1.
वह समंदर था और वह धरती। एक नर और एक मादा। दोनों की अपनी-अपनी सीमाएँ थीं और मर्यादा भी। फिर भी जाने कैसा आकर्षण था दोनों के बीच, कि अक्सर ही समंदर लहर-लहर हरहराता आता और सूखी धरती को भिगो देता । कभी धरती की सोंधी मिट्टी साथ बहा ली, तो कभी अपनी तह की भुरभुरी रेत उस पर बिखेर दी। रोज रोज की इन शरारतों और नादानियों के कुछ पल बाद वह तो तुरंत ही पहले जैसा ज्यों-का त्यों संयत और धीर-गंभीर दिखने लग जाता, पर धरती आपा भूल बावरी हुई जा रही थी। सभी ने देखा कि चौबीसों घंटे बैठी अब वह उन्ही बेबाक लहरों का इंतजार करती रहती है… नए बूटों, नई खुशबूओं से सजी, अपना अस्तित्व, रूपरेखा और सीमा, सब कुछ न्योछावर कर बैठी है धरती समंदर के प्यार में …
2.
वह समंदर था धरती का सुहाग और वह चंदा- समंदर का प्यार। धरती के बेटे आते और समंदर की छाती पर चढ़े लहरों संग खेलते। मछलियाँ पकड़ते, इसपार से उसपार जाते और माँ धरती की नेह से छलकती आँखें निहारती रह जातीं, ‘ कैसा रूप और पौरुष है उसके समंदर का…कैसे खुद को भूलकर संवारा है परिवार को इसने… कितना कुछ करता है उनके लिए… यह रूप और हरियाली…यह बादल और सावन सब इसी की तो सौगात हैं।‘
समंदर को तो पर अपनी ही खबर नहीं थी, मानो। उठती गिरती लहरों पर सवार आँखें बस घटते बढते चांद को ही निहारती, बाँहों में लेने को बेचैन रहतीं। समन्दर की लहरें हाहाकर करती रहतीं पर यह चांद जो सूरज की बेटी थी, बौने समंदर की बांहों में कैसे आ पाती ! कितना भी पास दिखें या समझें, धरती आसमान की दूरी थी दोनों के बीच।
हाँ, तारों की चूनर में सजी चंदा कभी-कभी समंदर की नीली आँखों में अपना रूप-रंग जरूर निहार लेती, खुश हो लेती संग-साथ में। इसी घटती-बढ़ती रूप की चमक को ही तो प्यार समझे बैठा था वह बावरा…इतना ही तो रिश्ता था दोनों के बीच…बेचैनी, उसकी तकलीफ की तो खबर ही नहीं थी चंदा को… जैसे कि समंदर नहीं जानता था कि क्यों धरती चौबीसों घंटे सीने से लगाए बैठी है उसे ?
क्या प्यार में नादानी भी बेवफाई का ही दूसरा नाम नहीं?…