श्रद्धांजलिः कविताएँ -कुँवर नरायण/ लेखनी-नवंबर-दिसंबर 17

ये शब्द वही हैं
यह जगह वही है
जहां कभी मैंने जन्म लिया होगा
इस जन्म से पहले
यह मौसम वही है
जिसमें कभी मैंने प्यार किया होगा
इस प्यार से पहले
यह समय वही है
जिसमें मैं बीत चुका हूँ कभी
इस समय से पहले
वहीं कहीं ठहरी रह गयी है एक कविता
जहां हमने वादा किया था कि फिर मिलेंगे
ये शब्द वही हैं
जिनमें कभी मैंने जिया होगा एक अधूरा जीवन
इस जीवन से पहले।

*

कभी पाना मुझे

तुम अभी आग ही आग
मैं बुझता चिराग

हवा से भी अधिक अस्थिर हाथों से
पकड़ता एक किरण का स्पन्द
पानी पर लिखता एक छंद
बनाता एक आभा-चित्र

और डूब जाता अतल में
एक सीपी में बंद

कभी पाना मुझे
सदियों बाद

दो गोलाद्धों के बीच
झूमते एक मोती में ।

*

अबकी बार लौटा तो

अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से

अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं

अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा

*

वे इसी पृथ्वी पर हैं

कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं जरूर
जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर
कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं
बचाए हुए हैं उसे
अपने ही नरक में डूबने से
वे लोग हैं और बेहद नामालूम घरों में रहते हैं
इतने नामालूम कि कोई उनका पता
ठीक-ठीक बता नहीं सकता
उनके अपने नाम हैं लेकिन वे
इतने साधारण और इतने आमफ़हम हैं
कि किसी को उनके नाम
सही-सही याद नहीं रहते
उनके अपने चेहरे हैं लेकिन वे
एक-दूसरे में इतने घुले-मिले रहते हैं
कि कोई उन्हें देखते ही पहचान नहीं पाता
वे हैं, और इसी पृथ्वी पर हैं
और यह पृथ्वी उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है
और सबसे मजेदार बात तो यह है कि उन्हें
रत्ती भर यह अन्देशा नहीं
कि उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है यह पृथ्वी

*

अयोध्या 1992

हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य !

तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर – लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है.

इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है !

हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान – किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक….
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !

*

कविता की मधुबनी में

सुबह से ढूँढ़ रहा हूँ
अपनी व्यस्त दिनचर्या में
सुकून का वह कोना
जहाँ बैठ कर तुम्हारे साथ
महसूस कर सकूँ सिर्फ अपना होना

याद आती बहुत पहले की
एक बरसात,
सर से पाँव तक भीगी हुई
मेरी बाँहों में कसमसाती एक मुलाकात

थक कर सो गया हूँ
एक व्यस्त दिन के बाद :
यादों में खोजे नहीं मिलती
वैसी कोई दूसरी रात।

बदल गए हैं मौसम,
बदल गए हैं मल्हार के प्रकार –
न उनमें अमराइयों की महक
न बौरायी कोयल की बहक

एक अजनबी की तरह भटकता कवि-मन
अपनी ही जीवनी में
खोजता एक अनुपस्थिति को
कविता की मधुबनी में…

15 नवंबर 2017 को संवेदनशील और जुझारु कवि कुँवर नरायण जी हमसे विदा ले गए परन्तु उनका आशीर्वाद और साथ सदा हमारे बीच रहेगा उनकी कविताओं के रूप में । लेखनी परिवार की ओर से भावभीनी श्रद्धांजलि।

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