उपन्यास अंशः मिट्टीः वेलकम होम-शैल अग्रवाल / लेखनी-नवंबर-दिसंबर 17

दूधिया चांदनी में पन्ने-सा जगमगाता तरतीब से कटा हरा लॉन और बीचोबीच में असंख्य फूलों से लदा-फंदा चेरीब्लौजम का खूबसूरत पेड़…खुशियाँ फूलों लदी, उन टहनियों–सी ही बाहें फैलाए खड़ी थीं स्वागत में। थके शरीर और बल्लियों उछलते मन से थके-उनींदे बच्चों की उंगली पकड़े दिशा ज्यों ही कार से उतरी, संतोष की एक लहर अंदर तक स्फूर्त कर गई उसे।

बड़े तीन ट्रक भर सामान को मात्र तीन अटैचियों में कैसे सहेजा था भारत छोड़ते वक्त, दिशा का दुखता मन ही जानता था। अपनों के अलावा बहुत कुछ और भी था जो वह पीछे छोड़ आई थी, फिर भी खुश थी आधी-अधूरी दिशा। गौरव की आंखें भी एक अकथ संतोष से दीप्त थीं। कार से उतरते ही दोनों के मन में उमड़ता स्नेह और उत्साह का आवेग एक साथ ही शब्दों में बह आया – ‘वेलकम होम ‘!

दिशा ने भरपूर महसूस किया उन शब्दों के सुख और संतोष को। गौरव के चेहरे पर फैली हर्षोल्लसित चांदनी में सब कुछ और अधिक निखर और संवर चुका था। हाथों का हलका कोमल स्पर्श मानो सांत्वना दे रहा था,
‘ अब और नहीं भटकाउँगा मैं तुम्हें दिशा ! ‘

ट्रेनिंग के नाम पर करीब-करीब हर साल बदलती नौकरी के साथ-साथ कई शहर और घर बदले थे उसने और हर घर को उतने ही जोश और उत्साह से अपना बनाती थी दिशा। पर जबतक सजाती-संवारती और रहने लायक बनाती, घर बदलने का वक्त आ जाता और फिर शुरु हो जाती वही पुरानी, नई जगह, नए शहर, नए अस्पताल के डाक्टरों के फ्लैट में से एक फ्लैट को अपना बनाने की जी तोड़ मेहनत। नए शहर में नया स्कूल और अपने व बच्चों के लिए नए परिचय व मित्र ढूँढने और बनाने की…खुद को व्यवस्थित करने की एक अंतहीन प्रक्रिया। एक सिलसिला…जिसमें स्वाति की बूंदों सी लम्बी प्रतीक्षा और भटकन के बाद ही चन्द सुख के पल मोती-से रच-बस पाते। एक अंतहीन भागदौड़, बेहद व्यवस्थित पर मशीनी जिन्दगी।…सारी सुख-सुविधा के बावजूद मन और आत्मा से जुड़ नहीं पा रही थी वह इस माटी से। चाहत भी तो वक्त मांगती हैं। वक्त जो यादें देता है..सुख-दुख बांटता है, पर अक्सर ही पानी-सा तरल और सहज नहीं । फिर, यहाँ पश्चिम में किसी के पास वक्त ही तो नहीं। पल भर में ही माटी हवा पानी परिवेश सबको आत्मसात कर लेने वाली दिशा के लिए पलपल घर बदलना सुखद नहीं था। मन में एक कसक रह जाती । अपने देश , अपने घर , अपनों के बीच रहने की बेचैनी अक्सर ही परेशान करती उसे।

जाकर भी तो लौट ही आई थी वह ! ….क्या मिला आखिर और क्या दे पाई वह किसी को ! जरूरतें कम कीं तो अपेक्षाएं बढ़ गईं और अपेक्षाओं की तरफ मुंह किया तो मन तक कसैला हो गया। कम-से-कम अपनों की व्यवहारिक और सुविधाजनक उपेक्षा, मान-अपमान के दंश और उलाहनों के अवांछित हस्तक्षेप और अंकुश तो नहीं ही हैं यहाँ पर। और-और की अंधी दौड़ में पीछे रह जाने का अहसास…अपनों के ही बीच द्वेष और प्रतिस्पर्धा तो नहीं है यहाँ पर ! वह तो बर्दाश्त भी कर जाती पर गौरव का अपमान न सहा गया, वह भी अपनों द्वारा। अब तो यही घर है उसका और यही देश, उनका अपना देश … पक्का मन बनाकर ही लौटे हैं दोनों।

भविष्य के लिए बहुत सी योजनाएँ हैं- ऐसे ही तो नहीं बसते घर …खून..पसीना पूरी जिन्दगी, सब मांग लेते हैं। वो भयानक सपना अब भी हर रात ही उसका पीछा करता है जिसमें तीनों बच्चों के साथ उन दोनों की गले से कटी पांच लाशें बिस्तर पर पड़ी साफ दिखाई दी थीं उसे। याद करते ही आज भी पसीने में डूबी हांफती-सी उठ बैठती है वह। पूछने पर भी कुछ नहीं बता पाती। हर बात तो नहीं बांटी जा सकती, गौरव से भी नहीं !

