उपन्यास अंशः रौशनी अधूरी सी-इला प्रसाद / लेखनी मार्च-अप्रैल 16

कोहरा
Kohra

पहाड़ों पर बर्फ़ गिरी थी।
ऐसी ही एक सुबह , जब कोहरा पहाड़ों से उतरकर, मैदानों में आकर जम गया था, वह एक मैदानी शहर के महिला छात्रावास में अपने कमरे की खिड़की से आँखे गड़ाए, बाहर देखती सोच रही थी – “जिन्दगी और कोहरा क्या पर्यायवाची शब्द हैं !”

स्मृतियों की डोर पर टँगे, भविष्य के लिए कोई भी आश्वासन जुटा सकने में असमर्थ सपने खुद बखुद मरते चले गए थे . एक धीमी मौत! उसे अहसास तब हुआ जब बहुत चाह कर भी एक सपना नहीं जुटा पाई वह , अपने जीने के लिए।

लेकिन तब कहाँ मालूम था ! सबकुछ तो घने कोहरे से ढका था न! दिन सुनहले थे, रातें चमकीली। भोर की उजली धूप में नहाई वह खिलखिलाती और सूरज उसकी मुट्ठियों में सिमट आता , किसी गेंद की तरह। “शुचि बहुत सुन्दर है। कितनी तेज है पढ़ाई में। सिर्फ़ चेहरा ही नहीं मन भी साफ़ है लड़की का। ” सब प्यार ही करते। और शुचि को सोचने की फ़ुर्सत नहीं मिली कि कभी यह सूरज जो आज सहजता से उसकी मुट्ठियॊं में सिमटता है, इतना बड़ा हो आयेगा उसकी हथेलियों के लिये कि वह उसे देख भर सकेगी। पकडना तो दूर , छू भी नहीं सकेगी।
दस साल ! वक्त को उसे उस भव्य , गौरवशाळी अतीत से घसीटकर बाहर लाने मॆं इतना समय लगा ? वह चकित होकर हिसाब करती है। थी उसमें संघर्ष करने की , अपने आप से,परिस्थितियों से- लड़ने की क्षमता। तभी तो वह लड़ती रही। किस्तों में मिले दर्द को उसने किस्तों में जिया और अंतत:, हर मोर्चे पर असफ़ल , चाहे वह स्वास्थ्य हो या करियर या सार्वजनिक जीवन , वह पूर्ण अंतर्मुखी व्यक्तित्व में परिवर्तित हो गई थी।
लेकिन तब भी क्या ! वह रुकी कहाँ ? जिन्दगी कोहरा थी , तो भी चलने का साहस शेष था। वह जानती थी कि कोहरे में भी चलना होता है क्योंकि दृष्टि सीमित है और आगे बढ़ने पर ही राहें दिखाई देंगी। अपने फ़ैसले लेना वह सीख चुकी थी। टूटॆ हुए मन को जोड़ेगी वह , शरीर स्वस्थ होगा। करियर बनेगा !
योग -आश्रम में बिताए गए वे १५ दिन , स्वामी जी से मुलाकात और जीवन के सारे अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर मिल गया जैसे।
नई उर्जा लेकर वह वापस लौटी।
फ़िर शुरू हुआ समय – चक्र !
उसने मह्सूसा कि जो सपने उसने देखे थे , बहुत छोटॆ थे , उसके वजूद से भी छोटॆ , इसीलिए मर गए और आज जो वह मुक्त है वह इसीलिए कि उनकी जगह किसी और ने ले ली है , बड़े सपनों ने।
वह इन नए सपनों के लिए जियेगी। मासूम हैं ये भी। सम्भालना होगा। वक्त की थाती ये , सींचना होगा इन्हें श्रम से , विश्वास से, नेह -जल से और सपने बड़े होते गए , काले- नीले , इन्द्रधनुषी। वह खुद चकित होती रही है तब से , अपने आप में आते इस परिवर्तन से …. और छह साल और बीत गए। यह उन्न्सीस सौ तिरानबे है। पिछ्ले साल उसने पी एच डी जमा की थी। छह महीने और लगे , वाइवा होने में।

कल वह चली जायेगी, वापस , उन्हीं पहाड़ियों से घिरे अपने शहर में , जहाँ से इस शहर में आई थी। उसके परीक्षक ने पी एच डी के वाइवा के बाद कमरे से बाहर आकर उसकी तारीफ़ की , व्यक्तिगत तौर पर। उसका काम मह्त्वपूर्ण है , उसे निश्चित ही नौकरी मिल जायेगी इसके बाद | सुखद भविष्य की शुभकामनाएँ देकर वे विदा हुए।
कल शुचि का कद ऊँचा हो गया था औरों के बीच। बहुत दिनों के बाद रात नींद भी अच्छी आई।
बस आज का दिन है। और वह नहीं जानती कि आज का दिन उसे कैसे बिताना है। हॉस्टल और विभाग से सारे क्लीयरेंस सर्टिफ़िकेट्स वह ले चुकी है। दोस्तों को पार्टी दे चुकी। एक दिन आराम करना चाह्ती थी इसीलिए कल का टिकट लिया। आज बहुत समय बाद वह फ़िर अकेली है अपने कमरे में – अतीत की जुगाली करती हुई -और आगे फ़िर एक अनिश्चित भविष्य है, घने कोहरे से ढका।

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प्रवेश

लेडीज हॉस्टल के कॉमन रूम में बेड नम्बर पन्द्रह पर चपरासी उसका सामान रख कर चला गया है। होल्डाल चौकी पर , अटैची दीवार से टिकी और बैग तो उसके अपने कंधे पर है ही।

बाबूजी उसके लिए मग और बाल्टी लाने बाजार गए हैं और वह चौकी के एक कोने में सहमी , सिकुड़ी , किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी है गोया, चौकी का मात्र यह कोना ही उसके हिस्से का है। बाकी सारा कुछ उस लम्बे -चौड़े कमरे का हिस्सा है जो और चौदह चौकियों और इतनी ही लड़कियों को अपने में समोए हुए है।

ज्योति कुंज!

