एक पाती-शैल अग्रवाल

‘प्रवास से’- यह आलेख नहीं, एक अंतरंग पाती है…चन्द शब्द चित्रों के सहारे प्रवास की भटकन और तलाश ही नहीं वस्तुस्थिति के यथार्थ को भी आपके साथ बांटने की कोशिश की है…

ब्रिटेन एक बड़ा भौगोलिक क्षेत्र नहीं है परन्तु इसकी विभिन्न काउन्टियों ( प्रदेश) के रहन-सहन और भूरे व काले रंग के प्रवासियों के प्रति रवैये में बहुत फर्क है। कुछ ऐसी काउन्टी हैं जहां अपने लोगों का जमावड़ा है। यह वह क्षेत्र हैं जहां मिल और फैक्टरी की बहुतायत है और उनमें काम करते पचास और साठ के शतक में आए अपने लोगों की भी, जबकि दक्षिण की संपन्न और प्राथमिक व पूर्ण रूप से श्वेत काउन्टीज में अपने लोग इतने नहीं हैं।

40-42 साल पहले जब ब्रिटेन में आई थी तबके और आजके ब्रिटेन में बहुत फ़रक पाती हूँ। शायद कुछ किशोर और प्रौढ़ नजरिये का फर्क हो और कुछ वक्त की बदलती जरूरतों का। मुड़कर देखती हूँ तो यादों में बीती घटनाओं की एक श्रृंखला कड़ी-कड़ी जुड़ती चली जाती है और प्रवासी जीवन की महत्वाकांक्षा और संघर्षो का एक चित्र सा खींच देती है। जड़ों को रोपना, खुद को स्थापित कर पाना , फलने-फूलने लायक बना पाना प्रवास की पहली जरूरत रही है। एक बार जब बुनियादी जरूरतें जुट जाएं ,तब शुरु होती है अस्मिता और संस्कारों को बचाने की लड़ाई या स्व की तलाश और सुरक्षा का सफर। और शायद यही वजह है कि प्रवासी कितना भी स्थापित और सफल हो चुका हो एक अज्ञात असुरक्षा का भय और अपनों से दूरी का दर्द हमेशा ही उसे सालता रहता है। धरती के हर टुकड़े में वह अपना पीछे छूटा घर और उसकी महक को ही ढूँढता हुआ भटकता है, उसे ही फिरसे रचाने-बसाने की कोशिश में लगा रहता है। कम से कम पहली और कुछ हद तक दूसरी पीढ़ी के साथ तो ऐसा अवश्य ही होता है।

नित नए खुलते भारतीय रेस्तोरैन्त और मंदिर,मस्जिद और गुरुद्वारों की बढ़ती खेप इस बात की साक्षी है कि न सिर्फ हमने अपितु ब्रिटेन ने भी हमें और हमारे रहन सहन के तौर-तरीकों को बाहें फैलाकर आत्मसात कर लिया है और अब हवा में उड़ती ‘करी’ की महक उन्हें परेशान नहीं करती, अपितु भूख जगाती है। बांटना चाहूंगी एक कुछ वर्ष पूर्व की एक घटना, जिससे भारतीय और उनके खाने की लोकप्रियता का आपको भलीभांति अनुमान लग जाए-

सपना (बेटी) तब एक जूनियर डॉक्टर थी और उसके विभाग में रूस से एक डेलिगेशन आ रहा था। बॉस ने सपना से कहा-‘ कल दुपहर के 15-20 लोगों के खाने का इन्तजाम किसी अच्छे और सुरुचिपूर्ण रेस्तोरैन्त में कर लो।’ सपना ने पूछा -‘ क्या किसी अच्छे कन्ट्री साइड पब में? नहीं,नहीं। इन्डियन में।’ वे तुरंत ही बोले।

‘पर मैंने सोचा कि आप उन्हें टिपिकल ब्रिटिश खाना खिलाना पसंद करोगे?’, सपना ने पुनः पूछा।

‘ क्या इंडियन खाना भी अब ब्रिटिश खाना नहीं।’

उन्होंने तुरंत ही जबाव देकर सपना को निरुत्तर कर दिया था।

पहले जिस खाने को अरुचिकर स्लौपी और निम्नवर्गीय समझा जाता था। आज वह अपने स्वाद और गुणों के कारण यहां के उच्च वर्ग के भोजन कक्ष की भी साप्ताहिक शोभा बन चुका है । भारतीयों ने न सिर्फ अपने घर बना लिए हैं यहां, अपितु अपने प्यार और सद्भाव से अपने रंग में रंग भी लिया है विदेशियों को। आज स्थानीय लड़के भी भारतीय लड़कियों से शादी करना चाहते हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि ये घर और परिवार बनाने वाली लड़कियां हैं। इनके साथ शादी होने पर शादी टूटने की संभावनाएं कम हो जाती हैं। दाम्पत्य जीवन में प्यार और परवाह अधिक मिलती है और बच्चों की देख-रेख भी बेहतर होती है।

