। इसी मानसिकता को एक नया अर्थ देते हुए आतिया दाऊद लिखती हैं—
मुझे गोश्त की थाली समझ कर
चील की तरह झपट पड़ते हो
उसे मैं प्यार समझूँ ?
इतनी भोली तो मैं भी नहीं
मुझसे तुम्हारा मोह ऐसा है
जैसा बिल्ली का छिछड़े से—(मांस का लोथड़ा…)
ये शब्द नहीं है, नारी मन की छटपटहाट के प्रतीक हैं। नारी का संघर्ष कल भी था, आज भी है और सदा सतत ज़ारी रहेगा……जब तक उसकी आवाज़ समाज के बहरे कानों तक नहीं पहुँचती!
जयहिंद!!
देवी नागरानी
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