यह नाम है हॉस्टल का , जहाँ जीवन मैं पहली बार घर से हॉस्टल को निकली शुचि चली आई है।
अच्छा नाम है! मन ही मन उसने सोचा।
अच्छा उसे तब भी लगा, जब हॉस्टल के अन्दर घुसते ही बरामदे के कोने की मन्दिरनुमा जगह में सरस्वती की मूर्ति के दर्शन हुए। बचपन से सरस्वती की पूजा करती आ रही है वह ! माथा नवा कर अन्दर दाखिल हुई।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का स्थापना दिवस वसंतपंचमी है , यह उसने बाद में जाना।

सारी पढ़ाई राँची के स्कूल कॉलेजों में कर लेने के बाद , अपने करियर से घोर असंतुष्ट शुचि अड़ गई थी , ” मुझे पी. एच. डी करनी है।” घर में तूफ़ान खड़ा हो गया था। बहुत समय लगा उसे अपनी बात मनवाने में। “पी. एच. डी राँची में भी की जा सकती है, बाहर जाने का आग्रह क्यों? ” उससे पूछा गया। ” नहीं ,कोई बड़ा नाम चाहिए। कुछ अच्छा काम करना है। ऎसी जगह, जहाँ की डिग्री का मह्त्व हो।” वह अड़ी रही।

एम. एस. सी के बाद , तकरीबन ढाई वर्षों के अन्तराल के पश्चात ही वह यहाँ पहुँच पाई। बीच के वर्ष, घोर पीड़ा, आंतरिक ग्लानि , कुंठा, आत्मनियंत्रण और आत्मविश्लेशन के वर्ष थे जिन्हें पारकर यहाँ तक पहुँचना उसे बहुत सुकून दे रहा है।

शाम ढ़लने को है।

वह बिस्तर तो लगा ही सकती है।

दरवाजे की तरफ़ टकटकी लगाए देखते रहने का कोई अर्थ नहीं सिवाय इसके कि इस वजह से कमरे की बाकी लड़कियों की ओर उसकी पीठ है और उनके मनोभावों को पढ़ने , महसूसने से वह मुक्त है।

यहाँ रैगिंग होती होगी क्या?

नीना बैनर्जी – वीमेंन्स कॉलेज की गणित की प्राध्यापिका “मीरा कॉलोनी ” में रह्ती हैं। प्रो. उपाध्याय की छात्रा रही हैं। प्रो. उपाध्याय पिताजी के परिचित हैं और उन्हीं के भरोसे पिताजी उसे यहाँ लेकर आये हैं। नीना बैनर्जी के माध्यम से उसे यह हॉस्टल इतनी आसानी से नसीब हो गया और जैसा कि उनका आश्वासन है – जल्द ही उसे किसी कमरे में शिफ़्ट कर दिया जायेगा। उनकी वार्ड है वह। कोई रैगिंग करे तो बता सकती है।

नीना बैनर्जी उसकी कोई हैं क्या? छोड़ो भी क्या फ़र्क पड़ता है! परिचय तो है न , बस।

चपरासी आकर बता गया , पिताजी आए हैं।
तीसरी मंजिल से नीचे आते-आते थक सी गई वह।
अभी – अभी तो ऊपर गई थी, अभी फ़िर बाल्टी -मग लेकर ऊपर जाना होगा।
बाबूजी के चेहरे पर ढेर सारा प्यार था और थी अतिरिक्त सम्वेदनशीलता। प्रो. उपाध्याय, जिन्होंने इस सारे प्रकरण में – उसके शोध-निदेशक से परिचय करवाने से लेकर हॉस्टल दिलाने तक में – अहम भूमिका निभाई थी, जा चुके थे। बाबूजी को अकेले पाकर उसे लगा ,वह कुछ बातें कर सकती है उनसे। अकेले में। लेकिन क्या ?!

“प्रो. उपाध्याय बतला रहे थे, कल से दीपावली की छुट्टियाँ शुरू हो जायेंगी। पूरे सप्ताह भर बाद ही विश्वविद्यालय खुलेगा। तुम चाहो तो घर चलॊ। एक सप्ताह बाद वापस आ जाना।”
“नहीं , ठीक है।”
“घर नहीं जाना? ”
“क्या करुँगी। यात्रा से थकान भी तो होती है।”
“हाँ , यह तो है!”

बाबूजी चले गए।
क्यों बढ़ाए घर का अतिरिक्त आर्थिक बोझ ! वह अच्छी तरह जानती है कि जो आठ सौ रूपए उसे दिए गए हैं वे किन कठिनाइयों से गुजर कर..। उसने बी.एच. यू. फ़ेलोशिप के लिए आवेदन किया था ।यहाँ आकर पता चला, नियम बदल गए हैं। परीक्षाएँ होंगी। तत्काल किसी भी परीक्षा से गुजरने का साहस उसमें बचा है क्या?

