गाय
बड़ी खामोश सी कहानी चल रही है
गाय की, नदियों की, नोटबंदी की,
रोहिंग्या की, गौरी लंकेश की,
कोरिया, दोकलाम की,
धर्मों की, ठाकुर –दलितों की,
हिन्दू–मुसलमानों की……
बंगलों का शुद्धिकरण हो रहा है
मीनारों की अजानों की चिल्लाहट के सामने
भजनों के डी.जे. कान फाड़ रहे हैं….
कुछ बच्चे हैं
इन्सेफेलाईटिस या शायद आक्सीजन
कोई बात नहीं अगस्त में ऐसा होता रहता है
एक तरफ जहरीले कीट हैं
तो दूसरी तरफ सृष्टि की तरुणाई सी कोपलें फूट रही हैं
एक तरफ मृत्यु तो दूसरी ओर जीवन जन्म ले रहा है.
लेकिन इनमें अमीर का बच्चा नहीं है
प्रारब्ध की लेखनी में गरीबों की मौत के लिए हमेशा स्याही रहती है.
मैं खुशनसीब हूँ,
अभी तक तो डेंगू, चिकुनगुनिया, स्वाइन फ्लू से बचा हुआ हूँ..
हर साल की कहानी है,
विदेशी दवाईयां हैं,
विदेशी इलाज है,
महँगी जांचें हैं,
फिर डाक्टरों की फीस भी है,
अंधाधुन्ध एंटीबायोटिक के बाद अब सुपरबग है
काश की पचास पार कर पाऊं।
हे शिव अब तुम्हारा भारत नहीं बच पा रहा है
इन नए वैज्ञानिकों से.
इन को बुलेट ट्रेन चलानी है, स्मार्ट सिटी बनाने हैं,
तालाबों सरोवरों की बजाए नदियों को जोड़ना है,
चारों तरफ रेडिएशन का जाल फैलाना है,
इन्टरनेट पर आधारित एक आभासी दुनिया बनानी है,
उपग्रहों, ड्रोन, परमाणु बमों, मिसाइलों,
दाढ़ी, कपडा, टोपी, चोटी, गमछा,
राष्ट्रवादियों के नए औजार हैं.
बकरीद का दिन है,
गौरक्षकों की नज़रों से बचा कर कुछ लोग बकरे की गर्दन पर छुरी रेत रहे हैं,
तड़पता, थरथराता, मिमियाता वो खामोश हो रहा है.
हे पशुपति नाथ, तुम्हारी दुनियां में बेजुबानों के उबलते खून को देखकर
खुशियाँ मनाई जा रही हैं
सफ़ेद झक्क लिबासों में गले मिले जा रहे हैं.
क्या सच में, जान लेकर ख़ुशी मिल सकती है?
बहुत सोंचता हूँ.
सहस्त्राब्दियों की परम्पराएं अभी भी अपने अस्तित्व को सहेज रही हैं.
चेचक का इलाज मासूम का खून,
मलेरिया से राजपरिवारों को बचाती नरबलियाँ
पति के साथ सात जन्मों के लिए फूंकी जाती यौवनाएं
छोटे बच्चों को नए पुल–सड़कें बनाने के लिए बलि.
धर्म के ठेकेदारों की दुकानों पर आज भी शापित डायन, प्रेत बाधा, वशीकरण का इलाज होता है.
धर्म की परम्पराओं के बीच न पड़ो जनाब
वरना क्या बांग्लादेश के ब्लागर्स, क्या शार्ली एब्डो, क्या मलाला,
क्या कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसरे और अब गौरी लंकेश.
मंदिरों के चौखट से दूर रहो भाई.
भगवान सिर्फ कुछ लोगों का है.
अजीब दिक्कत है न
चोटी रखे लोगों को गीता तो रटी है लेकिन
वसुधैव कुटुम्बकम का अर्थ नहीं पता.
घर की चौखट पर कदम रखने से पहले जाति पता करते हो न?
कुएं की जगत पर अछूत दुत्कारते हो
लेकिन वो झाड़ू उठा जुट जाता है बजबजाती नालियों, सड़ते कूड़े,
और मीथेन गैस के चैम्बर में घुटकर हमारी जान बचाने।।
जहर और बीमारियों को हमसे दूर ले जाता है अपनी जान की कीमत पर।।।।
क़ुरान की कसम लिए लोगों से पूछों
निहत्थों, औरतों, बच्चों, बूढों के क़त्ल का अंजाम
दोझख की आग में जलते रहना पढ़े हो?
