कभी घर के बड़ों के आगे झेप मिटाते हुए पतिदेव ने शरारत भरे अंदाज से समझाया था कि क्यों वे पत्नी को रानी कहकर बुलाते हैं। तर्क था कि घर की रानी महारानी और नौकरानी सभी कुछ मैं ही तो हूँ, अतः उन्होंने सुविधानुसार आगे के शब्द काटकर बस नाम को संक्षिप्त मात्र कर दिया है। ऐसा कहते समय उनकी आंखों में जो प्यार और गर्व का सुरूर था, लाली थी , उसने वाकई में मेरी ताजपोशी कर दी थी, रानी बनाकर सिंहासन पर ही तो बिठा दिया था मुझे।
आज भी उस वाक् चातुर्य को याद करती हूँ तो बरबस होठों पर भीनी स्मिति आ जाती है। बेशकीमती कपड़ों व जेवरातों से लदी-फंदी -हाथ में झाड़ू लिए सिंहासन पर बैठी रानी…वाकई में मजाकिया ही तो है यह तस्बीर और उतनी सहृदयता से न ली जाए तो रोष, क्षोभ और असंतोष के भाव भी पैदा कर ही सकती है, जैसा कि आजके दिन कई पत्नियों के सोशल मीडिया पर स्टेटस पढ़कर महसूस हो रहा है। क्या वाकई में गृहणियाँ बिना तनख्वाह की दासियाँ मात्र हैं !
झाड़ू और बेलन भी तो जीवन की उतनी ही बड़ी सच्चाई है जितनी कि प्रेम और भूख । इनके बिना भी तो एक गृहिणी की गुजर नहीं, चाहे वह कितनी ही लाडली व सम्मानित क्यों न हो और यह उसके लिए शर्म की नहीं , गर्व की ही बात होनी चाहिए- उसके कुशल संचालन, परिवार के प्रति प्रेम और समर्पण के प्रतीक ही तो हैं ये भी और फिर जरूरत अनुसार काम भी तो बांटने ही पड़ते हैं। यही बात समाज की भी है। यदि प्यार है तो हम हर जरूरत का ध्यान रखेंगे, सजाएंगे-संवारेंगे ही नहीं , सामूहिक विकास में भी सहयोग करेंगे।
मेरी समझ में श्रम दिवस का बस एक यही संदेश है और होना चाहिए कि यदि सही आशय से और सही तरीके से किया जाए तो कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं और अंततः स्वीकार्य और सफल भी होगा ही, जैसे कि हम छोटे या बड़े नहीं, अमीर या गरीब चाहे किसी भी घर में पैदा हों यदि आत्मविश्वास और लगन है , मेहनत कर सकते हैं तो सफलता भी मिलेगी ही। बस शक और ईर्षा के घुनों से दूर रहें।
श्रम भी तो प्रेम जैसा ही उद्दात भाव है जिसके श्वेत बिन्दु जीवन बगिया में भांति भांति के मीठे और महकते फल फूल देते हैं। बहुत महत्व है श्रम का जीवन में, आदर करती हूँ इस सामाजिक समन्वय के विचार का भी, जिसमें सहयोग और समानता को सर्वोपरि महत्व दिया गया है, सबको बराबर का जीवन जीने का हक है- कहा गया है। परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि मन लायक परिस्थिति न हो तो हथियार ही उठा लिए जाएँ। हर आदमी चोर-उचक्का और अपराधी ही बन जाए। गोरिल्ला सेना खड़ी कर ली जाए । दोषी-निर्दोषी जो भी हाथ लगे, गुस्सा निकालने के लिए उसी के पेट में छुरा भोक दिया जाए। ऐसे तो सब खतम हो जाएँगे। हम भी और वे भी।…
