माह के कविः सुबोध श्रीवास्तव /लेखनी-नवंबर-दिसंबर 16

सरहदें
kitab 1 [161743]

हमेशा
कायम नहीं रहतीं
सरहदें..!
याद है मुझे
उस रोज/जब
अतीत की कड़वाहट
भूलकर/उसने
भूले-बिसरे
सपनों को फिर संजोया,
यादों के घरौंदे में रखी
प्यार की चादर ओढ़ी
और/उम्मीद की उंगली थामकर
चल पड़ा/’उसे’ मनाने
तेज़ आवाज़ के साथ टूटीं
सरहदें/और
रूठ कर गई ज़िन्दगी
वापस दौड़ी चली आई..|
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kitab 1 [161743]

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टूटकर रहेंगी
सरहदें
भले ही खड़े रहो/तुम
मज़बूती पांव जमाये
तरफदारी में|
विश्वास है मुझे
जब किसी रोज
क्रीड़ा में मग्न
मेरे बच्चे
हुल्लड़ मचाते
गुजरेंगे करीब से
सरहद के-
एकाएक
उस पार से उभरेगा
एक समूह स्वर
ठहरो!
खेलेंगे हम भी
तुम्हारे साथ..
एक पल को ठिठकेंगे
फिर सब बच्चे
हाथ थामकर
एक दूसरे का
दूने उत्साह से
निकल जाएंगे दूर
खेलेगे संग-संग
गायेंगे गीत
प्रेम के,बंधुत्व के,
तब-
न रहेंगी सरहदें
न रहेगी लकीरे
तब रहेंगी
सिर्फ..सिर्फ..सिर्फ…!
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kitab 1 [161743]

वर्षा: एक शब्दचित्र
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गली के नुक्कड़ पे
बारिश की रिमझिम के बाद
उस छोर से आती
छोटी सी नदी में
छपाक-छपाक करते
अधनंगे बच्चे,
डगमगाकर आतीं
कागज़ की छोटी-छोटी कश्तियां
पल भर को ताजा कर गईं
स्मृतियां-
घर/बचपन की।
घर और बचपन
दोनों ही पर्यायवाची शब्द हैं
अस्थायित्व के
बचपन-
हमेशा पास नहीं रहता
सरक जाता है घुटनों के बल
जाने कब?
और घर भी
हमेशा ‘घर’ होने का एहसास
नहीं दिलाता
हर किसी को।
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kitab 1 [161743]

बंदूकें
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तुम्हें
भले ही भाती हो
अपने खेतों में खड़ी
बंदूकों की फसल
लेकिन-
मुझे आनन्दित करती है
पीली-पीली सरसों
और/दूर तक लहलहाती
गेहूं की बालियों से उपजता
संगीत।
तुम्हारे बच्चों को
शायद
लोरियों सा सुख भी देती होगी
गोलियों की तड़तड़ाहट
लेकिन/सुनो..
कभी खाली पेट नहीं भरा करतीं
बंदूकें,
सिर्फ कोख उजाड़ती हैं।

kitab 1 [161743]

नहीं चाहिए चांद
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मुझे
नहीं चाहिए चांद/और
न ही तमन्ना है कि
सूरज
कैद हो मेरी मुट्ठी में
हालांकि
मुझे भाता है
दोनों का ही स्वरूप|
सचमुच
आकाश की विशालता भी
मुग्ध करती है
लेकिन
तीनों का एकाकीपन
अक्सर
बहुत खलता है
शायद इसीलिए
मैंने कभी नहीं चाहा कि
हो सकूं
चांद/सूरज और आकाश जैसा
क्योंकि
मैं घुलना चाहता हूं
खेतों की सोंधी माटी में,
गतिशील रहना चाहता हूं
किसान के हल में,
खिलखिलाना चाहता हूं
दुनिया से अनजान
खेलते बच्चों के साथ,
हां, मैं चहचहाना चाहता हूं
सांझ ढले/घर लौटते
पंछियों के संग-संग,
चाहत है मेरी
कि बस जाऊं/वहां-वहां
जहां-
सांस लेती है ज़िन्दगी
और/यह तभी संभव है
जबकि
मेरे भीतर ज़िन्दा रहे
एक आम आदमी|
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kitab 1 [161743]

उसे आना ही है…
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खोल दो
बंद दरवाजे/ खिड़कियां
मुग्ध न हो/ न हो प्रफुल्लित
जादू जगाते
दीपक के आलोक से।
निकलो
देहरी के उस पार
वंदन-अभिनंदन में
श्वेत अश्वों के रथ पर सवार
नवजात सूर्य के।
वो देखो-
चहचहाने लगे पंछी
सतरंगी हो उठीं दिशाएं
हां, सचमुच
कालिमा के बाद
आना ही है/ उसे
रश्मियां बिखेरकर
आल्हादित करने
विश्व क्षितिज को..!