फौजी का लड़का हूँ, माँ की भीगी आंखों में हर शाम
पिता की सलामती ढूंढता था।
नक्सलियों, आतंकियों, दुश्मनों और झूठे राष्ट्रवादियों से
पिता का सामना न हो, हर जगह माथा टेक देती थी।
मानव अधिकार हम लोगों के लिए भी है?
आतंकियों के लिए छाती पीटने वालों
आंसू के कतरे ज़ोहरा जैसे बच्चों की आंखों में भी झांक लेना।
हे शिव तुम्हारी धरती के लोग अभी भी अधूरे हैं
नदियों, पेड़ों, तालाबों, भाषा, पत्थरों, ताबीजों, मजारों, मंदिरों, जमीनों
पर अगरबत्ती सुलगाते मिलते हैं
लेकिन क्यों ????
बस इस क्यों का जवाब नहीं दे पाते हैं..
एड्स ग्रस्त स्त्री और उसके छोटे छोटे बच्चे कुएं में कूद कर प्राण दे देते हैं
समाज की क्रूरता इन अबोधों को भी स्वीकार न कर पाती है…
बाबा बने ढोंगी या सम्भ्रांत लिबास के पीछे छिपे अनैतिक मुखौटे
वासना के अंधे मासूमों के कातिल
कन्या के पैर छूने में कतराते हैं..
वैश्याओं के नग्न नाच की पैरवी करने वालों से प्रद्युम्न को कोई नहीं बचा पाता है।
हाँ
हे अर्धनारीश्वर, ये लोग सच में अधूरे हैं
फ्रेंडशिप डे मनाने वाले रक्षाबन्धन की पवित्रता से अनजान हैं
अभी भी ये लोग औरत को बेचते और भोगते हैं
ये अभी भी विवाह के संस्कारों से अनजान हैं
अनजान हैं सावित्री और सत्यवान से,
अनजान हैं कि शक्ति और पौरुष आधार है सृष्टि सृजन का।
बच्चे पैदा कर लेना, औरत को घर मे रख लेना
शायद यही इनके लिए परिवार की परिभाषा है।
अजीब हैं ना इनके दिमाग में चल रही कल्पनाएं
अफ़ग़ानिस्तान में बामियान बुतशिकनी से तबाह कौन हुआ था ??
किस धर्म के लोग भूंखे मर गए जरा तालिबान से पता करो…….
वैष्णों और अमरनाथ यात्रा बंद होने के नाम पर कश्मीर सहम उठता है
दुर्गापूजा, दशहरे की मूर्तियां बनाने वालों का धर्म जरा पता करना।
इन मेलों, त्योहारों, मूर्तियों, होली के रंग, दीये की रोशनी से कई चेहरे चमक रहे होते हैं
भूंखे पेट हैं जनाब, तुम्हारी पोथियों से पहले कुछ पेट पालने हैं।
पर्वों के पीछे छिपा मानवता का भाव, रचनात्मकता, संस्कृति और उल्लास से उत्पन्न हार्मोन्स
भीषण मानसिक रोगों का इलाज कर देते हैं ।।।।।
सीरिया के पलायन से लेकर बर्मा से भाग रहे लोगों को देखा?
क्यों होता है ऐसा, देखना चाहते हो?
दो भूंखे बच्चों के बीच एक बोतल दूध दे दो
लड़ेंगे, झगड़ेंगे, छीनेंगे मौत की हद तक, पर जीतेगा एक।
बचपन – पाना, पेचकस और प्लास के साथ बीतेगा
जवानी हथियारों के साथ, बुढ़ापा तो आ ही नहीं पायेगा।
पेट की आग में शिक्षा और संस्कारों का ईंधन जलाकर….
सही और गलत के भेद से परे ये अल्पायु में ही काल मे समाते हैं।।।
न रोको जनसंख्या विस्फोट को,
यही हश्र सबके परिवारों का होना है।
काश की धर्म की पट्टी हटाकर जान पाओ
ये हिंदुओं, बौद्ध, ईसाई, यहूदी, मुसलमानों की लड़ाई नहीं,
जरूरतों की लड़ाई है।
संसाधनों को छीनने और जिंदा रहने की लड़ाई है।।।
फिर भी शिव
बहुत गहराई है तुम्हारे सनातन में
बिना वर्णाश्रम वाला तुम्हारा चिरकालिक भारत
राम और रावण के रामेश्वरम
वसुधा को परिवार मानने वाला तुम्हारा प्रकृति विज्ञान
किसी भी जीव की जान न लेने वाला
सिंधु और गंगा का मैदान।
और मानवता को जन्म देती तुम्हारी गाय…..
