कविता विशेषः सागर मुद्रा-अज्ञेय/ लेखनी मई-जून 16

सागर मुद्रा

7NLESCA6CJ0ILCA7OIT1ICA41Y566CAD0W0E2CA9LT1EHCA9BD79YCAGKOU8OCA5RMCZBCAA9BCNGCACFK2E1CA9OYLZYCAVMCYTRCAE2VXDNCADGCGFVCAOS4FSLCAKLW0BFCA8QQQOWCAVYEG38
सागर पर
उदास एक छाया घिरती रही
मेरे मन में वही एक प्यास तिरती रही
लहर पर लहर पर लहर :

कहीं राह कोई दीखी नहीं,
बीत गया पहर,
फिर दीठ कहीं ठहर गयी
जहाँ गाँठ थी। जो खोलनी हो तो

हम ने चाही नहीं, सीखी नहीं।
छा गया अँधेरा फिर : जल थिर, समीर थिर;
ललक, जो धुँधला गयी थी, चिनगियाँ बिखरती रहीं…

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

7NLESCA6CJ0ILCA7OIT1ICA41Y566CAD0W0E2CA9LT1EHCA9BD79YCAGKOU8OCA5RMCZBCAA9BCNGCACFK2E1CA9OYLZYCAVMCYTRCAE2VXDNCADGCGFVCAOS4FSLCAKLW0BFCA8QQQOWCAVYEG38

सागर की लहरों के बीच से वह
बाँहें बढ़ाये हुए
मेरी ओर दौड़ती हुई आती हुई
पुकारती हुई बोली :

‘तुम-तुम सागर क्यों नहीं हो?’
मेरी आँखों में जो प्रश्न उभर आया,
अपनी फहरती लटों के बीच से वह
पलकें उठाये हुए

उसे न नकारती हुई पर अपने उत्तर से
मानो मुझे फिर से ललकारती हुई
अपने में सिमटती हुई बोली :
‘देखो न, सागर बड़ा है, चौड़ा है,
जहाँ तक दीठ जाती है फैला है,
मुझे घेरता है, धरता है, सहता है, धारता है, भरता है,
लहरों से सहलाता है, दुलराता है, झुमाता है, झुलाता है
और फिर भी निर्बन्ध मुक्त रखता है, मुक्त करता है-

मुक्त, मुक्त, मुक्त करता है!’
मैं जवाब के लिए कुछ शब्द जुटा सकूँ-
सँवार सकूँ,
या वह न बने तो

राग-बन्धों का ही न्यौछावर लुटा सकूँ-
इस से पहले ही वह फिर
हँसती हुई मुड़ती हुई दोलती हुई उड़ती हुई
सागर की लहरों के बीच पहुँच गयी।

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

7NLESCA6CJ0ILCA7OIT1ICA41Y566CAD0W0E2CA9LT1EHCA9BD79YCAGKOU8OCA5RMCZBCAA9BCNGCACFK2E1CA9OYLZYCAVMCYTRCAE2VXDNCADGCGFVCAOS4FSLCAKLW0BFCA8QQQOWCAVYEG38

सागर के किनारे
हम सीपियाँ-पत्थर बटोरते रहे,
सागर उन्हें बार-बार
लहर से डुलाता रहा, धोता रहा।

फिर एक बड़ी तरंग आयी
सीपियाँ कुछ तोड़ गयी,
कुछ रेत में दबा गयी,
पत्थर पछाड़ के साथ बह गये।

हम अपने गीले पहुँचे निचोड़ते रह गये,
मन रोता रहा।

फिर, देर के बाद हम ने कहा : पर रोना क्यों?
हम ने क्या सागर को इतना कुछ नहीं दिया?
भोर, साँझ, सूरज-चाँद के उदय-अस्त,
शुक्र तारे की थिर और स्वाती की कँपती जगमगाहट,

