तीज त्योहारः सूर्यषष्ठी महोत्सव-गोवर्धन यादव/ लेखनी नवंबर-दिसंबर 16

chhath-puja1सूर्यषष्ठी प्रमुख रुप से भगवान सूर्य का व्रत है. इस पर्व में आदि देव सूर्य का विधि-विधान से पूजन किया जाता है. पुराणॊं में ईश्वर के विभिन्न रुपों की उपासना के लिए तिथियों का निर्धारण किया गया है. जैसे भगवान गणेश की पूजा के लिए चतुर्थी, श्री विष्णु के लिए एकादशी आदि. इसी प्रकार सूर्य की पूजा-अर्चना के लिए सप्तमी तिथि मानी गई है. इसे सूर्यसप्तमी, रथसप्तमी, अचलासप्तमी भी कहा जाता है. किंतु बिहार प्रान्त में इस व्रत के साथ ‍षष्ठी तिथि का समन्वय विशेष महत्व है.
ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्ड ( १/६) के अनुसार सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृतिदेवी स्वयं को पाँच विभागों में विभक्त करती है.,–दुर्गा, राधा, लक्ष्मी ,सरस्वती और सावित्री. ये पाँच देवियाँ पूर्णतम प्रकृति कहलाती है. इन्हीं प्रकृति देवी के अंश, कला, कलांश और कलांशांश भेद से अनेक रुप हैं, जो विश्व की समस्त स्त्रियों में दिखायी देते हैं.
त्रिगुणात्मस्वरूपा या सर्वशक्तिसमन्विता/ प्रधानसृष्टिकरणे प्रकृतिस्तेन कथ्यते.
मार्कण्डॆयपुराण का भी यही उद्घोष है- “स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु”. प्रकृतिदेवी के एक प्रधान अंशको “देवसेना” कहते हैं, जो सबसे श्रेष्ठ मातृका मानी जाती है. ये समस्त लोकों के बालकों की रक्षिता देवी है. प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इस देवी का एक नाम “‍षष्ठी” भी है.
‌षष्ठांशा प्रकृतेर्या च सा च ‍षष्ठी प्रकीर्तिता * बालकाधिष्ठातृदेवी विष्णुमाया च बालदा
आयुःप्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी * सततं शिशुपार्श्वस्था योगेन सिद्धियोगिनी
ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड (४३/४,६) के इस श्लोकों से ज्ञात होता है कि विष्णुमाया ‍षष्ठीदेवी बालकों की रक्षिका एवं आयुप्रदा हैं.
‍षष्ठी देवी के पूजन का प्रचार पृथ्वी पर कब से शुरु हुआ, इस संदर्भ में एक कथा पुराण में आती है.—“प्रथम मनु” स्वायम्भुव के पुत्र प्रियव्रत की कोई संतान नहीं थी. एक बार महाराज ने अपना दुख महर्षि कश्यप से व्यक्त किया और पुत्रप्राप्ति के लिए उपाय पूछा. महर्षि ने महाराज को पुत्रेष्टियज्ञ करने का परामर्श दिया. यज्ञ के फ़लस्वरुप महाराज की मालिनी नामक महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, किंतु वह शिशु मृत था. महाराज प्रियव्रत को अत्यन्त दुख हुआ. वे मृत शिशु को अपने वक्ष से लगाये उन्मत्तों की भाँति प्रलाप कर रहे थे. सारे परिजन किंमकर्त्तव्यविमूढ खडॆ थे. तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी. सभी ने देखा कि आकाश से एक ज्योतिर्मय विमान पृथ्वी की ओर आ रहा है. विमान के समीप आने पर स्थिति और स्पष्ट हुई, उस विमान में एक दिव्याकृति नारी बैठी हुई थी. राजा के द्वारा यथोचित स्तुति करने पर देवी ने कहा— मैं ब्रह्मा की मानसपुत्री ‌षष्ठीदेवी हूँ. मैं विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूँ एवं अपुत्रों को पुत्र प्रदान करती हूँ—“पुत्रदा S हम अपुत्राय”. इतना कहकर देवी ने शिशु की मृत देह का स्पर्श किया, जिससे वह बालक जीवित हो उठा. महाराज ने अपने पुत्र को जीवित पा अनेकानेक प्रकार से देवी की स्तुति की. देवी ने प्रसन्न होकर राजा से कहा कि तुम ऎसी व्यवस्था करो, जिससे पृथ्वी पर सभी हमारी पूजा करें. इतना कहकर देवी अन्तर्धान हो गयीं. तदनन्तर राजा ने बडी प्रसन्नतापूर्वक देवी की आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने राज्य में “प्रतिमास के शुक्लपक्ष की ‍षष्ठी तिथि को ‍षष्ठी-महोत्सव के रुप में मनाया जाय” ऎसी राजाज्ञा प्रसारित करायी. तभी से लोक में बालकों के जन्म, नामकरण, अन्नप्राशन आदि सभी शुभावसरों पर ‍षष्ठी-पूजन प्रचलित हुआ.
