कहानी समकालीनः बच्चेः रूपसिंह चन्देल

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ऊपर आसमान में भूरे-सांवले बादल रेंग रहे थे और नीचे समुद्र की उन्मत्त लहरें पत्थरों से टकराती-फुंकारती-हांफती ’बीच’ पर बने चबूतरे की दीवार तक आकर शिथिल हो रही थीं. दूर क्षितिज में समुद्र की छाती पर चार नावें कागज पर अंकित बिन्दुओं की भांति दिखाई दे रही थीं–स्थिर. सामने पूरब की ओर ’विवेकानंद रॉक’ अटल समाधिस्थ विवेकानंद की भांति दिख रहा था–शांत-मौन. भीड़ बढ़ती जा रही थी और कोलाहल भी. एक कम उम्र लड़का शंख से बनी वस्तुएं और मालाएं बेचता उधर आ गया था.
“साब!” बच्चे ने मालाएं उसकी ओर बढ़ा दीं.
उसने एक दृष्टि उस बच्चे पर डाली और आपस में टकराती लहरों को देखने लगा, जिनका धवल फेन उसे मुग्ध कर रहा था.
“साब, ट्वेण्टी रूपीज….!” लड़के का चेहरा दयनीय हो रहा था. फटे और कीचट कपड़े…नंगे पांव. कल सुबह पांच बजे वह ’बीच’ पर पहुंचा तब भी उसने उसकी ही उम्र के दो लड़कों को वही सामान बेचते देखा था. हो सकता है उनमें से एक यही रहा हो. उसने सोचा, ’सुबह पांच से रात देर तक….दस-ग्यारह बजे तक लड़के सड़क से ’बीच’ तक भटते रहते हैं. कितना श्रम करते हैं!’
उसने गौर से लड़के के चेहरे की ओर देखा. वह अभी भी उसकी ओर हाथ बढ़ाए एकटक देखे जा रहा था.
’होगा यही दस-ग्यारह साल का. इतनी उम्र में इतना कठोर जीवन! कितना कमा लेता होगा दिन-भर में! पता नहीं कौन-सी विवशता इसे अलस्सुबह तट पर खींच लाती है पर्यटकों के बीच. चीजें भी कुछ खास नहीं, फिर भी एक आशा…कुछ तो बिकेगा ही….लेकिन कितना बिकता होगा?’ वह गंभीर हो गया था.
’हो सकता है अनाथ हो. घर से भाग आया हो या यह भी संभव है कि बाप शराबी हो. कमाता न हो और मां की मदद के लिए खेलने-पढ़ने की उम्र भुलाकर यह बीच पर पर्यटकों के पीछे दौड़ने के लिए विवश हो.’ अब वह कुछ-कुछ भावुक हो रहा था.
“साब! फिफ्टीन रूपीज—फिफ्टीन…” लड़का अभी भी खड़ा था.
’बीच’ का चबूतरा और उससे ऊपर का चबूतरा, जिस पर गुंबद था, पर्यटकों से भर गया था. सूर्यास्त का समय हो रहा था, लेकिन सूर्य बादलों के परदे में था किसी शर्मीली दुल्हन की भांति, जिसकी सुन्दरता परदे के पार भी आभासित होती रहती है. पश्चिम की ओर सरकते सूर्य की लालिमा बादलों के परदे में उभर रही थी और सैकड़ों आंखें उधर ही टंगी हुई थीं. एक जहाज चीखता, बादलों को चीरता दूर क्षितिज की ओर दौड़ गया था और विवेकानंद रॉक पर सफेद-पीले लट्टू जल उठे थे.
“साब! टेन रूपीज…!” लड़का अभी भी उसके सामने था और बीस रुपए में दो मालाएं दे रहा था. उसे लगा जैसे लड़के के स्वर में गिड़गिड़ाहट है. उसे अपने ऊपर कोफ्त हुई—आखिर उसने क्यों उसे उतनी देर से वहां रोक रखा है. नहीं लेना था तो पहले ही मना कर देना चाहिए था. अब तक वह दो-चार ग्राहक देख चुका होता. क्या हो गया है उसकी चेतना को.
