कविता धरोहरः गजानन माधव मुक्तिबोध/ लेखनी-नवंबर-दिसंबर 17

खोल आँखें

जिस देश प्राणों की जलन में
एक नूतन स्वप्न का संचार हो,
ओ हृदय मेरे, उस ज्वलन की भूमि में बिछ जा स्वयं ही;
औ’ तड़प कर उस निराले देश में तू खोल आँखें।
देख-जलते स्पन्दनों में क्या उलझता ही गया हैं;
जो नयी चिनगारियां
नव स्वप्न का आलोक ले
उत्पन्न होती जा रही हैं,
उन सबलतम, तीव्र, कोमल देश की
चिनगारियों में
जो खिले हैं स्वप्न रक्तिम,
देख ले जी-भर उन्हें तू।
उस असीम विकल रस को पी स्वयं भी।
यह महा-व्याकुल अनावृत ज्ञान-लिप्सा
रख रही निज में अनावृत एक सपना-
सहस्रों स्वर्गीय स्वप्नों से बृहत्तर
स्वप्न का यह व्योम नीला
प्राण-पृथ्वि पर झुका है ।
उस महा-व्याकुल अनावृत ज्ञानलिप्सा
के क्षितिज पर
जो खिंचा है स्वप्न-
श्रावण-सांझ के वितरित घनों पर
अमित, नीला, जामुनी, अति लाल, सुन्दर
दिवस की बरसात को सूर्यास्त का चुम्बन
कि ऐसा अद्वितीय
मधुरतम
आश्चर्यमय ।
वह ज्ञान-लिप्सा-क्षितिज-सपना
रे, वही तुझमें अनेक स्वप्न देगा औ’ अनेकों सत्य के शिशु
नव हृदय के गर्भ में द्रुत
आ चलेंगे ।

आत्मा मेरी–
उस ज्वलन की भूमि में तू स्वयं बिछ ले
देख, जलते स्पन्दनों में क्या उलझता ही गया है ।

*

मुझे क़दम-क़दम पर

मुझे क़दम-क़दम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए!!

एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुज़रना चाहता हूँ;
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तज़ुर्बे और अपने सपने…
सब सच्चे लगते हैं;
अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए!!

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है;
हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है,
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीड़ा है,
पलभर में सबसे गुज़रना चाहता हूँ,
प्रत्येक उर में से तिर जाना चाहता हूँ,
इस तरह खुद ही को दिए-दिए फिरता हूँ,
अजीब है ज़िन्दगी!!
बेवकूफ़ बनने के ख़ातिर ही
सब तरफ़ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ;
और यह सब देख बड़ा मज़ा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ…
ह्रदय में मेरे ही,
प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है
हँस-हँसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,
कि जगत्…स्वायत्त हुआ जाता है।

कहानियाँ लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहाँ ज़रा खड़े होकर
बातें कुछ करता हूँ…
…उपन्यास मिल जाते।

दुख की कथाएँ, तरह-तरह की शिकायतें
अहंकार-विश्लेषण, चारित्रिक आख्यान,
ज़माने के जानदार सूरे व आयतें
सुनने को मिलती हैं!

कविताएँ मुसकरा लाग-डाँट करती हैँ
प्यार बात करती हैं।
मरने और जीने की जलती हुई सीढ़ियाँ
श्रद्धाएँ चढ़ती हैं!!

घबराए प्रतीक और मुसकाते रूप-चित्र
लेकर मैं घर पर जब लौटता…
उपमाएँ, द्वार पर आते ही कहती हैं कि
सौ बरस और तुम्हें
जीना ही चाहिए।

घर पर भी, पग-पग पर चौराहे मिलते हैं,
बाँहें फैलाए रोज़ मिलती हैं सौ राहें,
शाखा-प्रशाखाएँ निकलती रहती हैं,
नव-नवीन रूप-दृश्यवाले सौ-सौ विषय
रोज़-रोज़ मिलते हैं…
और, मैं सोच रहा कि
जीवन में आज के लेखक की कठिनाई यह नहीं कि
कमी है विषयों की
वरन् यह आधिक्य उनका ही
उसको सताता है,
और, वह ठीक चुनाव कर नहीं पाता है!!

*

दूर तारा

दूर तारा
तीव्र–गति
अति दूर तारा
वह हमारा शून्य के विस्तार नीले में चला है !

और नीचे लोग उस को देखते हैं, नापते हैं गति, उदय औ’ अस्त का इतिहास !
किंतु इतनी दीर्घ दूरी
शून्य के उस कुछ-न-होने से बना जो नील का आकाश
वह एक उत्तर
दूरबीनों की सतत आलोचनाओं को
नयन-आवर्त के सीमित निदर्शन या कि दर्शन-यत्न को !
वे नापने वाले लिखें उस के उदय औ’ अस्त कि गाथा
सदा ही ग्रहण का विवरण !
किंतु वह तो चला जाता
व्योम का राही
भले ही दृष्टि के बाहर रहे- उस का विपथ ही बना जाता !

और जाने क्यों, मुझे लगता कि ऐसा ही अकेला नील तारा
तीव्र-गति
जो शून्य मे निस्संग
जिस का पथ विराट-
वह छिपा प्रत्येक उर में
प्रति ह्रदय के कल्मषों के बाद भी है शून्य नीलाकाश !
उसमें भागता है एक तारा
जो कि अपने ही प्रगति पथ का सहारा
जो कि अपना ही स्वयं बन चला चित्र
भीतिहीन विराट-पुत्र !
इसलिए प्रत्येक मनु के पुत्र पर विश्वास करना चाहता हूँ !

*

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