कविता आज और अभी/ लेखनी-नवंबर-दिसंबर 17

गीत अब…

गीत अब पेड़ पर उगेगें
प्रभास से खूब झड़ेगें ।
हवा के झोंके में पलेगें
दोपहरी में थरथरायेगें ।
कवि की गोद में नहीं
सूर्य रोशनी से बड़ेगें ।
चन्द्र की कलाओं में
नये-नये आकार पायेंगे ।
आधी रात गुजर जायेगी
पेड़ चिड़िया सो जायेगी ।
दबी सी आवाज होगी
झोंके आकर बात कहेगें ।
आस और प्रभास पगेगें
गीत अब पेड़ पर उगेगें ।
सुरेंद्र अग्निहोत्री
ए -305, ओ.सी.आर.बिल्डिग, विधान सभा मार्ग, लखनऊ -226001
मो :9415508695

***

 कबूतर

कुछ वर्ष पूर्व
मैंने बेच दिया
अपना पुश्तैनी घर,
जहाँ बचपन में
आंगन वाले नीम से
रोज उतरकर
मेरे हाथों से
दाना चुगता था
वह कबूतर।
 
अभी हाल में
पुराने नौकर ने
मुझे बताया
जब काटा जा रहा था वह पेड़
अपने घोंसले में
बिलख-बिलख कर
दुबक-दुबक कर
बहुत रोया था
वह कबूतर।
 
उसे वहां से
निकालने का
बहुत प्रयास किया गया
अंततः असफल होकर
पेड़ के साथ
उसे भी फाड़ दिया गया ।
 
वह कबूतर था
व्यापारी नहीं,
वरना वह भी
ले लेता कुछ दाम
और…बेच देता
अपना जन्म स्थान ।
 
कर लेता बसेरा
किसी और पेड़ पर,
हमारी तरह
करता गर्व
किसी और देश पर।

पद्मेश गुप्त

*

ऐनक, छड़ी और घड़ी


दे कर
मां की आंखो में
प्रतीक्षा की झपकियां
आया था परदेस मैं
ले कर
पीठ पर पिता की
दुआओं की थपकियां
कुछ ही वर्षो में
हो गया वह सब कुछ हासिल
जो पर्याप्त था
पर्याप्त था
चार पहियों के वाहन के लिए
मार्बल के आंगन के लिए
मैने भेजा मां को
एक नया ऐनक
पिता के लिए छड़ी,
एक नई घड़ी
शायद उसी ऐनक को पहन कर
मां ने लिखा था,
देख सकती हूं मैं
तुम्हारी तस्वीर
बिना इस ऐनक के भी
हमारे यहां
पिता की छड़ी
लकड़ी की नहीं
लड़के की होती है
तुमने भेजी है
एक घड़ी,
बढ़िया
किंतु यहाँ तो
लम्हें -लम्हे आती हैं
प्रतीक्षा की
कितनी ही घड़ियां
इससे पहले कि
रोम-रोम
मेरे हृदय का
बांध पाता
निर्णय की कोई डोर,
करने लगा इशारा मस्तिष्क
मेरे पुत्र के
नन्हें,साफ- सुथरे पैरों की ओर
छोड़ आया हूं
एक नगर से
दूसरे नगर में
अपने सफर में
संघर्ष के जो छाले
वही फिर उगेंगे
इन पैरों पर
मेरे लौटने पर
मैंने रख दिया
किसी कोने में
स्वदेश लौटने का इरादा
मां को दिया हुआ
वह खामोश वायदा
मुझे याद है
एक बार फिर
लिखा था मां ने,
अब तो
कहने लगी है
पड़ोसन भी
अपने बेटे से,
इतने भी ना लाना अंक
परीक्षा में
कि करनी पड़े
मेरी चिता को
तुम्हारी प्रतीक्षा
एक बार फिर
मुड़ कर देखा था मैने
पूरब का गांव
लेकिन
पहने हुए
पश्चिम के जूते
मैं बढ़ने लगा,
चढ़ने लगा
पकड़ कर अगुलियां
नई पीढ़ी की
नई सीढ़ी पर
आज मेरा पुत्र
किसी और देश के
किसी और शहर में
बना रहा है नए रास्ते
अपने पुत्र के लिए।
 और मैं
और मैं देखरहा हूं
सामने खूंटी पर
टंगी हुई एक नई छड़ी,
मेज पर रखी हुई
एक नई घड़ी,
अपनी मां की ऐनक से।
पीढ़ीयां दर पीढ़ीयां,
सीढ़ीया दर सीढ़ीयां,
वही छड़ी
वही घड़ी
वही ऐनक
समय ही नहीं
कुछ और भी है जो देता है
चेहरे को झुर्रियां।
यह छड़ी,
यह घड़ी,
यह ऐनक।

पद्मेश गुप्त

***

एक ज़िन्दगी

और कितने सारे ख्वाब
बस एक रात की सुबह का भी पता नहीं ….
कितनी किताबे पढना है बाकी
कितने सिनेमा देखना है बाकी
कितने जगहों पर जाना है बाकी
हक़ीकत में एक पूरी ज़िन्दगी जीना है बाकी !
एक ज़िन्दगी
और कितने सारे ख्वाब
बस एक रात की सुबह का भी पता नहीं ….

