सन्नाटे की कनपटी पर दाग़ी गई पिस्तौल की गोली था शोर । चुप्पी के ताल में फेंका गया बड़ा-सा पत्थर था शोर । मौन के रन-वे से उड़ान भरता जेट विमान था शोर । कभी-कभी गुप्ताजी ऐसा सोचते ।
वे शोर से पीड़ित थे । सुबह जागने से लेकर रात में सोने तक वे हर पल शोर का शिकार बने रहते । शोर असंख्य रूपों में असंख्य बार उन पर असंख्य वार करता ।
शहर के ट्रैफ़िक को न जाने उनसे क्या बैर था । बसों , ट्रकों और कारों के हॉर्न निरंतर उनके कानों के पर्दों का चीर-हरण करते रहते । अक्सर वे ट्रैफ़िक-जाम में फँस जाते और पानी से बाहर आ गिरी मछली-सा छटपटाते । पींऽऽ पोंऽऽ का शोर उनके दिमाग़ की नसों को निचोड़कर उन्हें पीड़ा की सलीब पर टाँग देता । उनके अदृश्य घावों में से शोर का मवाद रिसता रहता ।
ट्रैफ़िक से ज़रा राहत मिलती तो क्रिकेट-कमेंट्री का शोर उनकी छाती पर मूँग दलने लगता । मैच वाले दिन गली-मोहल्लों-मकानों-दुकानों से केवल ‘एल. बी.
डब्ल्यू’ , ‘बोल्ड’ , ‘बाउंसर’ , ‘सिक्सर’ , आदि का शोर आ रहा होता । वे इस शब्दावली के अर्थ से अपरिचित थे । पर शोर को समझने के लिए न भाषा आनी चाहिए , न शब्दों के अर्थ । कमेंट्री के प्यालों में से दर्शकों का शोर उफन-उफन कर बाहर गिरता रहता । गुप्ताजी को लगता जैसे उनके दिमाग़ की नसों में मंगोलों की आततायी सेना मार-काट कर रही हो ।
घर पर भी चैन नहीं था । गुप्ताजी का बेटा जवान हो रहा था । उसे रॉक और पॉप म्यूज़िक का शैतानी शौक़ था । आए दिन वह अपना म्यूज़िक-सिस्टम तेज आवाज़ में चला देता । गुप्ताजी को लगता जैसे कोई उनके दिमाग़ में शहर के घंटा-घर में लगा भारी-भरकम घंटा बजा रहा हो । वे बिना मरे ही कई-कई मौतें मर जाते ।
गुप्ताजी की श्रीमती भी कम नहीं थीं । उन्होंने एक तोता पाल रखा था । रोज़ उसे हरी मिर्च खिलाती थीं । ससुरा दिन-रात टाँय-टाँय करता रहता था । जैसे ही तोता बोलना शुरू करता , गुप्ता जी का रक्तचाप बढ़ जाता । उनके दिल में आता कि उसकी ज़ुबान खींच लें । या उसकी गर्दन मरोड़ दें ।
गुप्ताजी की बदनसीबी यहीं ख़त्म नहीं होती थी । उनके घर के पास से ही एक रेल-पटरी गुज़रती थी । प्रतिदिन बीच रात में गुप्ताजी की छाती पर कोई भारी-भरकम इंजन धड़धड़ाता हुआ गुज़र जाता था । एक्सप्रेस और पैसेंजर गाड़ियाँ जब जब दिन में कई बार उस पटरी पर से धड़ल्ले से गुज़रती थीं तो भला माल-गाड़ियाँ क्यों पीछे रहतीं । गुप्ताजी शोर के इस महा-सैलाब में डूबते हुए तैराक-सा हाथ-पैर मारते रहते ।
इधर कुछ दिनों से सीमा पर तनाव बढ़ गया था । सो वायु-सेना के जेट विमान नीची उड़ानें भर कर युद्धाभ्यास करने लगे थे । रही-सही कसर इन जेट विमानों ने पूरी कर दी । तीव्र गति वाली इनकी नीची उड़ानों से गुप्ताजी के दिमाग़ की बुनियाद काँप जाती । उनकी रूह शोर के इस चौतरफ़ा हमले पर धाराप्रवाह आँसू बहाती ।
मंदिरों , मस्जिदों और गुरुद्वारों से भी लाउड-स्पीकरों पर सुबह-शाम प्रसारण होता था । कई बार रात-रात भर जगरातों की धूम मची होती । कभी शादी-ब्याह के समय बारात वालों के बैंड-बाजे गुप्ताजी की शांति का चीर-हरण कर रहे होते । बेचारे गुप्ताजी मन मसोस कर रह जाते ।
गली के आवारा कुत्तों ने भी जैसे उन्हें सताने की प्रतिज्ञा कर ली थी । रात होते ही वे समवेत स्वर में भौंकते और रोते । उधर कुत्तों का सामूहिक रुदन चल रहा होता , इधर न सो पाने के कारण गुप्ताजी अपने सिर के बचे-खुचे बाल नोच रहे होते ।
