लेखनी का 101 वाँ अंक है यह और इस अंक के साथ नौ वर्ष पूरे करके दसवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है आपकी लेखनी पत्रिका…यानी सैकड़ों नए आयाम और भिन्न-भिन्न विषयों में रच-बस और रम चुके हैं हम शब्दों और भावों के आदान-प्रदान भरे इस सफर में। हार्दिक आभार उन सभी मित्रों और रचनाकारों का जिन्होंने विश्वास और लगन को उर्जा दी। साथ निभाया।
प्याज के छिलकों-सी कई परतों वाली यह जिन्दगी…दोस्त, दुश्मन, अपने, पराये सभी का साथ निभाती चलती है। मौत की कोख से नित-नित पुनर्जन्म लेती है…जैसे पतझण के बाद बसंत और बसंत के बाद पतझण. सिलसिला चलता ही रहता है, वैसे ही नित नए और खट्टे-मीठे अनुभव लिए जिन्दगी भी। औरतों को तो शायद महारथ हासिल है निभाने की इस कला में। मान-अपमान सब सहकर भी मुस्कुराना , महकती मिट्टी की तरह रंग-बिरंगा संसार रचते जाना, आदत है इनकी …और कुछ ऐसा ही रहा है हमारा यह सृजन का सफर भी. जाने कितनी बार चाहा-अनचाहा मान-अपमान का प्याला मुस्कुराकर पीना पड़ा… जीना पड़ता है उसी कृतिम दुनिया में जहाँ गधे और घोड़े एकसाथ ही शेर की खाल ओढ़कर घास चर सकते हैं।
एक ही मन के अंदर कई –कई दरवाजे और हर दरवाजे के अंदर कई-कई तहखाने और बागबगीचे ….कहीं सुगंधित बयार तो कहीं रिसते-बहते घाव। एक ही जनम में कई-कई जनम जीता है मानव । हर परत के साथ एक नया मुखौटा, नई चुनौती , नई संभावनाएँ और सामने खड़े व्यक्ति या परिस्थिति अनुसार भिन्न और भांति-भांति की प्रतिक्रियाएँ…हर तरह की कलात्मक अभिव्यक्ति भी तो एक तरह का वार्तालाप ही है।
भावों के सागर में उठती गिरती ये तरंगें, कुछ पल दो पल की तो कुछ सदा के लिए आगोश में लेकर बहा ले जाने वाली होती हैं…या फिर आजीवन खरोंच छोड़ जाने वाली। स्मृति और विस्मृति की वीथियों से गुजरते हुए जीवन में प्रायः ऐसे हठी पल और अनुभव आते हैं जो अविस्मरणीय होते हैं, सदा के लिए मानस पटल पर अंकित हो जाते हैं और चाहें या न चाहें मृत्यु परंत साथ चलते हैं … कोई आल्हाद , विषाद, उपलब्धि, ग्रंथि, शिकवा-शिकायत कुछ भी हो सकते हैं ये…निजी या सार्वजनिक, किसी भी प्रकार के। खुद को पहली बार तस्बीरों में कैद करने से लेकर चंद्रमा पर पहुंचने तक हमारी विकासयात्रा में नित नई उपलब्धियाँ हैं, जिन्हें भुलापाना आसान नहीं। कुछ तो ऐसे भी पल आए हैं मानव सभ्यता की इस विकास यात्रा में जिन्होंने पूरी सभ्यता का इतिहास ही पलटकर रख दिया है। कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं, इतनी अप्रत्याशित और असंभव कि न सिर्फ वे स्मृति पटल पर अंकित हो जाती हैं, अपितु उस समय हम क्या कर रहे थे , कहाँ बैठे थे आदि भी नहीं भूल पाते। 22 नवंबर 1963 और 9-11 आदि कुछ ऐसी ही तारीखें हैं, जिन्हें भूल पाना आसान नहीं।
एक दसरे को जीतने के प्रयास में निरंतर के युद्ध और देश और देश वासियों के मनों के विभाजन…अपनी ही भूमि से जबर्दस्ती या परिस्थितिवश हुआ विस्थापन…सामूहिक हत्याएँ …पुरानी सभ्यताओं का अचानक ही नष्ट हो जाना। नई सभ्यताओं का जन्म। नित नए षडयंत्र…कभी ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाए जाना, तो कभी गांधी और कैनेडी को गोली मार देना…हत्याओं और बलात् आधिपत्य और अधिकरण का यह अत्याचारी सिलसिला बरसों बाद भी भूल पाना आसान तो नहीं है।
वह 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर गिरा पहला परमाणु बम जिसने भीषण और अचूक हथियारों का वीभत्स चेहरा दुनिया को दिखलाया था और भय और त्रासदी के नए रास्ते खोल दिए थे दुनिया के आगे, या फिर आप सभी को कल –सा ही याद होगा वह 11 सितंबर 2001 को अमेरिका के ट्रेड सेंटर के साथ-साथ दुनिया की ही शांति का उड़ जाना… आज भी तो मिडिल ईस्ट से लेकर सारा यूरोप तक पूरा क्षेत्र ही हिल रहा है उस धमाके की गूंज से। अस्त व्यस्त हो गई है पूरे विश्व की ही शांति और सुरक्षा । अत्याचारी से लेकर भुक्तभोगी और निर्दोष मासूम सभी असुरक्षित और भयभीत हैं आज इसकी वजह से। क्या कोई भी भूल पाया है वह पल, जब 1963 में एक शांत और साधारण दिन अचानक डैलस से जौन एफ कैनेडी की हत्या की खबर ने सभी को स्तब्ध कर दिया था… खबर ही नहीं, क्या कर रहे थे उस वक्त, आज भी तो यादों में ज्यों का त्यों अंकित है।…जितनी ही अप्रत्याशित और असंभव होती हैं घटनाएँ, उनसे जुड़ी स्मृतियाँ उतनी ही तीव्र और दीर्घ-कालीन। विरोधास है यह भी कहना, परन्तु सच है- प्रतीक्षित सुख-दुख से तो आदमी इंतजार करते-करते ही अभ्यस्त हो जाता है।
हरेक की जिन्दगी भरी पड़ी है ऐसी कई-कई घटनाओं की स्मृतिओं से जिन्हें भुला नहीं पाता वह। नवीन और रोचक के इरादे के साथ, ऐसी ही चन्द घटनाओं को संकलित किया है इसबार इस अंक में । उम्मीद है अंक पसंद आएगा। सदा की भांति आपकी प्रतिक्रिया और स्नेह के इंतजार में …
-शैल अग्रवाल