विजय कुमार सप्पति

*

चल वहां चल

चल वहां चल ,
किसी एक लम्हे में वक़्त की उँगली को थाम कर !!!!
जहाँ नीली नदी खामोश बहती हो
जहाँ पर्वत सर झुकाए थमे हुए हो
जहाँ चीड़ के ऊंचे पेड़ चुपचाप खड़े हो
जहाँ शाम धुन्धलाती न हो
जहाँ कुल जहान का मौन हो
जहाँ खुदा मौजूद हो , उसका करम हो
जहाँ बस तू हो
चल वहाँ चल
किसी एक लम्हे में वक़्त की उँगली को थाम कर !!!!
उसी एक लम्हे में मैं तुझसे मोहब्बत कर लूँगा
विजय कुमार सप्पति

*

जीवन

हमें लिखना होंगा जीवन की असफलताओं के बारे में
ताकि फिर उड़ सके हम इतिहास के नभ में
हमें फूंकना होंगा टूटे हुए सपनो में नयी उर्जा
ताकि मृत जीवन की अभिव्यक्ति को दे सके
कुछ और नयी साँसे !

विजय कुमार सप्पति

***

इक माँ का दूजी माँ को पैगाम

आंसुओं में डूबी इक माँ ने,
दूजी माँ के पास ये पैगाम
भेजा है, कि उसने अपने दिल
के टुकड़ों को, माँ की रक्षा
के लिये सरहदों पर भेजा है,
उसकी अपनी जिन्दगी, अब
श्मशान से कम नहीं,
रात-दिन उसे इक अजीब
सा अंदेशा रहता है।

पाला-पोसा, कूट-कूट कर
भरी वीरता उसमें,
मैंने अपने लाल को, मौसी
के घर भेजा है,
रक्षा तेरी वो कर सके,
उसे भरपूर शक्ति देना,
दुश्मनों के छक्के छुड़ा दे,
उसे वो साहस देना।

पर इक गुज़ारिश है मेरी
तुझ से ये धरती माँ,
हो सके तो लाल मेरा
मुझको तू लौटा देना।

शबनम शर्मा

*

पीपल का पेड़

सदियों पुराना, दादाओं का दादा,
गाँव के उस छोर पर खड़ा
पीपल का पेड़,
दिन बीते, माह बीते, बरस बीते,
दशक बीते, सदियाँ बीत गई,
इंसान पुश्त दर पुश्त गया,
पर, एक टाँग पर खड़ा,
देखता रहा बदलते युगों को,
ये पीपल का पेड़।
दुनियाँ क्या से क्या हो गई,
राजाओं के महल ढह गये,
पुरानी संस्कृति विलुप्त हो गई,
नई सभ्यता ने जन्म लिया, पर
सबको ताकता रहा पीपल का पेड़।
सदियों तक पूज्य रहा, सभ्य रहा, बना रहा,
आभूषण ये पीपल का पेड़।
आज यह पूज्य नहीं, सभ्य नहीं,
चुपचाप काटा जाता है इसे
वह भी लोगों की तरह अंधा, बहरा,
गूंगा बन जाता है।
देखता है सिर्फ उसके आँसू
ये गगन, ये हवा और देते हैं
आवाज़, चुप हो जा, समझौता
कर ले। सह लेता है असंख्य वज्र
मूक खड़ा ये पीपल का पेड़।

शबनम शर्मा

***

इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं

देह में फाँस-सा यह समय है
जब अपनी परछाईं भी संदिग्ध है
‘ हमें बचाओ , हम त्रस्त हैं ‘ —
घबराए हुए लोग चिल्ला रहे हैं
किंतु दूसरी ओर केवल एक
रेकॉर्डेड आवाज़ उपलब्ध है —
‘ इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं ‘

न कोई खिड़की , न दरवाज़ा , न रोशनदान है
काल-कोठरी-सा भयावह वर्तमान है
‘ हमें बचाओ , हम त्रस्त हैं ‘ —
डरे हुए लोग छटपटा रहे हैं
किंतु दूसरी ओर केवल एक
रेकॉर्डेड आवाज़ उपलब्ध है —
‘ इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं ‘