बाबूजी इस बात को समझते हैं। टूटा हुआ शरीर और मन लेकर वह यहाँ आई है। इसे बनने में वक्त लगेगा।

चौकी पर बिस्तर खोल कर बिछाने में शुचि को कुछ वक्त लगा। फ़िर आराम से चौकी की रॉड का सहारा ले वह पीठ पर तकिया लगाकर बैठ गई। बहुत उलझ गए हैं बाल, सुलझाने होंगे।
लम्बे -काले बालों को सुलझाते हुए सामनेवाले बेड पर बैठी , साँवली, तीखे नाक नक्श और बड़ी – बड़ी आँखों वाली लड़की से नजरें अनायास ही जा मिलीं। वह सह्ज भाव से उसकी ओर देखे जा रही थी। शुचि को उस बंगला गीत की पंक्तियाँ अनायास स्मरण हो आईं।
की दारूण देखते
चोख टा की टाना -टाना
जैनो शुधु काछे बौले आशते।
( कितनी सुन्दर है यह देख्नने में। कैसी खिंची -खिंची सी आँखें , मानो पास आने का निमंत्रण दे रही हों।)
यह बंगाली होगी जरूर!
मौन उस बंगाली बाला ने ही तोड़ा।

“आपके बाल बहुत सुन्दर हैं।”
“आपके भी। क्या नाम है आपका?”
“काकोली। और आपका?”
“शुचि।”
“बंगाली हो?” इस बार शुचि ने ही सवाल किया।
“हाँ , और आप? ”
“मैं बिहार से हूँ। राँची से।”
“हाँ , मालूम है। हमारे रिश्तेदार राँची में हैं। मैं कलकत्ते से हूँ।”

शुचि हँसी – “हर बंगाली का एक न एक रिश्तेदार राँची में जरूर होता है। राँची जाकर बसने , रहने की परम्परा रवि ठाकुर के समय से ही शुरु हो गई थी। राँची में एक टैगोर हिल भी है , जहाँ रवीन्द्रनाथ के बड़े भाई अवनीन्द्रनाथ टैगोर बहुत समय तक रहे थे। उनलोगों ने उस पहाड़ी को खरीद लिया था। बाद में रवि ठाकुर भी आए। स्वामी योगानंद ने अपना पहला स्कूल राँची में खोला था।स्वतंत्रता सेनानी श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी राँची में रहते थे। उन्हीं की योजना को अमल में लाकर जयप्रकाश नारायण दीवाली की रात हजारीबाग जेल से भागे थे।, महर्षि अरविन्द का भी नाता है राँची से…….”
वह बोलती चली गई और चकित खुद पर कि वह इतना कैसे बोलती जा रही है। कौन सा बाँध टूटा अन्दर ? या कि वह प्रतीक्षा में थी कि कोई तो बात करे उससे! उस बंगाली बाला ने ही रोका……

” मैंने सुना है , राँची बहुत सुन्दर है! ”
“था। अब नहीं रहा। फ़िर भी वहाँ का मौसम अब भी कई जगहों से बेहतर है।”
बाकी लड़कियाँ बड़ी दिलचस्पी से उनकी बातें सुन रही थीं।
फ़िर धीरे धीरे सबसे परिचय हुआ। कुछ आठ लड़कियाँ तब कमरे में थीं। सब एम. एस. सी / एम. ए की छात्राएँ या फ़िर शोध छात्राएँ – केमिस्ट्री से लेकर हिस्ट्री तक की। बहुत बड़ा है बी.एच यू.। सौ से अधिक विषयों की पढ़ाई होती है यहाँ लेकिन,पोस्ट्ग्रेजुएट स्तर का, लड़कियों के लिए , इकलौता हॉस्टल है यह। शोध छात्राओं के लिए भी । स्नात्त्कोत्तर और शोध छात्राऎँ , सब यहीं आती हैं। पहले कामन रूम में रहती हैं , फ़िर धीरे -धीरे उन्हें कमरों में शिफ़्ट किया जाता है। कुल जमा डेढ़ सौ कमरे। हर कमरे में दो बिस्तर। तीन सौ लड़कियों को अपने में समोए हुए। भारत भर से आई हुई।

हो! हो! अपना नक्शा पूरा हो गया। चलो हम कॉमन रूम के बाहर बोर्ड लगा दें ” हम हिन्दुस्तानी” – केरल से आई अमृता जोर-जोर से हँस रही है।
शुचि ने जाना , सिर्फ़ बिहार की ही कमी थी, कामन रूम में फ़िलहाल चौदह लड़कियाँ हैं।बाकी चौदह लड़कियाँ चौदह राज्यों से हैं।
कितना हँसती है यह लड़की!……..
वह उसे गौर से देखने लगी। लम्बी, स्वस्थ, साँवली- तीखे नाक नक्श। बेहद आकर्षक। दक्षिण भारतीय फ़िल्मों की हिरोइन सी। बहुत खुली- निश्छल हँसी हँसने वाली यह लड़की पहली नजर में भा जायेगी किसी को, इतनी साफ़ दिल लगती है। जूलाजी में एम एस सी कर रही है , सारी पढ़ाई बी एच यू से ही की। बस हास्टल बदला है उसके लिए।
“हम तो बच्चे थे , जब यहाँ आये थे। बी एस सी से यहीं हैं , बीएच यू में।” वह बतला चुकी है शुचि को।

सहसा शुचि का ध्यान टूटा ।

“दीदी , खाना खा लें ?- काकोली पूछ रही थी – ” रात नौ बजे तक मेस में खाना मिलता है।”

शुचि को यह काली सी, बंगाली लड़की बहुत भली लगी।
“क्या मेस में कोई भी खा सकता है? ”
“हाँ , सब। मेम्बर बनना होता है। आप अभी से बन जाइए।”
बाकी लड़कियों के साथ वह भी उठ खड़ी हुई।

१४ अक्तूबर १९८७ – यह तारीख है आज। आज का दिन बीत गया !…………………….