दूर की बिजली की चदरीली चाँदनी,
उमस, उदासियाँ, धुन्ध,
लहरों में से सनसनाती जाती आँधी…
काजल-पुती रात में नाव के साथ-साथ

सारे संसार की डगमगाहट :
यह सब क्या हम ने नहीं दिया?
लम्बी यात्रा में
गाँव-घर की यादें,

सरसों का फूलना,
हिरनों की कूद, छिन चपल छिन अधर में टँकी-सी,
चीलों की उड़ान, चिरौटों, कौओं की ढिठाइयाँ,
सारसों की ध्यान-मुद्रा, बदलाये ताल के सीसे पर अँकी-सी,

वन-तुलसी की तीखी गन्ध,
ताजे लीपे आँगनों में गोयठों पर
देर तक गरमाये गये दूध की धुईंली बास,
जेठ की गोधूली की घुटन में कोयल की कूक,

मेड़ों पर चली जाती छायाएँ
खेतों से लौटती भटकती हुई तानें
गोचर में खंजनों की दौड़,
पीपल-तले छोटे दिवले की

मनौती-सी ही डरी-सहमी लौ-
ये सब भी क्या हम ने नहीं दीं?
जो भी पाया, दिया :
देखा, दिया :

आशाएँ, अहंकार, विनतियाँ, बड़बोलियाँ,
ईर्ष्याएँ, प्यार दर्द, भूलें, अकुलाहटें,
सभी तो दिये :
जो भोगा, दिया; जो नहीं भोगा, वह भी दिया;
जो सँजोया, दिया,

जो खोया, दिया।
इतना ही तो बाक़ी था कि वह सकें :
जो बताया वह भी दिया?
कि अपने को देख सकें

अपने से अलग हो कर
अपनी इयत्ता माप सकें
…और सह सकें?

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

7NLESCA6CJ0ILCA7OIT1ICA41Y566CAD0W0E2CA9LT1EHCA9BD79YCAGKOU8OCA5RMCZBCAA9BCNGCACFK2E1CA9OYLZYCAVMCYTRCAE2VXDNCADGCGFVCAOS4FSLCAKLW0BFCA8QQQOWCAVYEG38

वहाँ एक चट्टान है
सागर उमड़ कर उस से टकराता है
पछाड़ खाता है
लौट जाता है

फिर नया ज्वार भरता है
सागर फिर आता है।
नहीं कहीं अन्त है

न कोई समाधान है
न जीत है न हार है
केवल परस्पर के तनावों का
एक अविराम व्यापार है

और इस में
हमें एक भव्यता का बोध है
एक तृप्ति है, अहं की तुष्टि है, विस्तार है :
विराट् सौन्दर्य की पहचान है।

और यहाँ
यह तुम हो
यह मेरी वासना है
आवेग निर्व्यतिरेक

निरन्तराल…
खोज का एक अन्तहीन संग्राम :
यही क्या प्यार है?

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

7NLESCA6CJ0ILCA7OIT1ICA41Y566CAD0W0E2CA9LT1EHCA9BD79YCAGKOU8OCA5RMCZBCAA9BCNGCACFK2E1CA9OYLZYCAVMCYTRCAE2VXDNCADGCGFVCAOS4FSLCAKLW0BFCA8QQQOWCAVYEG38

सोच की नावों पर
चले गये हम दूर कहीं;
किनारे के दिये
झलमलाने लगे।

फिर, वहाँ कहीं, खुले समुद्र में
हम जागे। तो दूर नहीं
थी दूर उतनी : चले ही अलग-अलग
हम आये थे। लाये थे

अलग-अलग माँगें।
तब, वहाँ, सुनहली तरंगों पर
हकोले हम खाने लगे।
ओह, एक ही समुद्र पर
एक ही समीर से सिहरते

कौन एक राग ही
हमारे हिये गाने लगे!

सं. 8 बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), अक्टूबर, 1969

error: Content is protected !!