‘कोरी भावुकता में बच्चों का भविष्य नहीं बिगाड़ा जा सकता ! इस परिस्थिति से उबरना ही होगा उसे।‘

रात के दो बज चुके थे। सिर में उठती आवाजों को चुपचाप दबाकर आखिर में सो ही गई दिशा।

बच्चे ही सबसे बड़ी जिम्मेदारी और कर्तव्य थे अब उसके और जीवन की दिशा भी। मात्र चार दीवारें ही नहीं, कभी-कभी तो प्यार, संस्कार, समझ और लगन के साथ मेहनत व धैर्य की नींव पर भी नहीं टिक पाते ये घर-परिवार ! दिशा अब और भटकन नहीं चाहती थी। सुदृढ़ संस्कारों पर ही खड़ा करना था उसे अपना घर, ऐसा घर जिसकी दीवारें कोई हिला न सके, न वक्त की आंधी और ना ही आपस का वैमनस्य या स्पर्धा।

सुबह उठते ही, आवश्यक और अनावश्यक कार्यों की एक लम्बी फहरिश्त थी आँखों के आगे और मन की पुलक आकाश छू रही थी। पति काम पर थे और खुद वह बच्चों को स्कूल पहुंचाकर लौटी ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई। कौन होगा सुबह-सुबह…सोच तक पाए कि सामने फूलों का गुच्छा और स्वागत का केक लिए, पड़ोसन मुस्कुरा रही थी ।

‘हलो, मेरा नाम बैटी है…बैटी बेट्स और मैं सामने चार नंबर के मकान में रहती हूँ। ज्यादा वक्त नहीं बर्वाद करूंगी तुम्हारा। तुम हमारे मोहल्ले में नई आई हो, तो सोचा खुद जाकर स्वागत कर लूँ। हिलमिल लूँ तुमसे। यह केक मैंने खुद, आज सुबह ही बनाया है तुम्हारे लिए। ‘

‘ ओह..अच्छा, आभार ! आओ अन्दर आओ।…मैं दिशा…दिशा राजन।

फूलों का गुच्छा और केक मेज पर रखते हुए दिशा ने भी आगन्तुक मेहमान का पुरजोर स्वागत किया। पूरी तरह से अभिभूत थी दिशा इस आकस्मिक स्वागत और नेह-अभिवादन से।

‘ कौफी और टी…? ‘

‘ कौफी प्लीज।‘

बैटी ने भी अबतक खिड़की के पास रखी आरामकुर्सी पर खुदको पूर्णतः व्यवस्थित कर लिया था।

कौफी, बिस्कुट और ड्राई फ्रूट्स लेकर लौटी तो देखा मेहमान चित्रो को बड़े ध्यान से देख रही थी।

‘ तो तुम एक चित्रकार हो डिशा !’

‘…इन अंग्रेजों की भी एक खासियत है ‘देन और देयर ‘ में तो ‘द‘ कह लेंगे पर अगर हिन्दुस्तानी नाम में ‘द‘ आता है तो ‘ड‘ ही बुलाएंगे।‘ अपने लिए ‘डिशा ‘ नाम एक अंग्रेज के मुंह से ‘ डिश‘ की तरह ही इस्तेमाल किया हुआ और झूठन भरा लगा उसे।

‘ डिशा नहीं, दिशा है मेरा नाम … इट मीन्स डायरेक्शन- राइट डायरेक्शन, इन कौन्टैक्स औफ ए नेम। ‘

तुरंत ही मुस्कुराकर उसे सुधारा था दिशा ने तब।

‘ ओह तो तुम भाषा और शब्दों में भी रुचि रखती हो । वेरी प्रिम एंड प्रौपर टाइप।‘

बैटी जी खोलकर हंस रही थी अब…एक सहज और उन्मुक्त हंसी।

‘मैं एक बूचर की बीबी, फार्मर की बेटी … हममें यह नफासत और नजाकत नहीं। ना ही हमारे यहाँ नामों को रखते वक्त अर्थों को इतना महत्व दिया जाता है। मेरी बातों, तौर-तरीकों का बुरा मत मानना। वैसे, मन से बुरे नहीं होते हम मिट्टी से जुड़े व्यवहारिक लोग।‘

