कविता आज और अभी/लेखनी-मार्च-अप्रैल 16

भाषा से बाहर
1 MG_1705
वृक्षों के पास यदि शब्द होते
तो वे हमें फल नहीं देते…
शब्द ही देते शायद
बादल तो
पूरी कविता ही दे देते बारिश पर
पानी की एक बूँद नहीं देते
फूल दे देते, सौंदर्य पर एक लेख
खुशबू और पराग का एक कण नहीं देते
धरती के पास भी होते यदि शब्द
तो वह भी शायद
फ़सलों से भरी
कहानी का पाठ करने लगती
भूख से बेहोश होते आदमी की चेतना में
शब्द नहीं
अन्न के दाने होते होंगे
अन्न के स्वाद होता होगा
अन्न की खुशबू होती होगी
बेहतर हो
कुछ दिनों के लिए हम लौट चलें
उस समय में
जब मनुष्यों के पास भाषा नहीं थी
और हर बात
कहके नहीं, करके दिखानी होती थी ।
– नरेश सक्सेना

 

 

 

 

उपवन
1 MG_1705
एक पन्ना और पलटता हूं मैं
ज़िंदगी की किताब का।
एक और बसंत खिलता है मुझमें…
झरता हैअनगिनत छटाओं,
आकार और रंगों में।
एक कदम और रखता हूं मैं
जीवन के उपवन में।
बारिश बूंद-बूंद
और दूब पर ठहरी ओस मुस्कराती है,
जैसे बस वह मुस्करा सकती थी
अपनी परछाईं के परे झांकता हूं मैं
परछाइयां, जो मन में छाई थीं।
हर फूल में, अनायास खिलता है,
एक सनातन आश्चर्य ।
ख़ुशबुएं गुनगुनाती हैं
चौपाइयां,सुख की, व्यथा की,
तन्हा रातों के अकेलेपन की,
नाज़ुक यादें
आंसुओं में पिघलती रहती हैं, और भय
जो मुझमें भरे थे, बिखर जाते हैं।
एक आसमान तलाशता हूं मैं
उसे थामने के लिए।
नदी, पत्थर और
बरगद की टहनियां
फैली हुई तस्वीरों में
अपने-अपने रंग ढूंढ़कर
सहम जाती हैं।
मेरी उंगलियां थिरकती हैं,
और समय की रेत पर
आंकता रहता हूं मैं
अपनी तस्वीर।
-मधुप मेहता

 

 

 

 

अपनी दुनिया

1 MG_1705
उठो,
चलो छत पर
हम अपने दुःख दर्द बाँटें
आकाश के नीचे
खुली एकांत छत पर कहा बांटा दुःख दर्द
न सिर्फ बिसरता है
बल्कि
कुछ सिखा कर जाना भी
नहीं भूलता.

कभी बताया था तुमने,
तुम्हारे
किसी कंधे पर एक दिन
छिपकली गिर गई थी
और तुम्हारे हाथ से छूट गई थी
कविता की किताब.
अब बताओ जरा ढंग से
फिर क्या हुआ था.

अरे हाँ, याद आया
एक बार तुमने बात छेड़ी थी
तुम लौट रहीं थीं बाज़ार से
दोनों हाथों में लादे हुए सामान के थैले
तुम पैदल थीं
और सामने तुम्हें दिख रहा था
साफ़ अपना घर
पर अजीब सी बात थी
कि
मीलों चलने के बाद भी
वह
पास नहीं आ रहा था.

अनकहा रह गया था उस दिन
तुम्हारा वह प्रसंग.

मैं अपनी क्या कहूँ..?
सब
ठीक ही है,
लेकिन उस दिन
मैं मेज़ पर बैठा
लिख रहा था अपनी मां को ख़त
और
मेरा लिखा एक एक शब्द
बस
जुगनू बन कर हवा में उड़ उड़ जा रहा था.
बेबस था मैं
और मेरे सामने कागज़ पर
अँधेरा पसरा पड़ा था.

ऐसा तो अक्सर होता है
कि
सोते सोते अचानक
मैं जाग उठता हूँ
बाहर फैली होती है भरपूर चांदनी
और
मेरे कमरे की अकेली खिड़की
जाम हो जाती है,
खुलती ही नहीं.