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दीदी! – बी.एच. यू. में यदि आप छ्ह महीने भी सीनियर हैं तो दीदी। लड़के भइया होते होंगे? नहीं , गुरू। लड़कियाँ भइया कहती हैं। “दिन के भइया , रात के सईंया” – अमृता हँसती है।
ज्योति कुन्ज वीमेन्स कालेज परिसर के अन्दर है। इसी परिसर में कई अन्य हॉस्टल हैं लड़कियों के। मुख्य दरवाजे से अन्दर आते ही जिस वृक्ष पर नजर पड़ती है , उसका नाम “पी.एम. टी. है। पी. एम.टी यानी पिया मिलन ट्री । शुचि का शब्दकोश बड़ा हो रहा है।

“चलिए दीदी आपको रैगिंग दिखाएँ।”
तो यह भी देखने की चीज है।
वह अमृता के साथ हो ली।
कुछ मिनट गुजरे होंगे। वह महिला महाविद्यालय हॉस्टल के परिसर में थी । अपने हास्टल से निकलो, परिसर से बाहर जाने को जो रास्ता बायीं ओर मुड़ता है , उस पर चार कदम चलो और दायीं ओर उतर कर सामने की इमारत में पिछवाड़े से घुस जाओ। यह बगल वाली बिल्डिंग महिला महाविद्यालय हास्टल की है , तब समझ भी नहीं आया था। आयताकार , तीन मंजिली इमारत। ज्योति कुंज की तरह, लेकिन कमरे बड़े थे। एक- एक कमरे में आराम से चार बेड लगे थे। टेबल, कुर्सी और दीवार में बनी आलमारियाँ। अन्दर को खुलता बरामदा जिसकी सीढ़ियाँ नीचे हरी घास के गलीचे तक जाती थीं। ज्योति कुंज की तरह ही , बीच में पसरा था आयताकार , विशाल हरी घास का मैदान , जिसके किनारे-किनारे रंग बिरंगे फ़ूल लगे थे । सबसे ज्यादा गुलाब। चारों कोनों पर पपीते, केले , सहजन और अमरूद के पेड़। दूसरी मंजिल पर चढ़कर कभी पपीते तोड़ेगी आज तो हास्टल दर्शन को आई है। उसने सोचा और सामने मैदान पर आखें टिका दीं।

सब तरफ़ लड़कियाँ ही लड़कियाँ। यहाँ से वहाँ जाती, भागती , किसी को आवाज देती , किसी पर खिलखिलाती , बतकट्टी करती लड़कियाँ पूरे मैदान में फ़ैली हुई थीं। “जीवन है यहाँ।” – शुचि ने सोचा।
“वो जो लड़की है न, सिर में ढेर सारा तेल डाल कर दो चोटियाँ बनाए हुए। एक चोटी में लाल और दूसरे में काला रिबन लगाए हुए, वो फ़्रेशी है।” अमृता फ़ुसफ़ुसाई ।
शुचि का ध्यान गया। “ऐसी तो कई हैं।”
“हाँ, ये सब फ़्रेशर्स हैं। एक महीने तक ऐसे ही बाल बनाने हैं इन्हें। हमने भी बनाए थे और जब सीनियर हो गए तो अपनी जूनियर्स की रैगिंग की। “वह खिलखिलाई ।
कुछ लड़कियाँ मुड़कर देखने लगीं।
“चलिए , चलते हैं।”
शुचि देर तक घूमती रही अमृता के साथ।अमृता को जाननेवाले कई थे। कुछ कमरों के अन्दर भी झाँका , दो -एक में अन्दर बुलाए जाने पर अमृता के साथ जाकर बैठी भी।
परिचय हुआ। हॉस्टल से , लड़कियों से, वातावरण से।

तो ऐसे रैगिंग करते हैं यहाँ!
ज्योति कुंज में भी करेंगे?” प्रकटत: उसने अमृता से पूछा।
“नहीं दीदी , वहाँ नहीं करते। वार्डन निकाल देंगी।
जो वह झेल रही है, शायद वह रैंगिंग की परिभाषा में नहीं आता ।
शाम ढले “ज्योति-कुंज” में वह वापस लौटी।

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बी.एच.यू.खूबसूरत है, भव्य! बनारस जैसे पुरातनतम शहर में एक नखलिस्तान सा। वरना शहर का मिजाज कस्बाई या गँवार अधिक है। बनारसी बोली उसकी समझ से परे है किन्तु रिक्शेवाले को “भइया” कहना उसने सीख लिया है। बी एच यू की सड़कें चौड़ी हैं , लोगों के दिल -दिमाग संकीर्ण। हर किसी की जन्मकुंडली रखना और फ़िर उसके हर मामले में टांग अड़ाना लोगों की प्रवृत्ति है। धीरे-धीरे शुचि यहाँ के लोगों और गलियों से परिचित हो रही है। जो बाहर भी उतनी ही हैं जितनी अन्दर। बी.एच.यू . का एक गौरव शाली अतीत है और वर्तमान में भी बी.एच.यू से जुड़ा हर व्यक्ति अपने आप को विशिष्ट समझता है। यह पेंच शुचि की समझ में नहीं आता। किसी स्थान विशेष से जुड़कर कोई विशिष्ट कैसे हो सकता है , जब तक उसने कुछ उल्लेखनीय किया न हो | बी.एच.यू. के जन्म का इतिहास वह अब तक कई बार सुन चुकी है।महामना मालवीयजी से जुड़ी किंवदन्तियाँ और चुटकुले भी। काशी नरेश का बागीचा , जहाँ आज बी.एच.यू. है ,अब भी अपने अस्तित्व को अंशत: बरकरार रखे हुए है। सड़क के दोनों ओर कतार से लगे गुलमुहर और अमलतास के पेड़ और यत्र, तत्र, सर्वत्र आम के पेड़। हॉस्टल परिसर के अन्दर भी पपीते, आम, सह्जन, केले , अमरूद , जामुन , वट- पीपल के पेड़ मानों घोषणा करते से जान पड़ते हैं “हमीं हैं यहाँ के असली निवासी। हमसे प्यार करो। जुड़ना सीखो हमसे।” मूल निवासी और भी हैं। हॉस्टल की छ्त पर अक्सर ही मोर चढ़ आते हैं। संकटमोचन हनुमान के दूत भी। शुचि को बन्दरों से बहुत डर लगता है और यहाँ तो उनकी तमाम प्रजातियाँ बसती हैं।

“शुचि चाय पिलाओ।”
“पैसे नहीं हैं मेरे पास।”
“अरे क्या है! चंदा करना भी नहीं आता। मालवीय जी ने चंदा मांगकर युनिवर्सिटी खड़ी कर दी ,तुमको चाय पिलाना भी नहीं आता? हा, हा, हा…..”