जैसे तरह-तरह का मधुर संगीत सुनकर गाय अधिक दूध देने लगती है , इसके ठीक उलट नाना प्रकार के कर्ण-कटु शोर सुनकर गुप्ताजी अधिक बेचैन होने लगते । उनके लिए जीवन एक लम्बा सिर-दर्द बनता जा रहा था ।
घर में फ़ोन का होना भी एक अजीब आफ़त थी । सुबह-शाम , दिन-रात फ़ोन की घंटी क्रीं-क्रीं करती रहती । गुप्ताजी को लगता जैसे टेलीफ़ोन विभाग भी उनके विरुद्ध होने वाली साज़िश में शामिल हो ।
आख़िर गुप्ताजी ‘ त्राहिमाम् , त्राहिमाम् ‘ करते हुए प्रभु की शरण में जा पहुँचे । वे प्रतिदिन प्रभु से प्रार्थना करने लगे कि वह उनकी मदद करे । वह कृपालु है । दयालु है । सर्वशक्तिमान है । वही उन्हें शोर के ऑक्टोपस के चंगुल से मुक्त करवा सकता है । उन्होंने इतने मन से , इतनी लगन से , इतनी शिद्दत से यह प्रार्थना की कि पेड़-पौधे , पशु-पक्षी , नदी-पहाड़ , समुद्र-आकाश — सब के दिल पसीज गए । वे सब भी प्रभु से प्रार्थना करने लगे कि हे ईश्वर , गुप्ताजी को शोर के ऑक्टोपस के चंगुल से मुक्त कर दो । चाँद-सितारे कहने लग — हे ईश्वर , गुप्ताजी को शोर के ऑक्टोपस के चंगुल से मुक्त कर दो । नीहारिकाएँ और आकाशगंगाएँ कहने लगीं — हे ईश्वर , गुप्ताजी को शोर के ऑक्टोपस के चंगुल से मुक्त कर दो । ब्रह्मांड का कण-कण कहने लगा — हे ईश्वर , गुप्ताजी को शोर के ऑक्टोपस के चंगुल से मुक्त कर दो ।
पता नहीं इस कलियुग में प्रभु ने उन सब की प्रार्थना सुनी या नहीं सुनी । लेकिन गुप्ताजी के शहर में एक दिन अचानक हालात कुछ ऐसे बन गए कि गुप्ताजी को शोर के आक्रमण से कुछ राहत मिली ।
हुआ यह कि कुछ मज़दूर संगठनों ने अपनी माँगों को लेकर शहर में ‘बंद’ का आह्वान किया । कुछ असामाजिक तत्त्वों ने मौके का फ़ायदा उठा कर शहर में तोड़-फोड़ शुरू कर दी । पथराव हुआ । आगज़नी हुई । छुरेबाज़ी हुई । और शहर में कर्फ़्यू लग गया । पुलिस और अर्द्ध-सैनिक बल के जवान गलियों में गश्त करने लगे । शहर के विराट् रथ के पहिए थम गए । सामान्य जन-जीवन की सभी गतिविधियाँ ठप्प हो गईं । सड़क पर यातायात बंद हो गया । रेल-गाड़ियाँ पिछले स्टेशन पर ही रोक दी गईं । मेट्रो-रेल भी बंद कर दी गई । लोग सहम कर घरों में दुबक गए । चारों ओर एक भुतहा चुप्पी व्याप्त हो गई ।
लेकिन गुप्ताजी अजीब दुविधा में फँस गए । एक ओर तो उन्हें प्रतिदिन के शोर से राहत मिली । लेकिन दूसरी ओर वे अपनी पत्नी और बेटे को लेकर चिंतित हो उठे । हुआ यह कि उनकी पत्नी बेटे के साथ शहर के दूसरे छोर पर एक रिश्तेदार से मिलने गई हुई थी । तभी शहर में हिंसा हुई और कर्फ़्यू लग गया । अब गुप्ताजी घर पर अकेले रह गए । उधर उनकी बीवी और बेटा शहर के दूसरे छोर पर फँस गए ।
वैसे तो गुप्ताजी टेलीफ़ोन को प्रतिदिन कोसते थे । जब देखो तब बजता रहता है । पर आज उन्हें फ़ोन की आवश्यकता महसूस हुई । उन्होंने लैंड-लाइन वाले फ़ोन को बड़े प्यार से देखा । पर जैसे ही उन्होंने फ़ोन का चोगा उठाया , डायल-टोन को ग़ायब पाया । धोखेबाज़ । इसे भी आज ही ‘ डेड ‘ होना था ! अब उन्हें मोबाइल फ़ोन की शरण में जाना पड़ा । पर यहाँ फ़ोन कंपनी का नेटवर्क ही ग़ायब
था । नए ज़माने की चीज़ों में यही ख़राबी थी । ऐन ज़रूरत के समय धोखा दे जाती थीं । अजीब मुसीबत थी । जैसे-जैसे समय बीतता गया , गुप्ताजी की उद्विग्नता बढ़ती गई । उनके चारो ओर अब अथाह शांति थी । पर उनके भीतर असीम शोर भरा हुआ था । सारी रात गुप्ताजी सो नहीं पाए ।