उसी की चेतना को क्यों, सारे देश की स्थिति ही शोचनीय है. सैकड़ों घोटालों के लिए विख्यात इस देश में नन्हीं जानें दो जून की कौन कहे—एक जून की रोटी के लिए सुबह पांच बजे से आधी रात तक खटती हैं और घोटालेबाज सर्वहारा के लिए घड़ियाली आंसू बहाते, उन्हें संघर्ष, शांति और संतोष का पाठ पढ़ाते, फाइव स्टार जीवन जी रहे हैं. कहां है कानून और कैसा समाजवाद! गत वर्षों में कितने ही घोटाले उजागर हुए और जांच एजेंसियों तक ही सीमित रहे. अरबों की लूट को यदि रोका जा सका होता और उसका सही इस्तेमाल किया गया होता तो इस जैसे हजारों बच्चों को किसी योग्य बनाया जा सकता था. तब इन नन्हें हाथों में शंख जैसी छोटी वस्तुएं और मालाएं न होतीं, होती कलम-पेंसिल और कॉपी-किताबें. ना मालूम इनमें कौन, क्या बनता? लेकिन कैसे बनता? अगर ये कुछ बन गए तो लुटेरों का क्या होगा? लूट का बाजार बना रहे, इसलिए आबादी के बड़े भाग का भूखा-नंगा, निरक्षर रहना जरूरी है. अंग्रेजों की नीति पर चलकर ही यह संभव है. गरीबी उनके लिए सुरक्षा-कवच है. गरीब नहीं होंगे तो वे भी नहीं होंगे. बाढ़ नहीं आएगी तो राहतकोष नहीं होंगे और राहतकोष नहीं होंगे तो उनके बैंक खाली रहेंगे. इसीलिए बाढ़ रोकने की योजनाएं आजादी के बाद से आज तक कागजों में ही बनती रहीं. बाढ़ आती रही—तबाही मचाती रही! और उसी तबाही पर नेताओं-अफसरों की बिसातें बिछती रहीं. राहत का आधा-चौथाई पीड़ितों तक पहुंचता रहा और देश चेतनाशून्य बना रहा.
वह दुखी हो उठा. तभी उसने देखा–एक और लड़का जो उससे एक-दो वर्ष छोटा ही था और जिसके हाथ में भी वही सब सामान था, उसके पास आ खड़ा हुआ था, और दोनों तमिल भाषा में आपस में कुछ बातें करने लगे थे.
उसने बीस का नोट निकाला और लड़के के सूखे चेहरे पर खुशी उभर आयी. उसने एक या दो माला के लिए उंगलियां दिखाकर इशारा किया. स्पष्ट था कि लड़का अंग्रेजी और हिन्दी नहीं जानता था और वह तमिल. उसने दो उंगलियां दिखाई और क्रीम और हलके गुलाबी रंग की मालाएं पसंद कीं.
लड़का छोटे लड़के के कंधे पर हाथ रख कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया और किसी बात पर दोनों बहस करने लगे. वह निर्निमेष उन्हें देख रहा था. वह छोटे को कुछ समझा रहा था और छोटा सिर हिलाकर इनकार कर रहा था. तभी दो विदेशी युवक-युवती उनके पास से गुजरे. बड़े लड़के ने छोटे को धक्का दिया जिससे छोटा बायीं ओर को झुक गया, लेकिन गिरा नहीं. बड़ा लड़का विदेशी युवती के पीछे दौड़ा, “मैम—मैम—!” वह उसके बगल में जा पहुंचा और अपने सामान की ओर उन्हें आकर्षित करने लगा.
छोटा क्षण-भर तक खड़ा रहा, फिर वह भी भीड़ में घुस गया.

जहाज क्षितिज का चक्कर लगाकर विवेकानंद रॉक की ओर से चीखता हुआ प्रकट हुआ तो उसकी नजरें उठ गईं. सूर्य कुछ देर पहले पर्यटकों को निराश छोड़ बस-अड्डे की ओर समुद्र में धंस गया था.
रॉक के पीछे मछुआरों की नावें उभरने लगी थीं और तेजी से तट की ओर बढ़ रही थीं. दूर, पूर्वी क्षितिज की ओर कुछ नावों में रोशनी चमकने लगी थी.
’शायद ये स्टीमर होंगे.’ उसने सोचा, लेकिन उसे आश्चर्य हो रहा था कि आने के समय जो चार बिन्दु उसे दिखे थे, वे धुंधलका उतरने और दूसरी नावों के लौटने पर भी नहीं लौटे थे.
’तो क्या वे नौसेना-पोत थे?’
