हिंदी में प्रवासी साहित्य नवयुगीन साहित्यिक विमर्श है। हिंदी में इसका आरम्भ प्रेमचंद की यही मेरी मातृभूमि है (1908) और शूद्रा (1926) की कहानियों से माना जाता है। इन कहानियों में अमेरिका से लौटे भारतीय प्रवासी तथा मॉरिशस ले जाए गए भारतीय बंधुआ मजदूरों की कहानियाँ हैं।
भारतीय प्रवासियों के अधिकारों की लड़ाई महात्मा गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका से आरम्भ की। हिंदी साहित्य में मॉरिशस में रचित हिन्दी साहित्य की एक अलग पहचान है। इसके पुरोधाओं में मॉरिशस के अभिमन्यु अनत का नाम सर्पोपरि आता है। इन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाएँ कविता, कथा-साहित्य आदि की रचनाओं से प्रवासी साहित्य को समृद्ध किया है। इनका लाल पसीना उपन्यास बहुत ही चर्चित उपन्यास है। इसमें भारतवंशी की वेदनाओं का चित्रण बहुत मर्मस्पर्शी है। इसके बाद अमेरिका,इंग्लैडं आदि देशों में बसे प्रवासी भारतीयों की हिंदी रचनाएँ आती हैं। इंगलैंड में हिंदी साहित्य के विकास में डॉ.लक्ष्मीमल्ल सिंधवी का नाम सर्वोपरि है। डॉ सिंधवी ने इँगलैंड में भारतीय उच्चायुक्त रहते हुए भारतरत्न श्री अटल विहारी वाजपेयी का एकल कवि सम्मेलन कराया। इसके अतिरिक्त इँगलैंड में प्रवासी साहित्य के विकास में श्रीमती शैल अग्रवाल, पदमेश गुप्त, तितिक्षा शाह, कृष्ण कुमार, तेजेन्द्र,शर्मा, दिव्या माथुर आदि ने अपनी रचनाओं से अहम भूमिका निभाई है। श्रीमती शैल अगव्राल लेखनी नाम्र्नी इ पत्रिका का सम्पादन भी करती हैं। इसी प्रकार के प्रयास अमेरिका में गुलाब खण्डेलवाल, सुषम वेदी, अंजना संधीर, उषा प्रियम्बदा आदि ने की है। डॉ. अंजना संधीर ने प्रवासिनी के बोल शीर्षक से अमेरिका में रह गए भारतीय की कविताओं का सम्पादन एवं अमरीका हडिडयों में बस जाता है शीषर्क कविता संग्रह में भारतीयों की गतिविधियों का चित्र प्रस्तुत किया है। कनाडा में श्रीमती स्नेह ठाकुर आदि रचनाकार अपनी रचनाआं से प्रवासी साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। श्रीमती स्नेह ठाकुर कनाडा से वसुधा नाम्नी पत्रिका का सम्पादन भी करती हैं।
सूरीनाम त्रिनिडाड आदि देशों में हरिशंकर आदेश, हरिदेव सहतू आदि ने हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति के पचार-प्रसार के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
आजकल प्रवासी हिंदी साहित्य को दो रूपों में भारतवंशियों का साहित्य तथा प्रवासी भारतीयों का साहित्य से विभिाजित किया जाने लगा है ।
भारतवंशियों के हिंदी साहित्य में मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिडिाड आदि देशों में रचित साहित्य आता है। इन साहित्यकारों का जन्म इन्ही देशों में हुआ है और ये रचनाकार भारतभूमि और उसकी संस्कृति, धर्म, परम्पराओं आदि से स्वयं को जोड़े हुए हैं।
प्रवासी भारतीयों के हिंदी साहित्य में अमेरिका, इँगलैण्ड, कनाडा अस्ट्रेलिया, नीदरलैंड, नार्वे, डेनमार्क आदि देशों में भारतीय प्रवसियों की पहली पीढी़ का साहित्य आता है। ये लोग अपने बेहतर जीवन और शिक्षा के लिए इन देशों में गए और अपने हिंदी प्रेम के कारण, हिन्दी को अपनी अभिव्यक्ति की भाषा बनाया। इस प्रकार ये दो भिन्न धाराएँ प्रवासी भारतीय की संवेदना एवं चेतना का व्यापक परिदृश्य प्रस्तुत करती हैं।
प्रवासी साहित्य के माध्यम से ज्ञात होता है कि भारतेतर देशों में भारतीय कैसे जीवन-यापन करते हैं। उनका जीवन-संघर्ष क्या है तथा परदेश में स्वदेश की कोई सत्ता या अनुभूति है या नहीं इसका परिचय मिलता है। प्रवासी साहित्य के माध्यम से दो नस्लों के व्यक्ति एक साथ मिलते हैं। इस मिलन से एक नई नस्ल का जन्म होता है। इस प्रकार के सम्मिलन से भिन्न प्रकार की संस्कृति, भाषा और साहित्य का जन्म होता है।
हिंदी का प्रवासी साहित्य, हिंदी साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करता है।
जिस प्रकार हिंदी मे छायावाद, प्रगतिवाद,प्रयोगवाद, अकविता, नई कहानी, दलित साहित्य, स्त्री विमर्श आदि की स्वतंत्र सत्ता है, उसी प्रकार प्रवासी हिंदी साहित्य, भारततेर देशों में हिंदी साहित्य की पहचान है।
