” मैं रहा उम्र भर जुदा ख़ुद से
याद मैं ख़ुद को उम्र भर आया ”
[ जौन एलिया ]
कुछ ऐसी ही दीवानगी से गुजरता है इन्सान प्रेम और युद्ध में, स्व को भूलकर। यूँ तो युद्ध अधिकांशतः राजनेता ही करवाते हैं अपनी प्रसिद्धि या फिर प्रचार प्रसार के लिए परन्तु कुछ लड़ाइयाँ ऐसी भी होती हैं जिनसे वह खुद जुड़ता है और व्यक्तिगत रूप से लेकर जीवन का ध्येय बना लेता है । विशेषतः तब जब बात किसी अपने प्रिय व्यक्ति जगह या सिद्धान्त को पाने या खोने पर आ जाती है। तभी तो प्रेम और युद्ध में सब जायज है-यह कहावत बनी होगी शायद!
पूरे विश्व का ही इतिहास ऐसी दीवानी गाथाओं से भरा पड़ा है जहाँ अपने इष्ट की तलाश में सबकुछ भूलकर आजीवन भटकते रहे दीवाने प्रेमी-चाहे वह कृष्ण की दीवानी मीरा हो या फिर आजादी के दीवाने नेता जी सुभाष चन्द्र बोस। इष्ट को पाना ही एकमात्र संघर्ष और ध्येय बन गया था इनके जीवन का।
सपना, समय और इंसान तीनों बदलते हैं परन्तु ये दोनों चीजें आजभी नहीं बदलींः युद्ध और प्यार करने की प्रवृत्ति। प्रेम में युद्ध और प्रिय के लिए युद्ध दो अलग बातें हैं , एक में व्यक्ति अंतर्मन के तनावों से जूझता है तो दूसरे में विपरीत परिस्थितियों और ताकत से। दोनों में ही कुछ बेहद प्रिय को बचाने और संजोने की इच्छा बलवती रहती है। गौर से देखा जाए तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं दोनों। जीवन की चौपड़ पर आदिकाल से बिझी एक गूढ़ बिसात, जिसके चक्रव्व्यूह से गुजरना ही होता है। थमकर सोचें तो प्यार भी तो एक तरह का युद्ध ही तो है,जहाँ जी-जान लगाकर पाने और खोने के भय से उत्पन न सिर्फ एक जटिल लड़ाई लड़ता है इन्सान, अपितु आत्मा की गहराई से जुड़ाव व संरक्षण भी देता है अभिष्ट व्यक्ति, विचार या सिद्धांत को। उसके लिए कुछ भी कर सकता है…कैसी भी, बड़ी से बड़ी कुर्बानी भी बिल्कुल युद्ध स्तर पर, युद्द की तरह ही चुटकियों में दे दी जाती हैं। । आप सोच रहे होंगे प्यार का युद्ध से क्या लेना देना, प्यार तो प्यार है शांत और क्षमाशील परन्तु सोचें जब शान्ति पर ही खतरा आसन्न हो तो पलायन या युद्ध ही तो दो उपाय बचते हैं।…युद्ध का रिश्ता है प्यार से और बहुत नजदीक का है। विश्वास न हो तो किसी प्रेमी या क्रांतिकारी से पूछें। जी जान से तभी तो लड़ते हैं जब प्रिय पर खतरा मंडराते देखते हैं और उसे किसी भी हालत में नष्ट होता नहीं देख पाते । युद्ध भी वास्तव में संरक्षण की राह का ही एक प्रयास और प्रकरण है, सुरक्षा की ढाल है और प्यार से बढकर सुरक्षा और कहाँ? प्रकृति हो या पुरुष स्व को भूलकर दो ही परिस्थियों में जुड़ते हैं या तो प्यार में या फिर युद्ध में ।
लड़ने, पाने और खोने के तरीके भले ही बदल गए हों पर यदि जरा भी सच्चाई से सोचा जाए तो दोनों के मूल भाव तो आज भी उसी आदिम रूप में ही हैं – उसी समर्पण व तीव्रता और यदि अतिशयोक्ति न लगे तो, उसी भय के साथ जुड़ता है आदमी इन में। दोनों के ही मूल में पाने के आकर्षण के साथ खोने का भय प्रेरक है। दोनों ही लक्ष को निशाना बनाते हैं। युद्ध में यदि तीर तलवार और गोलाबारूद बरसाए जाते हैं तो प्यार में पुष्प और उपहार । प्यार के मूल में भी वही वशीकरण काम करता है जो युद्ध में। दोनों में ही शिकार किया जाता है और दोनों में ही शरणागत को संरक्षण देना जरूरी धर्म है। भयभीत को