गीत और ग़ज़लः प्राण शर्मा/ लेखनी-मार्च-अप्रैल 16

 
 

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पीपल की छाया में कभी तो आ कर देख
मस्त हवा के झोंकों में लहरा कर देख

मन भी लगेगा तुझको सावन के जैसा
कोयल के स्वर में आवाज़ मिला कर देख

इतना भी अलगाव सभी से अच्छा नहीं
कभी – कभी कोई मेहमान बना कर देख

क्यों न खिलेगी मुस्कानें तेरे मुख पर
नन्हे – मुन्नों की संगत में आ कर देख

यूँ तो पायी है तूने संतों की दुआ
`प्राण` किसी निर्धन की दुआ भी पा कर देख

 

 

 

 

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इसकी चर्चा हर बार न करते , अच्छा था
ज़ाहिर अपना उपकार न करते , अच्छा था

चलने से पहले सोचना था मेरे हमदम
रस्ते में हाहाकार न करते , अच्छा था

वो चुप था तो चुप ही रहने देते उसको
पागल कुत्ते पर वार न करते , अच्छा था

अपनों से ही सब रिश्ते – नाते हैं प्यारे
अपनों में कारोबार न करते , अच्छा था

ऐ `प्राण ` भले ही मिलते तुम सबसे खुल कर
लेकिन सबका एतबार न करते , अच्छा था

 

 

 

 

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मेरे दुःखों में मुझपे ये अहसान कर गए
कुछ लोग मशवरों से मेरी झोली भर गए

पुरवाइयों में कुछ इधर और कुछ उधर गए
पेड़ों से टूट कर कई पत्ते बिखर गए

अपने घरों को जाने के क़ाबिल नहीं थे वो
मैं सोचता हूँ , कैसे वो औरों के घर गए

हर बार उनका शक़ कि निगाहों से देखना
इक ये भी वजह थी कि वो दिल से उतर गए

यूँ तो किसी भी बात का डर था नहीं हमें
डरने लगे तो अपने ही साये से डर गए
 

 

 

 

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माँ की ममता को कभी तरसा नहीं होता
वो समन्दर पार गर आया नहीं होता

शुक्र कर इनसान का तुझ को मिला है तन
दुनिया में इस से बड़ा तोहफा नहीं होता

क्या हुआ हर बार ही उबरा नहीं है तू
चाँद भी हर रात को पूरा नहीं होता

छूइए आकाश को तो आपको मानें
छत को छूने से कोई ऊँचा नहीं होता

ज़िंदगी ताउम्र बीती बस इसी ग़म में
काश , साहूकार का कर्ज़ा नहीं होता

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