बच्चे गा रहे वयस्कों के गीत हैं
इस वनैले-तंत्र में मासूमियत अतीत है
बुद्ध बामियान की हिंसा से व्यथित हैं
राम छद्म-भक्तों से त्रस्त हैं
समकालीन अँधेरे में
प्रार्थनाएँ भी अशक्त हैं …
इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं
सुशांत सुप्रिय

*

कठिन समय में


बिजली के नंगे तार को छूने पर
मुझे झटका लगा
क्योंकि तार में बिजली नहीं थी

मुझे झटका लगा इस बात से भी कि
जब रोना चाहा मैंने तो आ गई हँसी
पर जब हँसना चाहा तो आ गई रुलाई

बम-विस्फोट के मृतकों की सूची में
अपना नाम देखकर फिर से झटका लगा मुझे :
इतनी आसानी से कैसे मर सकता था मैं

इस भीषण दुर्व्यवस्था में
इस नहीं-बराबर जगह में
अभी होने को अभिशप्त था मैं …
जब मदद करना चाहता था दूसरों की
लोग आशंकित होते थे यह जानकर
संदिग्ध निगाहों से देखते थे मेरी मदद को
गोया मैं उनकी मदद नहीं
उनकी हत्या करने जा रहा था

बिना किसी स्वार्थ के मैं किसी की मदद
कैसे और क्यों कर रहा था
यह सवाल उनके लिए मदद से भी बड़ा था

ग़लत जगह पर सही काम करने की ज़िद लिए
मैं किसी प्रहसन में विदूषक-सा खड़ा था

सुशांत सुप्रिय

***

नए देश के नए परिवेश में

दिखते स्वयंभू कई
शिकारी, विदूषक और प्रचारक
जाल पर जाल बिछाए बैठे जो
तमगे और अलंकरण सजाए
विचित्र अनुयाइयों की भीड़
जुटाए।

‘बाटो और राज करो’
मूलमंत्र सीखते देर नहीं लगी इन्हें
अंधे विवेक की अंधी आस्था का
अद्भुत यहाँ भी मेला है
पीछे छूटे रीति रिवाज
रिश्वत और लालच का
वही पुराना एक खेला है
अँधेरों में कैद समाज के
उपेक्षित विद्वान
यहाँ भी और वहाँ भी
और प्रगति की तलाश में
उसी चमक से चकाचौंध
यहाँ भी और वहाँ भी
आज भी जो हार को ही
तो हार पहना आए हैं…
शैल अग्रवाल

*

सैलानी हम

बादलों से सैलानी हम
बेवजह ही भटकते रहे
दिशाओं के भ्रम में
बरसते अनायास तो कभी
चलते ही रहे अथक
निरंतर की यह यात्रा अनंत
आदि ना ही जिसकाअंत।

कांधे थी बस्स…
अहसासों की गठरी
उमंग भरी अदम्य क्षुधा
और अबूझ की
अतृप्त प्यास
कितना अपूर्ण पर
यह पाथेय हमारा
थके बोझिल पैर
ठिठके ही रहे सदा
सपनों के भग्नावशेष में

बिखरे हैं फिर बूंद बूंद
बिना जाने ही
कब कहाँ और कैसे
हुई थी शुरुवात
ठहरेंगे कहाँ जाकर ….

शैल अग्रवाल

*

उड़ते हम आवारा बादलों से

वक्त के लिफाफे में
बन्द यह जिन्दगी
और उड़ते हम
आवारा बादलों से
लेकर देश देश की भाप
और नदी-नदी का पानी
जान ना पाए पर कभी
किस देश किस गली
किस घर या किस बगिया पर
बेबस ही एकदिन बरस जाना है

पूछा है रोज ही अब तो
अंतस के उस अँधियारे ने .
कैसा था वह देश
जिसे तुम यूं छोड़ आए
क्या कमी थी उस अपनेपन में
वापिस न जो तुम्हें खींच पाई
बूँद बूँद तैरी हैं फिर आँखों में
चमक उठी फिर वही
बिजली एक पुरानी है
बांध सकता था जो नदियों को

मोड़ सका क्यों न उनका ही रुख
कैसी है यह मरुधर सी जिन्दगी
प्यासी ही जो हमें भटकाती
प्यार तो नम एक लचीली धार
शिलाएँ ना जिसके आगे टिक पार्इं
प्यार तो नम एक लचीली धार
शिलाओं को कैसे भिगो पाती !

शैल अग्रवाल

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