इधर हिंदी के कुछ एक आलोचक भारततेर देशों में रचित साहित्य, को साहित्य की श्रेणी में स्वीकार करने के पक्षधर नहीं हैं। इस प्रकार की अवधारणा भारतीय भाषाओं के अन्य साहित्य में नहीं है। इन आलोचकों की अवधारणाएँ ही हिंदी साहित्य को पीछे धकेलती है। यही कारण है कि भारतीय भाषाओं का मराठी,बाँग्ला आदि भाषाओं का साहित्य हिंदी से टक्कर लेने के लिए तत्पर रहता है।
मिश्र-बन्धु के नव-रत्न शीर्षक से प्रकाशित हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम संस्करण में कबीर जैस कवि को स्थान नहीं दिया गया था। जब विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने आचार्य क्षितिमोहन सेन शास्त्री द्वारा संकलित कबीर वाणी से एक सौ पदों का अंगरेजी अनुवाद, हण्डे्रड पोएम्स औफ कबीर विश्व साहित्य के दरबार में रखा एवं भारतीय अध्यात्मवाद को दर्शाया एवं पण्डित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर शीर्षक से पुस्तक की रचना की तब मिश्रबन्धु ने अपने हिन्दी नवरत्न के दूसरे संस्करण में कबीर को स्थान दिया। यही नहीं रामचन्द्र शुक्ल जिसने साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का आरम्भ किया कबीर को यथोचित स्थान नहीं दिया। कबीर के सम्बंध में लिखना था, इसलिए लिखा जो कबीर आज भी प्रासंगिक हैं।
हिंदी किसी क्षेत्र की भाषा नहीं रही है। इसका विकास भी बोलियों से ही हुआ है। न जाने कितने देशी-विदेशी शब्द आकर इसमे घुलमिल गए हैं। आजकल जिस परिनिष्ठित हिंदी की बात कही जाती है उसका भी विकास मेरठ के आसपास बोली जानेवाली कौरवी एवं अरबी-फारसी के मिश्रण से ही हुआ है। भारत के दक्षिणी प्रांतों के मिश्रण से बोली जानेवाली हिंदी को दक्खिनी हिंदी एचं पूर्वी प्रांतों में बोली जानेवाली हिंदी को पूरबी हिंदी से सम्बोधित कर अलग-थलग कर दिया। हिंदी के आलोचकों को ज्ञात होना चाहिए कि आज जिस हिंदी को विश्व मंच की भाषा कहने
में हिचकते नहीं हें उस हिंदी का विकास हिंदीतर पद्रेशों एवं विदेशों से ही हुआ है। इस हिंदी का केन्द्र कोलकाता, मुम्बई, हैदराबाद एव विदशों में मॉरिशस ही है और रहा है। जब भारत में ही लिखी गई हिंदी उपेक्षित है तब प्रवासी हिंदी साहित्य को हिन्दुत्ववादी अधकचरा साहित्य और दोयम श्रेणी का साहित्य कहने में हिचक क्यों हो सकती है ।
आज प्रवासी हिंदी साहित्यकारों ने ही हिंदी को विश्व दरबार में पहुँचाया है एवं
संयुक्त राष्ट्रसंघ की अधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए संघर्षरत हैं। मॉरिशस को लघु भारत इसलिए नहीं कहा जाता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार के दीनहीन वर्ग,अपनी मजदूरी करने के लिए गए एवं वहाँ रह बस गए। अपितु अपने साथ पोटली में अवधी में लिखित रामचरितमानस एवं हनुमान चालीसा भी ले गए, जिनका गायन-वादन अपने दिनभर के कायिक परिश्रम के बाद, संध्या समय करते थे। यह परम्परा आज भी मॉरिशस के घर-घर में है। यही नहीं अपनी पहचान को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भारतीय संस्कृति के उपादान उत्सव-त्यौहार,रीति-रिवाज का पालन करते हैं। यही नहीं अपनी पूर्वजों की पहचान बनाए रखने के लिए अपनी पदवी में अपने पूर्वजों का नाम जोड़ने नहीं भूलते हैं। उदाहरण- सर शिवसागर रामगुलाम या अनिरूद्ध जगन्नाथ आदि का नाम देखा जा सकता है। रामगुलाम एवं जगन्नाथ, इनके पूर्वजों का नाम रहा है। यद्यपि वहाँ की कामकाज की भाषा क्रिओली है जो फ्रेंच एवं भोजपुरी के मेल मिलाप से बनी है। किंतु मॉरिशस के घर-घर में रामायण का नित्य प्रतिदिन पाठ होता है। श्री राजेन्द्र अरुण मॉरिशस में रामायण संस्थान की स्थापना कर रामायण का प्रचार प्रसार का कार्य कर रहे हैं । इन्ही सब कारणों से विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना मॉरिशस में हुई है।
इस प्रकार हिंदी को विश्व मंच पर लाने के लिए प्रवासी भारतीय का योगदान सराहनीय है।
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सचिव, शान्ति निकेतन हिंदी प्रचार सभा
रूपान्तर परिसर,रतनपल्ली नॉर्थ
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