’लेकिन वे किसके लिए वहां तैनात हैं? श्रीलंका की सीमा तो कन्याकुमारी के नहीं रामेश्वरम के निकट है’ तभी उसके मस्तिष्क में बिजली कौंधी—’आतंकवाद —तस्करी—देश के लिए सबसे बड़ी समस्या हैं …’
’देश कितनी ही अन्य समस्याओं से जूझ रहा है’ उसने सोचा, ’दंगे, हत्या, बलात्कार, देह-व्यापार, माफिया, नक्सलवाद—और ये सब राजनीति की छाया में पल्लवित होते हैं. हर क्षेत्र का अपराधी राजनीतिक शरण में जीता है. जिस देश में आपराधिक छवि वालों को चुनाव के लिए टिकट देने में राजनीतिक पार्टियों को गर्व होता है, मंत्री बनाने में उससे भी अधिक गर्व, क्योंकि उनकी जीत की गारंटी होती है, उससे देश में घोटाले-दंगे और दूसरे अपराधों के ग्राफ ही ऊंचे होंगे—शिक्षा और सुख-शांति के नहीं. तब इन जैसे बच्चे ये छोटी-मोटी वस्तुएं ही बेचेंगे, मजदूरी करेंगे, चोरी-गिरहकटी करेंगे, खाड़ी देशों के लिए बिकने या विदेशी पर्यटकों की ऎय्याशी का आधार बनेंगे और इस सबसे निरपेक्ष सत्ता-लोलुप सत्ता में बने रहने के लिए अपनी गोटें फिट करते रहेंगे, जिससे भविष्य उनकी-केवल उनकी मुट्ठी में रहे और अफसरशाह राजनीति की धार देखते, भ्रष्टाचार के नित नवीन तरीके ईज़ाद करते रहेंगे.
गांधी मेमोरिअल के पीछे लाइटहाउस टॉवर पर सर्चलाइट जल उठी थी और उसका तेज दूधिया प्रकाश चारों ओर टोही ढंग से घूमने लगा था. जहाज एक बार फिर चिग्घाड़ता हुआ टॉवर के पीछे से उभरा और सीधे क्षितिज की ओर लपक गया था. लहरों में तीखा गुस्सा बरकरार था और वे निरंतर दीवार से अपना सिर टकरा रही थीं. दीवार से कुछ दूर पड़े शिलाखंड काले भूतों की भांति दिखने लगे थे, जिन्हें लहरें किसी खिलाड़ी की भांति फलांग रही थीं. सामने, ऊपरी चबूतरे पर खड़े लोग छायाओं की भांति लग रहे थे. हवा में ठंडक थी और पर्यटकों ने स्वेटर या शॉल निकाल लिए थे.
कुछ देर बाद भीड़ छंटने लगी. उसने सर्चलाइट की रोशनी में चांदी-से चमकते समुद्र पर नज़र डाली. समुद्र-जल मोहक लगा उसे.
“सर, एल्बम!” एक अधेड़ कन्याकुमारी का एल्बम लिए खड़ा था.
“फिफ्टी रूपीज , सर!”
उसने इशारे से मना कर दिया तो वह दूसरे पर्यटक के पास जा पहुंचा. उसे उन दोनों लड़कों की याद हो आई. वह सीढ़ियां चढ़कर गुंबद वाले चबूतरे पर आ गया. वहां से सामने बलुअर जमीन पर शंख और दूसरी वस्तुएं बेचने वालों की दुकानें दो कतारों में सजी दिखीं. जब वह आया था तब भी थीं वे. रोशनी की व्यवस्था न होने के कारण उन सबने गैस बत्ती जला रखी थी. लौटते पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए वे चीख रहे थे. अब वह दो ओर का शोर सुन रहा था—एक ओर था समुद्र-गर्जन और दूसरी ओर दुकानदारों का शोर. वह अभी भी लहरें देख रहा था, जिनका फेन लाइटहाउस की रोशनी में मोतियों की भांति चमक रहा था. अंधेरे में हरहराता समुद्र भयावह लग रहा था.
’मछुआरे कितने साहसी होते हैं! तीन बजे सुबह ही समुद्र में उतर जाते हैं. रात में चिघ्घाड़ते समुद्र को मछुआरे आमंत्रण मानते हैं.’
उसे शिवशंकर पिल्लै के उपन्यास की याद हो आई. मछुआरों के जीवन का मर्मिक चित्रण है उसमें.
’तो क्या वे दोनों मछुआआरों के बच्चे थे?’ वह फिर सोच में डूब गया था.