नफरत और ईर्षा के रंग अक्सर ही विवेक को खत्म खत्म कर देते हैं। उपलब्धियों और सुविधाओं का वितरण किसी भी समाज में योग्यता अनुसार ही होना चाहिए। पर एक सुचारु समाज में यह भी सभी की जिम्मेदारी है कि कोई भूखा नंगा न रहे। पूरे श्रम के बावजूद किसान आत्महत्या न करे। देश पर जान लुटाने वाला सैनिक और उसका परिवार भूखा न मरे। और काम पर निकली हुई बेटी का गोश्त आवारा कुत्ते न नोचें। अमीर अपने ऐश्वर्य और विलासिता में इतना न डूबें कि उन्हें आसपास की आहें और आंसू सुनाई या दिखाई ही न दें ।
बराबरी का हक मांगते-मांगते यदि लोग लूटपाट और खून खराबे पर ही उतर आए तो सहानुभूति का खतम हो जाना भी स्वाभाविक ही है। श्रम दिवस हम मनाते हैं, गुण्डा दिवस नहीं। शालीनता का वचन और कर्म दोनों में ही होना जरूरी है। उत्तरदायित्वों के प्रति जागरूक रहना अमीर और गरीब दोनों की ही बराबर की जिम्मेदारी है। हर जागरूक इन्सान की जिम्मेदारी है चाहे वह परिवार के बीच हो या समाज के। हमें संचालित और सफल जीवन व्यवस्था में काम करने वाले और काम देने वाले, दोनों की ही जरूरत रहेगी हमेशा।
आज जब इस त्वरित संचार के युग में सब के आगे सबकुछ खुला है, कुछ छुपा ढका नहीं तो विचारों में क्रांति की जरूरत है। एक सच्ची और सहानुभूति भरी क्रांति जहाँ प्रेम और सद्भाव सर्वोपरि भाव हों और युद्ध नहीं शांति की कामना हो। पैसे कमाने के लिए ही हथियारों का उत्पादन न हो, लड़ाइयाँ न हों और मात्र बदला लेने के लिए मेल-मिलाप।
एक ऐसे समाज के निर्माण का प्रयास ही वास्तविक आंदोलन है प्रेम का युद्ध है हम आम व्यक्तियों के लिए। अधिकांश लड़ाइयाँ वेवजह या नेताओं की वजह से ही होती है।
लडाई यदि जीतनी है तो हथियारों से नहीं , हृदय से ही होनी चाहिए, विवेक के साथ। तभी व्यापक संतोष और शांतिभरी विजय संभव है ।….
इस अंक में हमने प्रेम और युद्ध पर कई सारगर्भित कविता कहानी और लेख संयोजित किए हैं। लैटिन के कवि ओविड और चेक कवि ब्रेख्त से लेकर त्रिलोचन और हमारे अपने आज के युग के नए पुराने लेखकों की कई सुंदर और भाव-प्रवण रचनाएँ हैं। मेरे लिए यह कम गर्व और संतोष का विषय नहीं कि आज श्रम दिवस पर लेखनी का यह प्रेम और युद्ध विशेषांक आपतक पहुंच रहा है। उम्मीद है कि दृष्टिकोण और बात आपतक पहुंचेगी और अंक पसंद आएगा। सहयोग और स्नेह का तहेदिल से आभार व प्रतिक्रिया और सुझावों का हमेशा की तरह ही इन्तजार रहेगा…
लेखनी का अगला अंक ( जुलाई-अगस्त) हमने किताबों पर ऱखने का मन बनाया है। क्या आपने कोई ऐसी किताब पढ़ी है जिसने आपकी जीवन दिशा को मोड़ा हो, जीवन संगिनी बन गई हो, एकांत में बारबार पढ़ा हो आपने इसे और बहुत चैन मिला हो, यदि हाँ और बांटना चाहते हैं तो आपके अनुभव और रचनाओं का इंतजार रहेगा । भेजने की अंतिम तिथि 20 जुलाई shailagrawal@hotmail.com पर। …
-शैल अग्रवाल