इस पौराणिक प्रसंग से यह पूर्णतया स्पष्ट होता है कि ‍षष्ठी शिशुओं के संरक्षक एवं संवर्धन से सम्बन्धित देवी है तथा इनकी विशेष पूजा ‍षष्ठी तिथि को होती है, वह चाहे बच्चों के जन्मोपरान्त छटा दिन हो या प्रत्येक चान्द्रमास के शुक्लपक्ष की ‍षष्ठी. पुराणॊं के इन्हीं देवी का एक नाम “ कात्यायनी” भी मिलता है, जिनकी पूजा नवरात्र में ‍षष्ठी तिथि को होती है. इसमे देवी के नैवेद्य में मीठे चावल का होना अनिवार्य है. आज भी शिशु के जन्म से छटॆ दिन ‍षष्ठी-पूजन बडॆ धूमघाम से लोकगीत (सोहर), वाध्य तथा पकवानों के साथ मनाने का प्रचलन है. प्रसूता को प्रथम स्नान भी इसी दिन कराने की परम्परा है.
ब्रह्मवैवर्तपुराण में वर्णित इस आख्यान से ‍षष्ठीदेवी का माहात्म्य, पूजन-विधि एवं पृथ्वी पर इसकी पूजा का प्रसार आदि विषयों का सम्यक ज्ञान होता है, किंतु सूर्य के साथ ‍षष्ठीदेवी के पूजन का विधान तथा “सूर्यषष्ठी” नाम से पर्व के रूप में इसकी ख्याति कब से हुई ? यह विचारणीय विषय है.
भविष्यपुराण में प्रतिमास के तिथि-व्रतों के साथ ‍षष्ठीव्रत का भी उल्लेख मिलता है. यहाँ कार्तिकमास के शुक्लपक्ष की ‍षष्ठी का उल्लेख स्कन्द-‍षष्ठी के नाम से किया गया है. किंतु इस व्रत के विधान में प्रचलित सूर्यषष्ठी-व्रत के विधान में पर्याप्त अन्तर है. मैथिल “वर्षकृत्यविधि” में “प्रतिहार-‍षष्ठी” के नाम से बिहार में प्रसिद्ध “सूर्यषष्ठीव्रत” की चर्चा की गयी है. इस ग्रन्थ में व्रत, पूजा की पूरी विधि, कथा तथा फ़लश्रुति के साथ ही तिथियों के क्षय एवं वृद्धि की दशा में कौन-सी ‍षष्ठी तिथि ग्राह्य है, इस विषय पर भी धर्मशास्त्रीय दृष्टि से चर्चा की गयी है और अनेक प्रामाणिक स्मृति-ग्रन्थों से पुष्कल प्रमाण भी दिए गए हैं. कथा के अन्त में “ इति श्रीस्कन्दपुराणॊक्तप्रतिहारषष्ठीव्रतकथा समाप्ता” लिखा है. इससे ज्ञात होता है “स्कन्दपुराण” के किसी संस्करण में इस व्रत का उल्लेख अवश्य हुआ होगा. अतः इस व्रत की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता भी परिलक्षित होती है,. प्रतिहार का अर्थ होता है—जादू या चमत्कार अर्थात चमत्कारिक रुप से अभीष्टॊं को प्रदान करने वाला व्रत.
‍षष्ठीव्रत कथा—नैमिषारण्य में शौनकादि मुनियों के पूछने पर श्रीसूतजी लोककल्याणार्थ सूर्यषष्ठी व्रत का महात्मय, विधि तथा कथा का उपदेश करते हैं. इस कथा के अनुसार राजा कुष्ठरोग से ग्रसित एवं राज्यविहीन है, वे विद्वान ब्राह्मण के आदेशानुसार इस व्रत को करता हैं और फ़लस्वरुप रोग से मुक्ति पाकर राज्यारुढ एवं समृद्ध हो जाता हैं. स्कन्दपुराण के कथानुसार राजा सगर की कथा का उल्लेख मिलता है. सगर ने एक बार पंचमीयुक्त सूर्यषष्ठी-व्रत को किया था, जिसके फ़लस्वरुप कपिलमुनि के शाप से सभी पौत्रों का विनाश हो जाता है. इस दृष्टांत से इस व्रत की प्राचीनता सिद्ध होती है. व्रत की विधि में बतलाया गया है कि व्रती को कार्तिकमास के शुक्लपक्ष में सात्त्विक रूप से रहना चाहिए. पंचमी को एक बार भोजन करना चाहिए. उसे वाक्यसंयम रहना चाहिए. निराहार रहकार उसे फ़ल-पुष्प, घृतपक्व वैवेद्य आदि सामग्री लेकर नदी के तट पर जाकर गीत-वाद्य आदि से हर्षोल्लासपूर्वक महोत्सव मनाना चाहिए तथा भगवान सूर्य का पूजन कर भक्तिपूर्वक उन्हें रक्तचन्दन तथा रक्तपुष्प-अक्षतयुक्त अर्ध्य देकर निवेदन करना चाहिए.