’किसी के भी क्यों न हों, मनुष्य की संतान हैं वे, और उन्हें भी सम्मानपूर्वक जीने का हक है. लेकिन क्या इसे सम्मानपूर्वक जीना कहा जा सकता है? केवल पेट के लिए वे पन्द्रह-घंटे तट पर भटकते रहते हैं और क्या पता कितने दिन वे भरपेट भोजन पाते हैं? इसके लिए दोषी कौन है? व्यवस्था–लेकिन उसका सरोकार तो मात्र बीस प्रतिशत की सुख-सुविधा जुटाना ही है और वे बीस प्रतिशत ही तो शेष अस्सी प्रतिशत का हक निगल रहे हैं?’
उसकी नज़र कुछ दूरी पर मूंगफली के दाने बेचते एक और बच्चे पर पड़ी. वह नीचे उतर आया.
मंदिर की ऊंची दीवार के उस पार घंटियां बज रही थीं.
ज़मीन पर बिछे कपड़े पर मूंगफली के दानों का छोटा-सा ढेर था और अखबारी कागज के ढोंगे उसके चारों ओर रखे हुए थे. पास ही छोटा लैंप जल रहा था, जिसकी रोशनी में मूंगफली का ढेर चमक रहा था. उसने एक ढोंगा मांगा. लड़के ने दो उंगली दिखा पांच रुपयों का इशारा किया. उसने अनुमान लगाया–लड़का नौ-दस वर्ष का था और उसका रंग गहरा सांवला था.
मूंगफली नमकीन पानी में उबली हुई थीं—स्वादिष्ट.
वह व्यवस्था को मन-ही-मन कोसता बालू पर पैर घसीटता खिसकने लगा.
’बीच’ की दीवार पर अभी भी कुछ छायाएं उसे बैठी दिखीं. उसने घड़ी देखी—आठ बज रहे थे. विवेकानंद आश्रम वालों ने बताया था कि ’बीच’ से आश्रम की आखिरी बस, जो उनकी ही होती है, सवा आठ बजे की है. उसने गति बढ़ा दी. दुकानदारों की आवाजें अब भी तेज थीं और कई दुकानों में शंख फूंके जा रहे थे. यह लौटते पर्यटकों को आकर्षित करने और खरीद रहे लोगों को प्रभावित करने के लिए था. वह मंदिर की पश्चिमी दीवार के कोने में सर्वाधिक सजी, बड़ी दुकान के पास से गुजरता हुआ, जिसमें खरीददारों की अधिक भीड़ थी, सड़क पर आ गया. सड़क के पश्चिम में थी गांधी मेमोरियल की पीली बिल्डिंग, जहां गांधीजी की अस्थियां रखी हैं और दूसरी ओर था म्यूजियम, जो कब का बंद हो चुका था. सड़क और पीली बिल्डिंग के बीच गंदगी मौजूद थी और दूसरी ओर लैंपों की रोशनी में डाभ बेचने वाले बैठे थे.
सड़क पर निपट अंधेरा था. सड़क डामर की थी, लेकिन जगह-जगह मुंह बाए गड्ढ़े थे. गड्ढों से बचता वह चौराहे की ओर बढ़ता गया. चौराहा पांच मिनट के रास्ते पर था, जहां अच्छी रौनक थी—मीना बाजार की-सी. दायीं ओर ढाबे थे, जिनमें शोर हो रहा था. ढाबों के बाहर रखी बेंचों पर भीड़ थी. इडली-बड़ा और सांभर—-कॉफी—लोग टूटे पड़ रहे थे. वह अब बस-स्टैंड पर था, जहां से आश्रम की बसें चलती थीं. चार पर्यटक और थे, लेकिन बस नहीं थी. वह पन्द्रह मिनट खड़ा रहा.
“अब शायद बस नहीं आएगी.” उसे लक्ष्य कर एक पर्यटक बोला.
उसने अनुमान लगाया कि वह उत्तर भारतीय है. उसने उसकी ओर देखा, घड़ी देखी और बोला, “शायद.”
वह पहले से ही पैदल जाने के विषय में सोच रहा था, ’अब इंतजार बेकार है, चल ही देना चाहिए. है ही कितनी दूर—डेढ़ किलोमीटर—बीस मिनट—-वहां कैंटीन भी नौ बजे सर्विस बंद कर देती है.’
वह सड़क की ओर खिसकने लगा. तभी उसकी नज़र सामने एक ढाबे में उन दोनों लड़कों पर पड़ी. दोनों एक ही प्लेट पर झुके हुए थे. उसके एक टीस उठी, ’इन्हें घर का भोजन भी नसीब नहीं! रात देर तक पर्यटकों के बीच इन्हें घूमना जो है.’

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