बेहतरी के मौके की तलाश में भटकना , एक जगह से उठकर दूसरी जगह जा बसना मानव के स्वभाव में ही नहीं , जीन्स में है। उसका विस्तृत अतीत वर्तमान और भविष्य है। इस नजरिए से देखा जाए तो मानव ही नहीं पशु, पक्षी , जीव-जन्तु, हम सब प्रवासी हैं। हाँ,आज की तरह पहले पूरा विश्व न तो इतनी सहजता से पहुंच में ही था और ना ही सबके लिए इतने मौके और नौकरियां ही थीं। आज स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है।संचार और व्यापार की सुविधाओं के साथ अब नए-नए मौके हैं और देश विदेश घर आंगन बन चुके हैं। इसके साथ-साथ अब प्रवासी शब्द की परिभाषा भी बदलती जा रही हैं। भटकता, दुख सहता नए धरती आसमां तलाशता एकाकी नहीं वह अब, अपितु पल पल दुनिया के हर कोने से, प्रियजनों के साथ जुड़ा रहता है।. चाहे तो मिनट-मिनट की घर परिवार और प्रियजनों की खबर रख सकता है। आज सारी सुख सुविधाओं में पले अमीरों के बच्चे भी मात्र इसलिए खुशी-खुशी विदेश जा रहे हैं, क्योंकि दृष्टिकोण व्यापक हो जाएगा या फिर मात्र इसलिए भी कि विदेश से एक छोटी मोटी उपाधि ले लेने से शादी अच्छी हो जाएगी। पहले की बात आज नहीं जब नौकरी की तलाश में गांवं से शहर जा बसना ही प्रवास कहलाता था और गांव से शहर नौकरी के लिए आए ये युवक दूरदराज के अपने गांव और घरों में विदेशिया कहलाते थे जिनकी पत्नी और प्रियतमाएं उनकी याद में बिरहा और बिदेसिया गाया करती थीं।

विश्व में या बृहद् रूप से देखा जाए तो आज भी प्रवासी शब्द प्रायः उनके लिए प्रयुक्त होता है जो या तो स्वेच्छा से एक बेहतर जिन्दगी की तलाश में जन्मस्थान और तबके को छोड़कर कहीं और जा बसते हैं या फिर ऐसा करने पर मजबूर हो जाते हैं क्योंकि उनका घर युद्ध की चपेट में आ चुका है या किसी अन्य राजनैतिक व सामाजिक आग में झुलस रहा है और वहां रहने व ठहरने में उन्हें जान-माल का खतरा है। जैसा कि 1947 के विभाजित भारत में हुआ था या हाल ही में 1980 में अफगानिस्तान में हुआ। या हाल ही में सीरिया में हुआ। आज घर से बाहर निकले, अकूत विदेशी मुद्रा कमाते एन.आऱ. ई ,नौन रिक्वार्यड इन्डियन्स नहीं, नोटेबली रेस्पेक्टेड इन्डियन्स हैं। भारत इनकी तरफ गर्व से देखता है और मातृभूमि की प्रगति में महत्वपूर्ण आर्थिक और तकनीकी योगदान दे रहे हैं ये।

नए के रोमांच और सारी सुख-सुविधाओं के रहते भी नई जगह में सामंजस्य और तालमेल की आरंभिक परेशानियों से तो हर प्रवासी को गुजरना ही पड़ता है, चाहे वह कितना ही संपन्न हो या विपन्न। साहित्य और साहित्यकार भी अपवाद नहीं। अधिक संवेदनशील होने के कारण उसकी कृतियों में यह सामंजस्य की कठिनाई और बेचैनी, सफलता और असफलता और अधिक तीव्रता से मुखरित होती है और निजाद पाने के लिए , सुख के स्रोत ढूंढता वह अपने मूल की तरफ मुड़-मुड़कर बारबार देखता भी है। परन्तु सिर्फ इन्ही बातों की वजह से उसके साहित्य को निष्कृष्ट या दोयम दर्जे का कहना नाइंसाफी है। पढ़ने और समझने की जरूरत है। हर जगह और हर चीज अच्छी और बुरी होती है और हो सकती है। साहित्य भी। इसमें भौगोलिक सीमाओं का नहीं, व्यक्ति विशेष का फर्क है। हाल ही में यहां के एक सम्मानित बुजुर्ग साहित्यकार के मुंह से सुना कि भारत में अफवाहें हैं कि प्रवासी साहित्यकार दूसरों से रचनाएँ लिखवाकर और पैसे दे-देकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में खुदको छपवा रहे हैं। खबर गलत हो या सही, सुनकर दुख हुआ। यदि वाकई में ऐसा है तो उँगली दोनों ही तरफ तो उठ रही है और दोनों की ही भृष्ट मानसिकता को दर्शाती है, जो छपवा रहे हैं उनकी भी और जो छाप रहे हैं उनकी भी।