तो यह भी एक तरीका है , चाय पिलाने का!

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नीना बैनर्जी का प्रभावक्षेत्र बड़ा है, यह धीरे – धीरे शुचि की समझ में आने लगा है। उनका स्नेही स्वभाव उसे आकर्षित करता है। वह गाहे- बगाहे मीरा कॉलोनी के चक्कर लगा लेती है।
गणित की प्राध्यापिका नीना बैनर्जी का नाम आदर से लिया जाता है। अविवाहिता , साँवली, सामान्य चेहरे मोहरे और औसत कद की, पैंतालीस की उम्र के आसपास , कठिन जीवन जीनेवाली नीना बैनर्जी के स्वभाव का माधुर्य शुचि को रहस्य लगता है। वह उनके और करीब जाना चाहती है।
यह नीना बैनर्जी का ही असर है कि महीने भर के अन्दर शुचि को कमरा अलॉट कर दिया गया है। कमरा नम्बर बीस। पहली मंजिल पर स्थित इस कमरे में उसकी रूम मेट एक मनोविज्ञान की शोध छात्रा है जो पिछले चार-पाँच साल से उस कमरे में रह रही है। अमृता ने सुना तो घबरा गई – “अरे बाप रे दीदी , वो कमरा !”
“क्यों क्या हुआ?”
“वो आपको आने देगी ? आज तक उस कमरे में कोई उसके साथ रहा है क्या ? बी. एच यू स्टूडेंट यूनियन के नेताओं की दोस्त है वह।”

शुचि ने सोचा, मिलकर तो देखे!
लम्बी, गोरी , राजपूत लड़की , दरवाजे पर हल्की सी थाप देते ही निकल आई।
“क्या है?”
“मुझे यह कमरा अलॉट हुआ है?”
“किसने अलॉट किया ?”
“वार्डन ने ।”
“अच्छा , अन्दर आओ।”
शुचि सहमती- सी अन्दर घुसी।
“देख लो। कितना सामान है मेरा और मैं कुछ भी इस कमरे से नहीं हटानेवाली। तुम्हें लगता है कि तुम इस सबके बीच अपनी जगह बना सकती हो तो तुम गलतफ़हमी में हो!”
“लेकिन मुझे यह कमरा अलॉट हुआ है और मैं तो रहना चाहूँगी। इस कमरे का जो दूसरा बेड है वह मुझे मिला है।”
“किस विभाग से हो?”
“भौतिकी ”
देखो , मुझे मालूम है तुम साइन्स वालों को बहुत पढ़ना होता है। तुम यहाँ रह नहीं पाओगी। तुम सीधे से वार्डन को जाकर कह दो कि तुम मेरे साथ नहीं रहना चाहती।”
“मैं क्यों कहूँ ? मैं तो रहना चाहती हूँ।”
“मैने कहा न, तुम नहीं रह पाओगी।’
” मैं कोशिश करूँगी।”
“मैं करने दूँगी , तब तो। ” अब उस लड़की का चेहरा कठोर था। आवाज भी।
“तो आप यह कहिए कि आप नहीं चाहतीं कि मैं यहाँ रहूँ। मैं वार्ड्न से यह कह सकती हूँ कि आप मुझे इस कमरे में नहीं रहने देना चाहतीं।” शुचि का स्वर अब भी विनम्र था।
“जाओ , कह दो। भाड़ में जाए वार्डन। मैं देख लूँगी।” वह उसके मुँह पर दरवाजा भेड़ती अन्दर चली गई।

मायूस शुचि चुपचाप कॉमन रूम में लौट आई।

भौतिकी विभाग और रिसर्च से जुड़े प्रश्न

प्रो रैणा से पहली मुलाकात अजीब थी। वह प्रो. उपाध्याय और पिताजी के साथ उनके चैम्बर में गई थी और उनके साथ ही लौट आई थी। उसके बाद वह कई दिनों तक विभाग में उनका कमरा ढ़ूँढ़ती रही। जिस कमरे के बाहर उनका नाम पट्ट था उसका दरवाजा हमेशा बन्द मिलता। दूसरा दरवाजा भी है और वही इस्तेमाल में है, यह शुचि ने बहुत बाद में जाना। तबतक उसे विभाग का चक्कर लगाते दो सप्ताह बीत चुके थे। हिम्मत करके वह बगल के कमरे , जो ऑफ़िस था , में न घुस गई होती , और सामने ही मिल गए पूर्ण सज्जन व्यक्तित्व से यह रहस्य न जाना होता तो शायद और बहुत समय तक यह चक्र चलता। लेकिन अपनी सदाशयता के लिए प्रसिद्ध, हेड क्लर्क तिवारी जी ने उसे एक झटके में उबार लिया था।
‘नहीं , नहीं , रैणा साहब का कमरा उधर से खुलता है। यह दरवाजा तो बन्द ही रहता है।”
शुचि को लगा, उसके नसीब की पी. एच. डी. का दरवाजा भी दरअसल आज खुला।