मारा नही जाता और भागते की पीठ में छुरा नहीं भोंकते। युद्ध के भी नियम हैं। प्यार में तो अद्भुत संयम की अपेक्षा है ही। चरित्र की कसौटी हैं दोनों ही परिस्थितियाँ। दोनों में ही विषम रूप से एक मोहक आकर्षण हैं। दोनों में ही पाने, खोने को बहुत कुछ है । दोनों ही परिस्थितियों में एक जागरूक और विवेकी व्यक्ति यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकता कि प्यार और युद्ध में तो सब जायज है। मनमानी नहीं कर सकता वह । बारबार जीने और मरने को उत्सुक आदमी प्रायः प्यार में जहाँ हारकर जीतता है, वहीं युद्ध में हराकर।। पर दोनों में वही एक तड़प है , वही एक चाह है आखिरी सांस तक जुड़े रहने की और दोनों के रंग भी एक ही हैं सुर्ख और सफेद…उन्मादी आवेग और फिर संधि व पूर्ण शांति। नवअंकुर इन्ही दो परिस्थितियों के परिणाम हैं, इन्ही में जनमते और पनपते हैं ये। नवअंकुर जो आश्वस्ति हैं निरंतरता के, उपलब्धि और लड़ाई हैं इन्सान और प्रकृति के।
हर इन्सान का जीवन भिन्न है और हर इन्सान का प्यार करने व लड़ने का तरीका भी । किसी का रवैया आक्रमक है तो किसी का स्नेह और समर्पण-भरा। पर ध्येय और अंत दोनों का ही एक है- अपने-अपने तरीके और स्वभावनुसार लक्ष की प्राप्ति। दोनों ही परिस्थितियों में स्व को मिटना ही होता है। बस, उतावलों को कुर्बान कह दिया जाता है और धीर-गंभीर मोक्ष पा लेते हैं।
हम सभी की पूरी जीवनगाथा ही इन्ही दो भावों के इर्दगिर्द गुंथी हुई है। हमारे इष्ट और आदर्श राम व कृष्ण की जीवनी को ही ले लें। पूर्णतः समर्पित है वे दोनों भी अपने-अपने इष्ट के प्रति और अपने-अपने तरीके से उन्ही के लिए जिए और मरे हैं। एक के आदर्श जीवन का लक्ष मर्यादा और परम्परा का निर्वाह था. भले ही इसके लिए अपने हर सुख , अपने प्रियजनों तक का त्याग करना पड़ जाए, सबकुछ खोकर युद्ध पर युद्ध लड़ने पड़ें। वहीं दूसरे की बांसुरी सिर्फ प्रेम और आनंद का ही सुर अलापती थी भलेही इसकी रक्षा के लिए सुदर्शन चक्र ही क्यों न उठाना पड़े। हम भले ही कितना ही अलौकिक कहें और प्रेम में उनके साहस और धैर्य को ईश्वरीय तत्व की संज्ञा तक दे डालें पर दोनों की ही लगन को फलीभूत होने के लिए युद्ध ही अंतिम परिणाम था ।
यही वजह है कि भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, लक्ष्मीीबाई जाने कितनी शौर्यगाथाओं से भरा पड़ा हैं पूरे विश्व का इतिहास । अद्भुत लड़ाइयाँ लड़ी हैं और कुर्बानी दी हैं लोगों ने प्यार में। कायरों के बस का नहीं ना तो प्रेम करना और ना ही युद्ध करना।
थमकर सोचें तो सृजन या नई शुरुआत वाकई में इन्ही दो परिस्थितियों में ही तो होते है, जब मन की स्लेट पूरी तरह से धुल चुकी हो एक युद्ध या संपूर्ण विनाश के बाद जब आदमी सबकुछ हार चुका होता है और मौत उसकी उपलब्धियों पर हंस रही होती है तो जीवटता खुद उठ खड़ी होती है और एक बार फिरसे नई शुरुवात करती है या फिर प्यार में जब वह खुद को पूर्णतः भूलकर स्वयं को ही नए सिरे से परिभाषित करता है।
सच ही तो है.
‘कुछ और हरा हो जाता है एतबार का मौसम
तुम्हारा हाथ जब मेरे इन हाथों में होता है’…
गुलजार
यानीकि महज उत्तेजना पर नहीं, युद्ध हो या प्रेम दोनों में ही लक्ष के प्रति अडिग आकर्षण और विश्वास का होना बेहद जरूरी है तभी सबकुछ दांव पर लगता है , जीता या हारा जा सकता है।