मन से सौंदर्य और कला की पुजारी दिशा को वह बेडौल और गुलाबी गालों वाली अपनी पड़ोसन जाने क्यों भाषण देती भी अच्छी और आत्मीय लग रही थी।

‘ हाँ-हाँ क्यों नहीं। यह मिट्टी ही तो है जो हमें जनमती और समेटती है फिर बुरे कैसे हो सकते हैं मिट्टी से जुड़े लोग। ‘-दिशा आदतन एक दार्शनिक-सा ही जबाव दे पाई थी उसे, बिना जाने या समझे कि बात की गहराई तक पहुँची भी है या नहीं उसकी पड़ोसन, पर शाम की दावत का निमंत्रण जाते-जाते अवश्य ही दे गई थी वह उसे।

‘आज हेलोइन नाइट है। कुछ दोस्तों को बुलाया है । तुम भी गौरव के साथ आने की कोशिश करना। अच्छा लगेगा तुम्हें और इसी बहाने कुछ नए स्थानीय लोगों से भी मिल सकोगी। अब मैं ज्यादा नहीं रुकूंगी। कोई जरूरत हो तो बेझिझक आवाज देना सामने ही रहती हूँ। आदमी ही आदमी के काम आता है। ‘

अपना कार्ड पकड़ा दिया था जाते-जाते बैटी ने, जिसपर उसका नाम, पता, टेलिफोन नं. सबकुछ लिखा हुआ था। इतनी आदमियत है इस देश में अभी, दिशा के लिए यह एक सुखद आश्चर्य था।

‘हाँ हाँ क्यों नहीं। आभार, बैटी। याद रखूंगी मैं तुम्हारे शाम के इस आमंत्रण को और यदि सब ठीक रहा तो आऊँगी भी अवश्य।‘ कार्ड को संभाल कर रखते हुए दिशा ने भी खुशी-खुशी जबाव दिया।

माना, गंभीर और अपने में रहने वाली थी दिशा, परन्तु पड़ोसिन की निश्चल और कृतज्ञ आंखों का संदेश उस तक पहुंच चुका था। दिशा ने देखा फूलों के साथ एक खूबसूरत-सा कार्ड भी था जिसपर सुनहरे शब्दों में ‘वेलकम होम‘ लिखा हुआ था। शब्दों के अर्थ अब बड़े ही उत्साह के साथ स्वागत कर रहे थे उसका। अब वह मुहल्ला थोड़ा-थोड़ा अपना-सा भी लग रहा था उसे। ललक भरी आँखों ने मोहल्ले से परिचित होना शुरु कर दिया। हर घर एक-सा था और हर घर से ही सम्पन्नता का आभास मिल रहा था। दो-दो कारें और आगे पीछे बगीचे, उच्च मध्यवर्गीय परिवारों का मोहल्ला था वह। पर इंगलैंड में जैसे घरों में उनके मित्र रहते थे , वैसा मोहल्ला नहीं था वह। भारत लौटने की रट में उन सबसे थोड़ा पीछे छूट गई थी दिशा।
धीरे-धीरे रे मना…कार में सुने कबीर एकबार फिर अब उसके होठों पर थे।

***

शाम को जब बच्चों से निपटकर, सुरक्षा की सारी हिदायतें और नैनी को घर व बच्चे सौंपकर सामने वाली बैटी के घर पहुंची तो पाया कि घर मेहमानों से भरा हुआ था। बैटी ने देखते ही न सिर्फ बांहें फैलाकर स्वागत किया बल्कि उसी गर्म जोशी से एक-एक मेहमान से मिलवाया भी – ‘ मीट माई फ्रैंड दिशा एंड गौरव , दे हैव जस्ट मूव्ड इन द नेबरहुड इन नंबर सेवन।‘

हंसी-कहकहों के बीच दिशा ने भी अपने लायक जगह ढूँढ ही ली और व्यवस्थित कर लिया खुद को भी उसी शोर-शराबे के बीच। शराब और दावतों का दौर एकबार फिरसे शुरु हो चुका था उसके जीवन में। पर इसबार भागेगी नहीं वह इस सभ्यता से। टिकेगी, तैरकर किनारे पर पहुँचना सीखेगी, जैसे कि तूफानों में टिका जाता है। फिर तो पल भर में ही सब पहचाने-से थे। उन्ही की तरह युवा, उत्साही और महत्वाकांक्षी। बीयर और सिगरेट के उड़ते धुंए के बीच उसने देखा कि कुछ ऐसे भी थे जो शराब या सिगरेट नहीं पी रहे थे। उनके हाथों में औरेंज जूस या फिर किसी अन्य सौफ्ट ड्रिंक के ही ग्लास थे।