kitab 1 [161743]

आज भी
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आज फिर
मचल गया
देहरी पे पांव रखता
नन्हा बच्चा।
एक पल ठिठक कर
कल मिली
पिता की डांट याद करता है
फिर, हौले से पुचकार कर
ज़मीन पे रेंगते
जहरीले कीड़े को-
सूखे पेड़ के सुपुर्द करते हुए
क्लास में
टीचर के पढ़ाए सबक को
कार्यरूप देता है।
बच्चा/कीड़ा/पेड़
तीनों-
एक दूसरे के कोई नहीं
शायद इसीलिए
अब भी सांस ले रही है
मानवता..!

kitab 1 [161743]

उसकी चुप
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(मदर टेरेसा का शव देखने की स्मृति)

शहर की
ह्रदय विदारक चीखों से
ज्यादा असहनीय थी
उसकी चुप|
सबकी तरह
उस पार्थिव की
चुप
न रोई/न दहकी
न छटपटाई
विदा के क्षण
लेकिन-
सबसे अलविदा की मुद्रा
भेद गई छाती
अर्जुन के बाणों से छलनी होते
गंगापुत्र के/आशीर्वचनों की तरह।
अदृश्य काया-
तुम्हारा न होना
बहुत सालता है मुझे
ठीक उसी तरह
जैसे-
तुमसे/कभी देखा न गया
धरती की संतानों का
अभावों के बीच सिसकना।
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kitab 1 [161743]

कुछ देर बाद
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जी लो जी भरकर
कह लो/सह लो/बह लो/दह लो
हां, सब कुछ
खत्म हो जाना है
कुछ देर बाद ही|
बाकी न रहेगा
कुछ भी
न याद/न तड़पन,
कुछ देर बाद ही
सुनाई देने वाली है
विदाई की पायल की
छम-छम
और तब/तुम
सहर्ष-प्रफुल्लित होकर जाना
रणक्षेत्र को कूच करते
योद्धा की तरह
क्योंकि-
शाश्वत सत्य से मुंह मोड़ना
विजेता के सिद्धांतों के खिलाफ होता है।
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kitab 1 [161743]

अंतर

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कोई भयावह स्वप्न नहीं
ज़िन्दगी का
आखिरी पड़ाव भर है
मौत!
कभी डरावनी भी नहीं होती
वह,
बल्कि अभाव/संत्रास से
जूझते/घुलते/टूटते
आदमी को
बड़े दुलार से
अपने आगोश मे समेटकर
इक मीठी सी नींद देती है|
चिरनिद्रा में लीन व्यक्ति के पास
कोई भी तो नहीं होता..
न याद, न घुटन
पास होता है तो
सिर्फ,अलौकिक आनन्द|
दोस्त,
मौत और ज़िन्दगी में
काफी एकरूपता भी है
नहीं भी,
ज़िन्दगी-
बार-बार पुकारती है हमें
मौत भी
लेकिन-
ज़िन्दगी की तरह
हमें छलती नहीं
मौत..!
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kitab 1 [161743]

पहाड़ के नाम
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तुमने
प्रकृति का वरदहस्त पाकर
पाया अपना अस्तित्व
पहाड़ के रूप में
और/प्रस्तुत किया खुद को
अपने स्वभाव की तरह
लेकिन क्या मालूम है
तुम्हें कि
विशाल काया के अलावा
कुछ भी न हो सका
तुम्हारा,
न किसी का अपनापन
न जीवन का एहसास
और न ही
अपने बने रहने की
जरूरत ही
किसी को समझा पाए
तुम,
क्योंकि
पाषाण होने के कारण
तुममें/आदम जाति की मानिंद
विकसित नहीं हो सका
ह्रदय सागर
जो दूर कर पाता
तुममें समाया
सिर्फ अपना ही अस्तित्व
सर्वशक्तिमान होने का
अहंभाव|
शायद यही वजह है कि
अपने आसपास
समूची दुनिया बसने के बावजूद
नहीं महसूस कर सके
तुम/कभी भी
पंछियों की चहचहाहट
और
सूर्य के शैशवकाल से
प्रौढ़ होने तक के अंतराल में
समाहित/जीवन के
अलौकिक परमआनन्द
और/शाश्वत सत्य का आत्मबोध|
यह सब
किसी विडंबना का
परिचायक नहीं है
बल्कि/यह खुद तुम्हारे ही
स्थापित किए
आदर्शों और उसूलों का प्रतिफल है
जो, अब
तुम्हारी नियति बन चुके हैं|
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-सुबोध श्रीवास्तव,
‘माडर्न विला’, 10/518,
खलासी लाइन्स,कानपुर (उप्र)-208001.
मो.09305540745
ई-मेल: subodhsrivastava85@yahoo.in

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