प्रो. रैणा ने उसे पहचाना। एक-दो सवाल पूछे और मेटल -सेमीकन्डक्टर डायोड पर “जी” की पुस्तक थमा दी। “यह चैप्टर पढ़कर आइए। डिस्कस करेंगे।”
तब से शुचि वह चैप्टर घोंट रही है। सुबह जब सारी लड़कियाँ सो रही होती हैं, वह कॉमन रूम के बाहर, सीढ़ियों पर बैठकर, “जी” पढ़ती है।

एक दिन लगा , हो गया। वह सर के पास जा सकती है।
प्रो. रैणा ने उसे देखा , कुर्सी बदली और टेबल के दूसरी ओर आ गए। चॉक उठाया और उसे थमाते हुए बोले ” ब्लैक बोर्ड पर जाओ और एनर्जी डायग्राम बना कर एक्स्प्लेन करो। मैं सुन रहा हूँ।”
शुचि के होश गायब।
ऐसा तो कभी हुआ नहीं। कभी सोचा नहीं कि ऐसा करना होगा। फ़िर उसी तरह पढ़कर, रटकर, मानसिक रूप से तैयार होकर आती। चेहरे पर पसीना आ गया। एक भी डायग्राम सही नहीं बना।
“एम. एस . सी. में सालिड स्टेट फ़िजिक्स पढ़ा था?”
“जी।”
“फ़िर?”
…………….
“कुछ नहीं आता। कुछ नहीं पढ़ा।”
वह शर्म से पानी – पानी।
“सिलिकॉन का बैन्ड -गैप कितना है ?”
……………
जाओ लाइब्रेरी जाकर सालिड स्टेट पढ़ो।”
“कौन सी किताब?”
“ढेरों किताबें हैं लाइब्रेरी में। जाकर ढूँढ़ो। कुछ नहीं आता तुम्हें। बहुत मुश्किल है !”
अपमानित शुचि कमरे से बाहर हो गई।

रोज विभाग जाना और घंटॊं किताबों से मगजमारी करना अब रोज का क्रम बन गया है। प्रो. रैणा के सामने जाने की हिम्मत खत्म हो गई है।

विभागीय पुस्तकालय बड़ा है । व्यवस्थित भी । कर्मचारी सहयोगात्मक प्रवृत्ति के। अन्दर पूर्ण नि:स्तब्धता का माहौल रहता है। यदि किसी ने बातें करने की कोशिश की तो उसके सामने “कृपया शान्ति बनाए रखिए” की तख्ती रख दी जाती है।
बहुत लड़कियाँ नजर आती हैं- विभाग में । लेडीज कॉमन रूम में शुचि का टिफ़िन केरियर हॉस्टल का छोटू रख जाता है। दोपहर के भोजन के लिए जब शुचि वहाँ जाती है तो ये सब दिखाई पड़ती हैं ।लेकिन अबतक किसी से मैत्री नहीं हुई । नहीं मालूम, ये सारा दिन कहाँ रहती हैं । किस लैब में या कक्षा में । वह तो सारा दिन पुस्तकालय में मुँह छुपाए पढ़ती रहती है और शाम को वापस हॉस्टल आ जाती है। हॉस्टल में ये लड़कियाँ नजर नहीं आतीं।

“इस बार विभाग में काफ़ी ग्रीनरी( हरियाली) है” – एक लड़का बगल से गुजरती लड़कियों को देखकर दूसरे से कह रहा था।

……………………………………..

शुचि का मन जोड़- घटाव करता रहता है।
“कभी पी एच डी कर पायेगी वह ?” आजकल वह अक्सर यही सोचती रहती है। सोचते-सोचते जब घबरा जाती है तो गुरू जी को याद करने लगती है। ‘अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नम:।” फ़िर मन शान्त होने लगता है। “पी एच डी करने लगो तो ऐसा ही लगता है। कुछ नहीं आता, कुछ नहीं पढ़ा कभी ।” उसे हॉस्टल की एक अन्य शोध छात्रा ने समझाया है। “क्योंकि पी एच डी में एक अंतर्दृष्टि विकसित करनी पड़ती है । विषय को समझने के लिए पढ़ना पड़ता है, परीक्षा पास करने के लिए नहीं। उस पर सोचना पड़ता है। इसीलिए ऐसा लगता है।”
“मनन कीजिए।” प्रो. रैणा ने भी यही कहा है।
वह सोचना सीख रही है । अपने विषय से जुड़े सवालों पर सोचना और सवाल करना सीख रही है।
“इस हॉस्टल में एक दीदी हैं। आपके ही विभाग की। पिछले चार-पाँच सालों से तो हम यहीं देख रहे हैं। दीदी हमें लगता है , इलेक्ट्रानिक्स में पी एच डी बहुत मुश्किल है। आप उनसे पूछिए ।” यह तोषी थी। बाटनी विभाग की शोध छात्रा, जिससे शुचि ने कामन रूम में परिचय किया था।
मेस के काउन्टर पर ब्रेड- बटर लेते हुए तोषी ने इशारे से समझाया कि यही हैं ।
दुग्ध धवल वर्ण, विवाहिता, और बहुत खूबसूरत चेहरे वाली एक मोटी सी लड़की अपनी बारीक आवाज में मेस महाराज पर चिल्ला रही थी -“कल भी आपने देर से टिफ़िन भेजा था ।”सारा खाना ठंढा हो जाता है । खाया नहीं जाता। ”
वह थमी तो शुचि ने धीरे से सवाल किया -“आप इलेक्ट्रानिक्स में पी एच डी कर रही हैं?”
उसने मुड़ कर देखा , यह कौन , फ़िर बोली -“हाँ।”
“आप कब से हैं ?” शुचि ने मुसकराने की कोशिश की ।
“पाँच साल से।”
“अब तक तो आपका काम खत्म हो रहा होगा , है न?”
“शुरू भी नहीं हुआ।” चाँटे मारता सा जवाब आया और वह लड़की हड़बड़ाती सी तीखी दृष्टि से उसे देखती हुई चली गई।
शुचि अवाक।
“दीदी हमने कहा था न, आप एक्स्पेरिमेन्टल इलेक्ट्रानिक्स में पी. एच. डी. मत कीजिए। बहुत समय लगता है। बुढ़िया हो जायेंगी।” तोषी ने फ़िर समझाने के से स्वर में कहा।
“हम तो ज्योति कुंज को बुढ़ियों का हॉस्टल कहते थे ,आज हमीं यहाँ हैं ।” बगल में बैठी अमृता हँस रही थी।