नहीं,
मैं सचमुच विश्वास कर सकता हूँ
तुम्हारी बात पर
मान सकता हूँ
कि
अक्सर सपने में तुम्हें दीखते हैं सारे घरवाले
सगे संबंधी,
तुम अस्पताल में भर्ती हो
लेकिन
कोई नहीं पूछ रहा है तुमसे तुम्हारा हाल
सब आपस में ही हंस बोल कर
बस, हाजिरी बजा रहे हैं.

मैं पूछना चाहता हूँ
तुम्हारे पैर के उस गोखरू का हाल
जो
छू जाने पर जरा सा भी
दर्द से तड़पा जाता है
पर
मैं पूछता नहीं,
पूछने से बेहतर है
अपनी उँगलियों से उस ठौर को
जरा सा सहला देना
पर
खुली छत और आसमान की गवाही
यह कहाँ संभव है..?

ओस पड़ने लगी है
बढ़ने लगी है ठंढ
चलो
नीचे चलें
कमरा बेहतर सुरक्षा देता है,
सब घरवाले वहां हैं
वही अपनी दुनिया है…
-अशोक गुप्ता
305 Himalaya Tower. Ahinsa Khand 2 Indirapuram Ghaziabad 201014

 

 

 

 

“ सन्नाटो की आवाजे “

1 MG_1705
जब हम जुदा हुए थे..
उस दिन अमावस थी !!
रात भी चुप थी और हम भी चुप थे…..!
एक उम्र भर की खामोशी लिए हुए…!!!

मैंने देखा, तुमने सफ़ेद शर्ट पहनी थी….
जो मैंने तुम्हे ; तुम्हारे जन्मदिन पर दी थी..
और तुम्हारी आँखे लाल थी
मैं जानती थी,
तुम रात भर सोये नही…
और रोते रहे थे……

मैं खामोश थी
मेरे चेहरे पर शमशान का सूनापन था.

हम पास बैठे थे और
रात की कालिमा को ;
अपने भीतर समाते हुए देख रहे थे…

तुम मेरी हथेली पर अपनी कांपती उँगलियों से
मेरा नाम लिख रहे थे…
मैंने कहा,
ये नाम अब दिल पर छप रहा है..

तुमने अजीब सी हँसी हँसते हुए कहा,
हाँ; ठीक उसी तरह
जैसे तुमने एक दिन अपने होंठों से ;
मेरी पीठ पर अपना नाम लिखा था ;
और वो नाम अब मेरे दिल पर छपा हुआ है…..

मेरा गला रुंध गया था,
और आँखों से तेरे नाम के आंसू निकल पड़े थे..

तुम ने कहा, एक आखरी बार वहां चले,
जहाँ हम पहली बार मिले थे….

मैंने कहा,
अब, वहां क्या है…
सिवाए,हमारी परछाइयों के..

तुमने हँसते हुए कहा..
बस, उन्ही परछाइयों के साथ तो अब जीना है .

हम वहां गए,
उन सारी मुलाकातों को याद किया और बहुत रोये….
तुमने कहा,इस से तो अच्छा था की हम मिले ही न होते ;
मैंने कहा, इसी दर्द को तो जीना है,
और अपनी कायरता का अहसास करते रहना है..
हम फिर बहुत देर तक खामोश बुत बनकर बैठे रहे थे…

झींगुरों की आवाज़, पेड़ से गिरे हुए पत्तो की आवाज़,
हमारे पैरो की आवाज़, हमारे दिलों की धड़कने की आवाज़,
तुम्हारे रोने की आवाज़…. मेरे रोने की आवाज़….
तुम्हारी खामोशी…. रात की खामोशी….
मिलन की खामोशी ….जुदाई की खामोशी……
खामोशी की आवाज़ ….
सन्नाटों की आवाज़…

पता नही कौन चुप था ; किसकी आवाज़ आ रही थी..
हम पता नही कब तक साथ चले,
पता नही किस मोड़ पर हमने एक दुसरे का हाथ छोड़ा

कुछ देर बाद मैंने देखा तो पाया, मैं अकेली थी…
आज बरसो बाद भी अकेली हूँ !

अक्सर उन सन्नाटो की आवाजें,
मुझे सारी बिसरी हुई, बिखरी हुई ;
आवाजें याद दिला देती है..

मैं अब भी उस जगह जाती हूँ कभी कभी ;
और अपनी रूह को तलाश कर, उससे मिलकर आती हूँ…
पर तुम कहीं नज़र नही आतें..

तुम कहाँ हो……….

-विजय कुमार सप्पति
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