खानाबदोश झूम खेती वाले हब्शी आखिर एक जगह टिक ही गए
मांस और ऊर्जा के प्रथम ग्राही शाक के गुणों का बोध कर सके
समझ गए कि मांस को पचाने के लिए अम्ल की अधिक सक्रियता
शरीर का क्या हाल कर देती है
बताने की जरूरत नही, खुद देख लेना
मांसभक्षी के मल और शाकाहारी के गोबर का परीक्षण करके।
भारत को गाँव का देश गाय के कारण ही तो कहा गया था
दशराज्ञ या महाभारत में आर्य गाय के लिए ही तो लड़ते थे
राष्ट्र की इकाई परिवार और परिवार की पालक गाय
भारत की मूल अर्थव्यवस्था गाय ही है।
संसाधनों की कमी भारत को न होने दी
और यहां पर कदम रखने वाला कोई बाहर नही जा पाया….
क्यों न इसे मां कहें।
कुछ झूठी अफवाहें भी हैं
ऑक्सीजन निकलती है गाय के दाहिने नथुने से,
गौमूत्र अमृत है, गोबर सेवन शरीर को पुष्ट बनाता है
आदि आदि।
अफवाहें हैं लेकिन क्यों, चलो पड़ताल कर लेते हैं
ये हमेशा साफ जगह पर खड़ी और बैठी मिलती है
हो सकता है इसी वजह से इसका दूध रोगाणु मुक्त होता है
रासायनिक गुणों में मानव दुग्ध के सदृश।।
हज़ारों सालों से ऊर्जा का साधन कंडे– उपले होते थे
कोयले की तरह जलने वाले, लकड़ियों को काटने से बचाने वाले।।
उपले का धुआं
डेंगू–मलेरिया के मच्छर, प्लेग के पिस्सू, हैज़ा की मक्खियों पर
आज के आलआउट से ज्यादा असरदार था।
राख के रूप में शक्तिशाली पेस्टिसाइड
फसलों को चाटने वाले कीड़े हटाता था।
लाखों सालों से यही गोबर ही तो था
जिसने हमारी धरती की उपजाऊ गुणवत्ता को अब तक कम नहीं होने दिया।
हर पौधा इंतजार करता है गोबर की खाद का।
बंजर सी जमीन भी झूम उठती है इसके आलिंगन से।
कोई आश्चर्य नही की गोमूत्र के रोगाणु रोधी शोध चल रहे हैं
तपेदिक से लेकर सुपरबग पर भी।
विष ही विष की औषधि है
गाय का जहर शरीर में पनपते जहर को मार सकता होगा।
क्या गोबर से लिपे घर में, सौर विकिरण अवशोषित हो जाते हैं?
अजीब सी ठंडक महसूस करते हो……. शोध तो हो जाने दो।
परमाणु युद्धों का भी सामना करना है गाय या गावों के सहारे।
और आने वाली सदी को ऊर्जा की आपूर्ति भी तो करनी है गाय को।
आखिर कितने दिन चलेगा पेट्रोल, आणविक ईंधन???
तब भी इंसानियत पर अपने विचार थोपने वालों,
वर्ण विचार और धर्म जायज कत्ल की साजिशें रचने वालों,
गोमाता चिल्लाने वालों की चरागाहों में भूंखी प्यासी गायें दम तोड़ रही हैं.
या फिर सड़कों पर झुंड में बैठी कई लोगों का काल बन रही हैं.
अर्थव्यवस्था का आधार, धर्म और राजनीति का मोहरा बना लिया गया है।
बरगद – पीपल के पेड़ों से घिरे, जमीन को तर करते तालाबों के किनारे अपने गांव।
और हर परिवार को
फसलें देकर मिटाती भूँख,
बीमारियों से बचाती दवा,
मिट्टी को पोषित करती,
बैलों से हल चलवाती,
ऊर्जा के हर संस्करण, खेती के हर प्रसंस्करण
से रूबरू कराती गाय।
मूर्खता की हद तक लोगों को भगवान
लेकिन मुझे तुम माँ जैसी क्यों नज़र आती हो।
आत्महत्या को अग्रसर वैज्ञानिक अर्थवाद से
अल्पभोग प्रकृति विज्ञान के यथार्थ को लौटाती…
लहलहाती फ़सलें – शुद्ध जलवायु लिए
भविष्य के नैतिक भारत को पालती
हर भारतीय की माँ सी नज़र आती हो।
राम सिंह यादव
(कानपुर, भारत)
yadav.rsingh@gmail.com
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