दूध का दूध और पानी का पानी होना कभी बुरी बात नहीं। ना ही इससे आक्रान्त होने की ही जरूरत है। समाज में दोनों की ही उपयोगिताएं हैं, दूध की भी और पानी की भी। हां पानी अगर दूध बनना चाहे या दूध पानी की जिम्मेदारी ले ले तो स्वाद तो दूर, पौष्टिकता और प्यास बुझाना दोनों ही संभव नहीं- दूध और पानी दोनों ही अपना-अपना गुण और धर्म खो बैठेंगे।

धीर-गम्भीर नीर-क्षीर विवेकी होते हैं , अफवाहों पर आंख बन्द करके भरोसा करना उनके स्वभाव में नहीं। ऐसी अफवाहों से साहित्य-सेवियों को विचलित होने की जरूरत नहीं।…विशेषतः उन बातों पर ‘जो सुना है ‘ से शुरु होती हैं। यदि प्रमाण और सच का साहस है और इरादे नेक हैं , तो बात खुलकर और स्पष्ट शब्दों में ही की जानी चाहिए और मिथ्या का उन्मूलन कभी भी बुरी बात नहीं।

प्रमाणिकता की धरती पर खड़े होकर ही सूर्य की स्वर्णिम आभा को सोखा जा सकता है। हर नए दिन की नई रौशनी नए संदेश के साथ खुद हमारा अपना भी अक्स लिए होती है। हम ही हैं जो उसके गन्तव्य की सार्थकता के उत्स के साक्षी हैं और इसके उत्सवकारी भी। वरना हजारों सूरज पलपल अंधेरों में उगते और डूबते रहते हैं। जीवन में ही नहीं, आसपास पर्यावरण हर चीज में कम योगदान नहीं मानव का, सुधार और बिगाड़ दोनों ही सकता हैं यह। सृष्टि के सौंदर्य और ऐश्वर्य की प्रगति की कहानी मानव की ही कहानी है-नागार्जुन के शब्दों में कहूँ तो,

“नये गगन में
नया सूरज जो चमक रहा है
ये विशाल भूखंड
आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें”

कितना भी बहला-फुसला लें खुद को , एक बात तो तय है कि वजह चाहे जो भी हो… छोड़कर आए हों या फिर हमसे छूट गया हो, बांधकर लाए गए हों या खुद आए हों, सच्चाई यह है कि आज हम देश से दूर हैं। शकल सूरत आदतें और मन कुछ भी कहें भारतीय नहीं, भारतवंशी हैं। प्रवासी है। फिर यह प्रवासी दिवस और हिन्दी दिवस कैसे मनाना चाहिए हमें… अपनी सफलता पर खुश होकर या फिर बिछुड़े को याद करके य़ा फिर कुछ ऐसे संकल्प लेकर कि यह कड़ी और मजबूत हो, एक दूसरे से जुड़े रहें, काम आ सकें, दूरी का अहसास कम हो! जरूरी हो जाता है जड़ें मजबूत करने के लिए , आपस में और आने वाली पीढ़ियों में तालमेल व तारतम्य बनाए रखने के लिए भाषा और संस्कृति को बचाए रखना, आपस में मिलते-जुलते रहना। इस दृष्टि से देखें तो प्रवास तो शब्द में ही बिछुड़ने और दूरी का दर्द है, नए से जुड़ने के सामंजस्य और संघर्ष का अहसास है। हर देश, हर जाति में एक कष्टमय इतिहास और संदर्भ रहा है प्रवास और प्रवासियों का, फिर भी प्रवास होता रहा है, जरूरतों के लिए, संरक्षण के लिए बेहतरी के लिए। मनुष्यों में ही नहीं, पशुपक्षियोंतक में परिस्थितियों से उत्पन्न समझौते व सामंजस्य ही इस संरक्षण प्रक्रिया की पहली शर्त रही है। इस अकेलेपन को दूर करना , प्रवास में भी जड़ों से जुड़े रहना, एक प्रवासी के जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है आज भी।