इस व्रत का सर्वाधिक प्रचार बिहार राज्य में दिखायी पडता है. संभव है, इसका आरम्भ भी यहीं से हुआ हो और अब तो बिहार के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी इसका व्यापक प्रसार हो गया है. इस व्रत को सभी लोग अत्यन्त भक्ति-भाव, श्रद्धा एवं उल्लास से मनाते हैं. सूर्यार्ध्य के बाद व्रतियों के पैर छूने और गीले वस्त्र धोने वालों में प्रतिस्पर्धा देखते ही बनती है, इस व्रत में प्रसाद माँगकर खाने का विधान है. सूर्यष्‍ष्ठी-व्रत के प्रसाद में ऋतु-फ़ल के अतिरिक्त आटे और गुड से शुद्ध घी में बने “ठेकुआ” का होना अनिवार्य है. ठेकुआ पर लकडी के साँचें से सूर्यभगवान के रथ का चक्र अंकित करना आवश्यक माना जाता है. ‍षष्ठी के दिन समीपस्थ किसी पवित्र नदी या जलाशय के तट पर मध्यान्ह से ही भीड एकत्र होने लगती है. सभी व्रती महिलाएँ नवीन वस्त्र एवं आभूषणादिकों से सुसज्जित होकर फ़ल, मिष्ठान्न और पकवानों से भरे हुए नए बाँस से निर्मित सूप और दौरी( डलिया) लेकर ‍षष्ठीमाता और भगवान सूर्य के लोकगीत गाती हुई अपने-अपने घरों से निकलती हैं.
भगवान सूर्य के अर्ध्य का सूप और डलिया ढोने का भी बडा महत्व है. यह कार्य पति, पुत्र या घर का कोई सदस्य ही करता है. घर से घाट तक लोकगीतों का क्रम भी चलता रहता है. यह क्रम तब तक चलता है जब तक भगवान भास्कर सायंकालीन अर्ध्य स्वीकार कर अस्ताचल को न चले जायँ. सूपों और डलियों पर जगमगाते हुए घी के दीपक गंगा-तट पर बहुत ही आकर्षक लगते हैं. पुनः ब्राह्म मुहूर्त में ही नूतन अर्ध्य सामग्री के साथ सभी व्रती जल में खडॆ होकार हाथ जोडकर भगवान भास्कर के उदयाचलारूढ होने की प्रतीक्षा करते हैं. जैसे ही क्षितिज पर अरुणिमा दिखायी देती है वैसे ही मन्त्रों के साथ भगवान साविता को अर्ध्य समर्पित किये जाते है. यह व्रत विसर्जन, ब्राह्मण-दक्षिणा एवं पारणा के पश्चात पूर्ण होता है.
सूर्यषष्ठी-व्रत के अवसर पर सायंकालीन प्रथम अर्ध्य से पूर्व मिट्टी की प्रतिमा बनाकर ‍षष्ठी देवी का आवाहन एवं पूजन करते हैं. पुनः प्रातः अर्ध्य के पूर्व ‍षष्ठीदेवी का पूजन कर विसर्जन कर देते हैं. मान्यता है कि पंचमी के सायंकाल से ही घर में भगवती ‍षष्ठी का आगमन हो जाता है. इस प्रकार सूर्य भगवान के इस पावन व्रत में शक्ति और ब्रह्म दोनों की उपासना का फ़ल एक साथ प्राप्त होता है. इसीलिए लोक में यह पर्व “सूर्य षष्ठी” के नाम से विख्यात है.
सांसारिक जनों की तीन एषणाएँ प्रसिद्ध है—पुत्रैषणा, वित्तैषणा तथा लोकैषणा. भगवान सविता प्रत्यक्ष देवता हैं, वे समस्त अभीष्ठों को प्रदान करने में समर्थ हैं—“किं किं न सविता सूते.” समस्त कामनाओं की पूर्ति तो भगवान सविता से हो जाती है, किंतु वात्सल्य का महत्व माता से अधिक और कौन जान सकता है ?. परब्रह्म की शक्तिस्वरूपा प्रकृति और उन्हीं के प्रमुख अंश से आविर्भूता देवी ‍षष्ठी, संतति प्रदान करने के लिए ही मुख्यतया अधिकृत हैं. अतः पुत्र की कामना भगवती ‍षष्ठीदेवी से करना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है.
सूर्यषष्ठी के पुनीत पर्व पर बिहार में महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले लोकगीत में भी देखने को मिलते हैं.
काहे लागी पूजेलू तुहूं देवलघरवा (सूर्यमन्दिर) हे
काहे लागी, कर ह छठी के बरतिया हे, काहे लागी
अन-धन सोनवा लागी पूजी देवलघरवा हे,
पुत्र लागी, करीं हम छठी के बरतिया हे, पुत्र लागी”
इस गीत में समस्त वैभवों की कामना तो भगवान भास्कर से की गयी है, किंतु पुत्र की कामना भगवती ‍षष्ठी से ही की जा रही है. इस पुराणसम्मत तथ्यों को हमारी ग्रामीण साधु महिलाओं ने गीतों में पिरोंकर अक्षुण्य रखा है.
सविता और ‍षष्ठी दोनों की एक साथ उपासना से अनेक वांछित फ़लों को प्रदान करने वाला यह सूर्यषष्ठी-व्रत वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण है.

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