सहसा शुचि की समझ में आया जो कल परिसर के मुख्य दरवाजे से निकलते हुए उसने सुना था । ज्योति कुंज से निकली शोध छात्राओं को इगित कर महिला महाविद्यालय की दो लड़्कियाँ हँसी थीं -“बूढ़ियाँ जा रही हैं! शादी नहीं होती इनकी, करें क्या !” तब शुचि नहीं समझ पाई थी कि यह टिप्पणी व्यक्ति विशेष के लिए न होकर हर उस लड़की के लिए है जो ज्योति कुण्ज में है। वह भी अब उसी विशेषण की परिधि में आती है। कैसी सोच है इनकी! ये लड़कियाँ दूसरों के बारे में ऐसे कैसे कह लेती हैं! उसे अजीब लगा ! हास्टल-जीवन जैसे परत दर परत खुल रहा था उसके लिए और हर जानकारी उसकी सोच को एक और आयाम दे रही थी।
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इलेक्ट्रानिक्स में शुचि की एक सीनियर भी है, जो प्रो. रैणा के साथ ही काम कर रही है- पिछले पाँच सालों से। यह जानने में शुचि को बहुत समय लगा। कुछ महीने-डेढ़ महीने बाद, जब वह प्रो. रैणा से तीन चार बार मिल चुकी थी, एक दिन प्रो. रैणा ने ही पूछा – “मनीषा से मिली हॊ?” जवाब में “न” सुनकर बोले – “तब तो बड़ी मुश्किल है ।” अबूझ शुचि उनका चेहरा ताकती रही। इस कठोर चेहरे पर ज्यादा कुछ उभरता भी नहीं कि वह पढ़ ले। शब्दों से ही सारे अर्थ निकालने पड़ते हैं। ध्वनि में भी एक सपाटपन । समझते रहो, किस आशय से क्या कहा गया !
“ऊपर चली जाओ। इलेक्ट्रानिक्स सेक्शन में रिसर्च स्कालर रूम है। वहाँ तुम्हें मनीषा मिलेगी।”
शुचि कमरे से बाहर। वापस बाहर के बरामदे पर।
धड़धड़ाती हुई बाईं ओर ऊपर जाने कॊ बनी सारी सीढ़ियाँ चढ़ गई। लेडीज कॉमन रूम से दाहिने लिया । सामने इलेक्ट्रोनिक्स विभाग की तख्ती थी। वह यहाँ तक कई बार आई है। इससे आगे दाहिनी ओर एक गलियारा सा है। दोनों ओर कमरे। उस बरामदे तक भी गई है लेकिन ” रेस्ट्रिक्टेड एन्ट्री” का बोर्ड पढ़ कर हर बार सहम गई और लौट आई। क्या पता , वह जाने के योग्य है या नहीं। अभी तो सबकुछ रहस्यमय लगता है यहाँ। लेकिन, आज हिम्मत कर आगे बढ़ी और सीधे सामने दीख रहे कमरे तक जा पहुँची। प्रो. रैणा ने कहा है। वह जायेगी । कॊई पूछे तो बता सकती है। कमरे के अन्दर झाँका , दो लड़कियाँ , एक हॉस्टल वाली और एक दूसरी । शायद यही मनीषा है। अजीब सी उदासी है इसके चेहरे पर। आँखॊं में भी। शुचि को लगा वे उदास आँखें सीधे उसके मन में उतर गईं।
हॉस्टल वाली लड़की , जिसका नाम दिव्या था, ने तुरन्त पहचाना और मुस्कराई -“आओ।”
“मैं शुचि हूँ । प्रो. रैणा के साथ ज्वायन किया है।”
“हम जानते हैं । यह रही तुम्हारी टेबल।”
मनीषा ने कमरे की तीसरी, खाली पड़ी टेबल- कुर्सी की ओर इशारा किया।
तो उसके लिए यहाँ एक टेबल भी है। एक पूरा कमरा – दोस्ताना अन्दाज वाली लड़कियों के साथ बैठने , शोध समस्याओं पर चिन्तन – मनन करने के लिए। वह यहाँ बैठकर अपना लन्च भी ले सकती है। यहाँ उसके लिए सारी व्यवस्था हो चुकी है और उसे पता भी नहीं। वह बेवकूफ़ कहाँ भटकती रही है।
सचमुच एकदम बुद्धू है शुचि।
“हम तो तुम्हारा इन्तजार ही करते रहे हैं। कहाँ रहती हो तुम सारा दिन?”
शुचि को लगा, वे दोनों उसे अपने बीच पाकर बहुत खुश हैं। खुले दिल से अपनाने को तैयार हैं।
उसने बतलाया कि वह लौट जाती थी , कि वह लाइब्रेरी में रहती है। उस जेनेरल कॉमन रूम में खाना खाती है।
“वह तो पोस्ट ग्रैजुएट वालों के लिए हैं। तुम्हारी जगह यहाँ है।” वे हँसीं। एक दोस्ताना हँसी।
एक पड़ाव तक पहुँच गई वह। अब कर लेगी जरूर। हो जायेगी उसकी भी पी एच डी इनके साथ। सीखेगी इनसे। आगे बढ़ेगी। इसीलिए प्रो. रैणा ने ऐसा कहा था।
शुचि खुश है । दोस्तों के बीच है।

