कविता आज और अभी/ लेखनी नवंबर-दिसंबर 16

कैद आदमी
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लाज का घूँघट, मर्यादा का आँचल
बगीचे की मेड़ और घर का आहता
या फिर सिंदूर की दपदप रेखा
सरहदें यही नहीं और भी खींची
और तोड़ी हैं आदमी ने सदा
युद्ध के कगार पर खड़े होकर
शांति का बिगुल बजाते
देशों के बीच हृदय को चीर
कुछ जरूरी तो कुछ बस उन्मादी

आस्तीन में खंजर आंखों में सपने
खींचे बैठा यह कितनी दुर्गम रेखा
खुद से रूठे खुद से ही जूझे
उचक-उचक के बिखरा जाए
पकड़ न पाए पर नभ का चन्दा
कितनी पथरीली यह इसकी दुनिया
टूटी रस्सी बांधे ना फटी गठरिया
आपस में लड़-लड़के दम तोड़े
खुद की खींची सरहदों में नित रोए हांफे
घुटता कितना कैद आदमी…
-शैल अग्रवाल

सरहदें हैं..
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सरहदें हैं
कुछ मुटावों की
शिकवों-गिलों की
तैनात है जहां
अपने-अपने अहम्
पैनी निगाहों के साथ

मगर हवाओं में खुशबू सी
सूरज के उजियारे सी
खलिश रुकी कहाँ
अपनापन थमा कहाँ

अपनी-अपनी सरहदों में
कैद हैं हम..
कुछ खलिश लिए
और कुछ अपनापन भी.
जितेन्द्र दबे ( ओबर , डूरुरपुर, राजस्थान)

खबरें
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कल फिर एक नौजवान देश की सीमा पर शहीद हुआ
एक नाबालिग लड़की का चार लड़कों ने रेप किया
बासे जहरीले भोजन को खा मरे स्कूली बच्चे
पिछले वर्ष बना पुल पहली बारिश में ही धाराशायी
देश की सीमा पर फिर घुस आए थे आतातायी
सैनिक की विधवा अपने बच्चों का पेट न भर सकी
और घर के बन्द कमरे में रस्सी से लटकी मिली
गांव में नेताजी के बेटे की शादी हुई शानदार
अस्सी करोड़ का था पूरा खरच
खबरें ही खबरें थीं उस अखबार में
जिन्हें पढ़ने का वक्त नहीं था
व्यस्त आदमी के पास
हाँ अंगीठी जलाते
बहुतों को देखा है हमने…
– शैल अग्रवाल

क्या करूँ
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मेरे ख़ुदा मैं अपने ख़यालों का क्या करूँ
अंधों के इस नगर में उजालों का क्या करूँ

चलना ही है मुझे मेरी मंज़िल है… मीलों दूर
मुश्किल ये है कि.. पाँवों के छालों का क्या करूँ

दिल ही बहुत है मेरा इबादत के वास्ते
मस्जिद का क्या करूँ मैं, शिवालों का क्या करूँ

मै जानता हूँ सोचना अब एक जुर्म है
लेकिन मैं दिल में उठते सवालों का क्या करूँ

जब दोस्तों की दोस्ती है सामने मेरे
दुनिया में दुश्मनों की मिसालों का क्या करूँ
-राजेश रेड्डी

जहर
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जमीनों को बांटते-बांटते
कैसे हो जाते हैं
ये बटवारे मन के
नफरत की भट्टी में
उपले से जलते हैं सभी
इरफान करतारा और बलबीरे
कौन बोता उगाता यह बहशीपन
जो दोस्त थे पडोसी थे
साथसाथ खेले पढे बढ़े थे कभी
एक दूसरे के सीने पर बंदूक ताने
अब खून के प्यासे खड़े
कंटीली सरहदों के दोनों ओर…
शैल अग्रवाल

“सरहदें ।”
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सरहदें
एक भट्टी की तरह
तप रही हैं
साज़िशों के जाल में
फँसीं हवाएँ
मिट्टी के लौंदे पर
काँप कर काटती हैं हवाएँ
समय मौन है -गमगीन माएँ
हर आहट पर
आँखों से घर की ओर
आने वाला पथ नापती हैं
बिछड़े मीत की
राह उड़ीकती हुई
चौंकती हैं पत्नियाँ
बच्चों को बहलाती हैं
जो डरे डरे सहमें सहमें से

भीगी पथराई आँखों से
रात दिन लोहे की
सलाखें लगी खिड़कियों से
सूनी गलियों में
झाँकते हैं
जहाँ पाठशाला की ओर
जाने वाले पथ
बारूदों से सने हैं
बुज़ुर्ग भी
समझ नहीं पाते कि
कैसे मन के भेद मिटाएँ
लहू एक है
किसे समझाएँ ?

उनकी सुरमई आँखों में
ख़ौफ का सपना तो है
पर नींद नहीं
कैसे पलकें झपकाएँ
रह रह कर सरहदों पर
बारूदों की
डरावनी धुनें बजती है
सैनिकों के जीवन भी वहाँ
किसी भुल भुलैया में
ख़ानाबदोश से घूम रहें हैं

इन सरहदों से
दुश्मनी कैसे हटायें
सरहदें तो धुअें की
चौपाल हो गयी हैं
मन की सरहदें भी
भट्टी की तरह तप रही हैं
वहाँ कैसे प्रेम दीप जलायें ?
-डॉ. सरस्वती माथुर

अलबेला चाँद आसमान का
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अलबेला चांद आसमान का
अंधेरी रातों को नित
चांदनी की चूनर उढाता
दिए सा जलता जो रातभर
अमीर और गरीबों के
महल और झोपड़ों पे
कोई भेदभाव न करता
कर्म ही जिसका एक धर्म
समता जिसके मन का भाव
कैसे स्वीकारे हमारी पूजा अर्चना
ईद और करवा चौथ पर
जब धर्म के नाम पे फैला बहशी पन
मन में इतनी नफरत ही नफरत…
-शैल अग्रवाल

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