माना विछोह और भटकन कम नहीं दुखती यादों से मन को भर आने के लिए..पर यही तो एक खास वजह है इस प्रवासी दिवस के उत्सव की भी और यह वजह कम नहीं एक प्रवासी मन को नेह और गौरव से भर जाने के लिए। अपने देश ने याद किया है हमें । भूला नहीं है हमें। उसके काम आ सकते हैं हम। जुड़े रहने की मांग की है। पर जननी और जन्मभूमि से कैसी जुड़े रहने की मांग… यह लगाव तो गर्भनाल कटने के बाद भी, मरने तक बना रहता है। नतमस्तक हूँ ईश्वर के आगे कि वह इस भरोसे और अपेक्षा के लायक बनाए रखे। दोनों संस्कृतियों में जो नवनीत सा उन्नत है, यदि चखने का मौका दिया है तो पचाने की भी सामर्थ दे। कुछ ऐसा कर पाएँ हम कि दूसरों को ही नहीं, खुद हमें भी अपने मानव होने पर गर्व हो। आज जब भौतिक और मानसिक सीमाएं मिटती जा रही हैं , वाकई में वसुधैव कुटुम्बकम का जमाना है तो किसी भी रूप में मानवता के काम आ सकें, थोडा सा भी वक्त और सेवाएं दे सके… यह भी एक बड़ी और संतोषजनक उपलब्धि होगी।

भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने जहाँ विदेशों की तरफ सकारात्मक और सहयोग भरा हाथ बढ़ाया है वहीं उनके भारत आने और भारत से जुड़ने के आवाहन ने भारतवंशियों को भी भारत के प्रति एक सकारात्मक उर्जा से भर दिया है। और यह न सिर्फ प्रवासियों के लिए अपितु भारत के लिए भी शुभ संकेत हैं।

नौ जनवरी 1915 में साउथ अफ्रीका से लौटे बापू का अनुसरण करने की हममें क्षमता और दृढ़ता हो या न हो परन्तु उन संकल्पों को दोहराते हुए जड़ों से जुड़े रहने के एक ईमानदार प्रयास का .जजबा और हौसला है, जुड़ने की चाह है, यह भी कम संतोष की बात नहीं … वैसे भी आज समय की मांग बदल चुकी हैं। जरूरतें भी। वक्त के पुल के नीचे से एक पूरी सदी गुजर चुकी है। जमाना आज अनुसरण का नहीं अन्वेषण का है। बागडोर हिम्मत के साथ हाथ में लेने का है। समय की मांग को पहचानना और अपनाना है हमें। बहुत कुछ सीख और सिखा सकते हैं हम एक दूसरे को और वह भी झूठ के सिंहासन पर बैठकर नहीं, यथार्थ की कड़ी धूप में सबके सामने जैसा है वैसा ही रखकर।
समय और नदी दोनों की ही फिदरत है कि पीछे छूटे किनारों तक नहीं लौटतीं। दोनों ही गतिमान हैं और परिवर्तन शील भी । धार माना वही है कललकल बहती, कल आज और कल के किनारों के बीच निरंतर चलती परन्तु पीछे नहीं, सिर्फ आगे ही जाती है यह।…जो छूटा सो छूटा। बस यादों में ही साथ वरना अतीत की गर्त में डूब गया। जीवन भी तो कुछ ऐसा ही है। और यहीं शुरु होती है क्या बचाएँ और किसे भूल जाएँ, की जद्दो-जहद। भाषा को बचाना पहली शर्त है क्योंकि यह संस्कृति और धरोहर ही नहीं, अपने पन की भी संवाहिका है। और अतीत का वह पन्ना…वह इतिहास; किसने धोखा दिया, किसने राज किया, किसने जुल्म सहे…सब भूलने में ही भलाई है देश की भी और हमारी भी। नया नारा आज ‘भारत छोड़ो’ का नहीं,’ भारत जोड़ो’ का है। भारत आओ अन्वेषी की तरह, निवेषक की तरह, सलाहकार की तरह, मित्र की तरह, पर्यटक की तरह, भारत वंशी की तरह। और हमें जाना भी चाहिए, जो अपनी सेवाएं और समय दे सकते हैं, योग्यता और क्षमता अनुसार देनी चाहिएँ। इतना तो कर्ज बनता ही है हम पर पूर्वजों का, मातृभूमि का।…

अंत में विदेशों में बढ़ रही अपनी अगली और दूसरी पीढ़ी को समर्पित एक इच्छा, एक आवाहन…एक मनोहारी सपना…भारत और ब्रिटेन दोनों ही देशों से एक वादा … एक समर्पित और साझे प्रयास की प्रार्थना… क्योंकि कल जब हम नहीं होंगे, यह कड़ी इन्हें ही मजबूत रखनी है, जोड़े रखनी है…संभवतः इसी अटूट निष्ठा, सच्चाई और समर्पण के साथ…खुद को और अपनी जड़ों को जानो और पहचानो…कम-से-कम प्रयास तो करो। भाषा और संस्कारों के इस पुल को, इस अपनेपन को टूटने मत दो। जड़ों से कटकर कोई वृक्ष पल्लवित नहीं होता, फलफूल नहीं सकता ।

शैल अग्रवाल

आणविक संकेतः shailagrawal@hotmail.com

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