ऐसा ही एक जोड़ा था पौलीना और एलेन का। शहदी रंग के सुनहरे बाल और हरी महकती आंखें… कुछ ऐसा था दंपति में कि दिशा वहीं बगल में खिंची-सी जाकर बैठ गई। उन्होंने भी थोड़ा खिसककर जगह बना दी उन दोनों के लिए और हाथ मिलाकर अपना परिचय दिया। वेल्स से थे वे। बातों-बातों में पता चला कि पिछले दस साल से वे भी उसी मोहल्ले में अगली सड़क पर ही रहते थे और पति-पत्नी दोनों ही स्थानीय स्कूल में पढ़ाते थे- एलेन गणित और पौलीना इंगलिश। क्वेकर धर्म को मानते थे वे पर हिन्दू धर्म और हिन्दुस्तान के बारे में भी बहुत कुछ पता था उन्हें , कई बार भारत घूम आए थे। ताजमहल , कुतुबमीनार से लेकर बनारस के घाट तक, सभी घूमे हुए थे उनके।

फिर तो बातों का जो सिलसिला चला तो वक्त का पता ही नहीं चल पाया उसे।

टौम जोन्स अपनी रौकिंग आवाज में फुल वौल्यूम पर गा रहा था और थिरकते, कहकहे लगाते युगलों के खाली गिलास तुरंत ही फिर भर भी दिए जाते थे। कुछ तो लगता था आपा भी भूल चुके थे । पैरों के साथ-साथ हाथों और निगाहों ने भी बहकना शुरु कर दिया था। अचानक वह अपरिचित आया और हाथ मिलाने के लिए बढ़े हाथ को बेहद गर्मजोशी से होठों तक ले जाते हुए बोला, ‘ मे आई जौइन यू?’

‘ यस, यस। व्हाइ नोट ! ‘ जवाब देती, सकुचाती दिशा इसके पहले कि दुहरे इरादों को समझे, संभले, खींचकर अपनी गोदी में बिठा लिया था उसने सिकुड़ी-सिमटी दिशा को । अब वह हंस रहा था। ‘ कम औन डार्लिंग, नो नीड टु मेक ए स्पेश फौर मी। यू कैन सिट इन माइ लैप।‘

बेहूदगी असह्य थी। दिशा एक झटके में उठ खड़ी हुई। एलेन ने परे धकेला उसे।
‘लीव हर अलोन।‘

अब वह दिशा को तसल्ली दे रहा था- ‘ ही इज टोटली ड्रंक, इग्नोर हिम।‘

‘ नो आइ एम नौट।‘ जाते-जाते फिर भी दिशा की तरफ आँख मारी उसने। अभी भी शैतान उसके सिर पर सवार था।

‘आइ औलवेज वान्टेड ए डौक्स वाइफ टु सिट इन माइ लैप। देन शी इज सच ए प्रिटी एक्जौटिक यंग बर्ड।‘

दिशा के कान तक लाल हो उठे थे अपमान से। वहाँ रुक पाना अब संभव नहीं था। इतने में गौरव भी वापस आ पहुंचे।

‘ क्या हुआ दिशा, विचलित क्यों हो ?’

‘ कुछ नहीं।‘ इतना ही कह पाई थी दिशा- ‘ अब हमें चलना चाहिए।‘

खींचती-सी दिशा बाहर आई तो एलेन और पौलीना भी साथ थे।

‘ बुरा मत मानना। यह सब नौर्मल है यहाँ पार्टियों में। बस भूल गया था वह कि तुम भारतीय हो और पाश्चात्य तौर-तरीकों से परिचित नहीं हो, या पसंद नहीं करती इन्हें। ’

..दिशा की समझ में नहीं आया कि क्या जबाव दे, झुकी नजरों से कहा, ‘ समझ रही हूँ मैं। आदत डालने की कोशिश करूंगी, इन बेहूदगियों को सहने की भी और इनसे निपटने की भी। सी यू अगेन सम टाइम ‘ कहते हुए एक गुमसुम-सी विदा ली उसने कार में बैठे ऐलेन और पौलीना से और बिजली की तेजी से अपने घर की ओर मुड़ गई। ..

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