सरहदें
कंटीले कांटों का तार हो या कोमल फूलों की क्यारी, जेल की उंची दीवारें हों या घर का छोटा-सा आहता, सरहदें कहाँ नहीं होतीं!
हद न पार हो जाए इसीलिए जन्म हुआ होगा इनका और तबसे आजतक खींचना और रखना ही पड़ता है इन्हें फिर चाहे वह लाज का घूंघट हो , या पलकों की गिरी चिलमन । मर्यादा का आंचल ढक और छुपा कर रखता है अनचाही नजरों और पहुंच से बहुत कुछ। रक्षा करती हैं ये हमारी । भावनात्मक ही सही, सुरक्षा देती हैं ये हमें।
यही वजह है कि प्रकृति में भी दिखती हैं ये हमें, कहीं लहलहाते समुद्र के रूप में तो कहीं उंची-उंची पर्वत श्रृंखलाओं के रूप में। अतिकृमण भी होता ही आया है दुस्साही मानव द्वारा इनका, कौतुक वश, कहीं जरूरत वश, तो कहीं मात्र लालच या हवश वश ही ।
मुश्किल भी तभी आती है जब इस सहभोग्या पृथ्वी या समाज पर एकछत्र अधिकार और आधिपत्य के लिए दूसरों की परिधियों का अतिक्रमण होता है। हड़पने का प्रयास करते हैं लोग। शायद स्वभाव में है यह लुटेरापन और छीना-छपटी भी। क्योंकि यह संरक्षण और बचाव की प्रक्रिया से भी तो जुड़ी हो सकती है। जानवर तक आहते खींचकर रहते हैं तो इंसान की बुद्धि तो उनसे बहुत आगे निकल चुकी है। घातक रूप से सक्षम है। जाने कितनी लड़ाइयाँ हुई हैं, कितना खून बहा है इन सरहदों पर, कहना और मापना असंभव ही है। अच्छी हों या बुरी, न तो सरहदों की उपस्थिति ही मिटी है और ना ही इनकी वजह से हुई हजारों लड़ाइयाँ या खून-खराबे ही आज तक थम या रुक पाए । हाँ संतृप्त मानवों द्वारा विद्रोह के कुछ असफल प्रयास अवश्य हुए हैं चाहे हम मानव की निजी स्वतंत्रता की बात करें या फिर देश और विश्व में उनके दिन-प्रतिदिन हनन होते अधिकारों की। एक तरफ आर्थिक उन्नति और व्यापार में सहयोग के लिए विश्व ग्राम का सपना देखते हैं नेता लोग तो दूसरी तरफ, वहीं उनकी नाक के नीचे निसंकोच सीमा पर तैनात वीरों के शीश काटकर तोहफे में भेजने में भी नहीं हिचकिचाते कई। पाशविक निर्दयता और क्रूरता की सारी सीमाएं पार करता दिखता है हमारा यह समय। एक देश से दूसरे देश में अनियंत्रित आना जाना तो बस पक्षी पवन और नदियों के लिए ही संभव है । मानव के लिए यह असंभव सपना था, है, और रहेगा क्योंकि काम क्रोध मद लोभ और मोह जैसे पांचों इन्द्रियों के विकारों को छोड़ना आज भी इसके वश में ही नहीं।
जड़ें गहरी कहीं मनों में धंसी हुई हैं और हम दोष देते हैं इन लड़ाईयों का सरहदों या नियंत्रण रेखाओं को। गांधी और जिन्ना को, सैकड़ों मशरूम की तरह उगते जायज नाजायज धर्म विशेष के संगठन और शालाओं को।
चारो तरफ हवाओं में उड़ती विषैली खबरों से आहत मन ने सरहद विषय इसीलिए भी चुना कि शायद इन विषम परिस्थितियों में भी बात वहाँ पहुंचे, कुछ मन बदलें । आखिर साहित्य में भी तो वही शब्द होते हैं जो प्रार्थना में हैं।
तो मित्रों वर्ष के अंत में मानव कल्याण और जागरूकता के लिए यह अंक पूरी आस्था और विश्वास के साथ-कि कहीं कुछ अवश्य बदलेगा…मानवता घायल ही सही पर अभी जिन्दा है, सांसें ले रही है-
‘सरहदें’… अंक पसंद आए तो बताना न भूलिएगा।
लेखनी का अगला अंक उम्मीद…यानी नव अंकुर या नई सोच और नई शुरुवात पर है आपकी रचनाओं का हमें इंतजार रहेगा। रचना भेजने की अंतिम तिथि 25 दिसंबर है।
एक बार फिर याद दिलाना चाहूँगी कि आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा मार्गदर्शन करती हैं और हमें इनका इंतजार रहता है।
-शैल अग्रवाल