” दो तो इलेक्ट्रानिक्स में पाँच साल पहले से थीं। अब उन्हें कम्पनी देने एक और आ गई। टाइम पास है इनका और क्या।” अगले दिन विभागीय कारीडॊर से गुजरते हुए उसने सुना। कैसी मानसिकता है इनकी! लड़कियाँ ग्रीनरी हैं , टाइम पास करने आती हैं……. बड़े ऊँचे खयाल हैं! उसने मुड़ कर देखा। पीछे से आता हुआ तीन चार लड़कॊं का झुंड मुसकरा रहा था। उसे सुनाने के लिए ही कहा गया था जैसे! बाद में उसने जाना कि वे भी उसी की तरह शोधार्थी थे किन्तु दूसरे सेक्शन के। यह भी कि आम मत यह है कि लड़कियाँ अच्छी शोधार्थी नहीं हो सकतीं। भौतिकी में तो बिल्कुल नहीं । भौतिकी पढ़नेवाले और पढ़ानेवाले सब अपने को विशिष्ट समझते हैं और फ़िर भौतिकी में शोध ? लड़कियाँ करेंगी? मजाक मत करो यार!…………….
“यदि किसी लड़की ने अच्छा शोध किया तो समझो उसके गाइड ने मेहनत की है।” यह भौतिकी विभाग के ही युवा प्रोफ़ेसर सुशान्त का कथन था , जो उसे अगले कुछ महीनों बाद मनीषा और दिव्या ने सम्मिलित रूप से बताया था। प्रोफ़ेसर सुशान्त उनके कमरे में अक्सर भोजनावकाश में चले आते , मित्र थे वे सबके और स्वाभिमानिनी मनीषा से बहस करने में उन्हें विशेष रस आता। मनीषा उन्हें खूब तीखे जवाब देती और शुचि चुपचाप सुनती रहती। वह इतनी निर्भय शायद इसलिये भी थी कि वह युनिवर्सिटी के ही , अपनी योग्यता और ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध प्रोफ़ेसर की पुत्री थी और सबलोग उसके पिता का नाम आदर से लेते थे। वह छोटे कद की , सुन्दर , दिव्या की ही तरह गोरी और जहीन दिमाग लड़की थी। दिव्या और वह, दोनों ने साथ साथ प्रायोगिक विद्युत यान्त्रिकी में शोध शुरु किया था। राष्टीय शोध वृत्ति की परीक्षा पास की थी। पाँच साल साथ गुजारे थे और अपने काम को लेकर बेहद कुंठाग्रस्त थीं। फ़र्क यह था कि दिव्या के गाइड प्रो. कुन्द्रा अपने विषय की प्रसिद्ध हस्ती थे , जबकि प्रो, रैणा अच्छे प्रोफ़ेसर माने जाने के बावजूद अच्छे गाइड नहीं माने जाते थे। तब भी गाड़ी दोनॊं की अटकी हुई थी। ऊपर से प्रो. सुशान्त का खिझाना….. । वे दोनों बहुत जल्द ही शुचि से खुल गईं । उन्हॆं शुचि में एक सम्वेदनशील , भली लड़की दिखी। अगले कुछ समय बाद मनीषा ने ही उसे एक और घटना सुनाई ।

आई पी ए ( इन्डियन फ़िजिक्स असोशियेशन) की मीटिंग थी।असोसियेशन की मेम्बर होने के नाते वह भी उस सेमिनार में उपस्थित थी। अन्त में युवा वैज्ञानिक पुरस्कार के लिए नाम प्रस्तावित होने थे और आई पी ए को भेजे जानेवाले थे। सेमिनार के बाद सदस्यों को फ़ार्म बाँट दिए गए। प्रो. आचार्य ने पहली पंक्ति पढ़ी ” आप जिस नाम का प्रस्ताव करना चाहते हैं उसे इस पहली लाइन -नेम ….मि./मिसस………. में लिखिये। फ़िर उन्होंने जोड़ा ” देयर इज नो क्वेश्चन आव मिस ……..। मिस्टर ओन्ली ( कुमारी या श्रीमती का तो प्रश्न ही नहीं , केवल श्री ….. होना चाहिये यहाँ) और अपने वाक्य की पूर्ति पर उन्होंने एक जोरदार ठहाका लगाया। “यस, यस … कई आवाजें उभरी और भौतिकी विभाग का वह मुख्य सेमिनार कक्ष सम्मिलित ठहाकों से गूँज गया। नहीं हँसीं तो केवल तीन लड़कियाँ- मनीषा , दिव्या और वह तीसरी लड़की अर्चना, जिसने उन्हीं दिनों नया नया आण्विक भौतिकी में शोध शुरू किया था।
उसके बाद से वे उन मीटिंगों में नहीं जाती। शुचि ने जाना।
“तुम्हारा क्या होगा शुचि?” वह खुद से पूछती है। उसे सन्तोष है कि उसका गाइड विभाग में न तो इतना योग्य माना जाता है, न इतने सहयोगात्मक रवैये का है कि भविष्य में उसकी सफ़लता का सेहरा गाइड के सिर बँधे ।
और वह तो अभी -अभी आई है। उसे बस मेहनत करनी है।
शेष अगले अंक में-

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