अगले दिन कर्फ़्यू में एक घंटे की ढील के दौरान किसी तरह उनकी पत्नी और बेटा सकुशल वापस लौटकर आ सके । गुप्ताजी ने चैन की साँस ली । पर टी. वी. पर दिखाए जाने वाले समाचारों से पता चला कि कर्फ़्यू में ढील के दौरान शहर में कई स्थानों पर हिंसा हुई । कई लोग मारे गए । प्रशासन ने एक बार फिर कड़ाई से कर्फ़्यू लागू कर दिया । इस बार कई दिनों तक कर्फ़्यू में कोई ढील नहीं दी गई ।
अगले कई दिनों तक सामान्य जन-जीवन की सभी गतिविधियाँ पूरी तरह से ठप्प रहीं । स्कूल-कॉलेज और दुकानें बंद रहीं । सड़कों पर यातायात नहीं चला । न रेल-गाड़ियाँ चलीं , न हवाई जहाज़ उड़े । लोग कठिनाई महसूस करने
लगे ।
गुप्ताजी को पहले एक-दो दिन तो शोर न होने के कारण राहत महसूस हुई । पर जब कर्फ़्यू का आलम सात-आठ दिन चल गया तो उन्हें भी यह आरोपित सन्नाटा चुभने लगा ।
फ़ोन मज़े से ‘ डेड ‘ पड़ा था । आवारा कुत्तों ने भी रात में भौंकना-रोना बंद कर दिया था । शायद वे भी स्थिति की नज़ाकत को भाँप गए थे । आमतौर पर प्रतिदिन ‘ टाँय-टाँय ‘ करने वाला घर का तोता भी हफ़्ते-भर से अपने पिंजरे में सहमा-दुबका-सा बैठा था । गुप्ताजी ने उसे उकसाना चाहा । पर उसके मुँह में जैसे ज़ुबान ही नहीं थी । इन दिनों कहीं कोई क्रिकेट-मैच भी नहीं चल रहा था । इसलिए कमेंट्री भी सुनने को नहीं मिली । न ही बेटे ने तेज आवाज़ में रॉक-म्यूज़िक चलाया ।
इसी तरह आठ-दस दिन बीत गए । जीवन की चहल-पहल और शोर का स्थान एक भुतहा सन्नाटे ने ले लिया था । शहर जैसे नींद की गोलियों का ओवरडोज़ लेकर सो गया था । इन आठ-दस दिनों में गुप्ताजी ने खुद में एक विचित्र परिवर्तन महसूस किया । उन्हें यह अस्वाभाविक सन्नाटा खलने लगा । उनके भीतर कहीं इस इच्छा की कोंपल उग आई कि शहर की सड़कों पर फिर से बसों , ट्रकों , कारों और दोपहिया वाहनों का शोर सुनाई दे । कारखानों के भोंपू फिर से बजें । फ़ोन की घंटी फिर घनघनाए । घर का तोता फिर से ‘ टाँय-टाँय ‘ करे । गली के आवारा कुत्ते फिर से भौंकें-रोएँ । मंदिरों और गुरुद्वारों पर लगे लाउडस्पीकर फिर से भक्तों को बुलाएँ । मस्जिदों से फिर से अजान की आवाज़ आए । दिशाओं में एक बार फिर जगरातों के गीत-भजन व्याप्त हो जाएँ । गलियों-बाज़ारों में फिर से चहल-पहल और रौनक़ लौट आए । घरों-दुकानों में फिर से क्रिकेट-कमेंट्री गूँज जाए । शादी-ब्याह वालों के बैंड-बाजे फिर से फड़कती धुनें सुनाएँ । उनका बेटा फिर से तेज आवाज़ में रॉक-म्यूज़िक चलाए । और शहर भुतहा चुप्पी वाले ऑक्टोपस की गिरफ़्त से आज़ाद हो जाए ।
गुप्ताजी ने समाचार जानने के लिए टी.वी. चलाया । किसी समाचार-चैनल पर किसी समुद्र-तट पर आई भयावह सुनामी से हुई भारी तबाही के दृश्य दिखाए जा रहे थे । चारों ओर एक भुतहा चुप्पी थी । एक भयावह सन्नाटा था । कहीं-कहीं इंसानों और पशुओं की लाशें फँसी पड़ी थीं ।
और तब गुप्ताजी ने महसूस किया कि जहाँ मौत है , वहाँ चुप्पी है , मरघटी सन्नाटा है । जहाँ जीवन है , वहाँ रौनक़ है , चहल-पहल है । और जीवन से जुड़ा शोर है ।
धीरे-धीरे शहर में स्थिति सामान्य होने लगी । सामान्य जन-जीवन की गतिविधियों से जुड़ा शोर वापस लौट आया । पर इस बार गुप्ताजी बाहर के शोर से विचलित नहीं हुए क्योंकि उनके भीतर अब असीम शांति भरी थी ।
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सुशांत सुप्रिय
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इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद – 201014
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