( जाने-माने व्यंगकार अविनाश वाचस्पति को हमने गत आठ फरवरी को खो दिया। लेखनी परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि के साथ उनका एक चुटीला व्यंग्य लेखनी के ही एक पुराने अंक-अप्रैल 2012 से साभार)
गरीबी की कबहुं न घटेगी चोटी
गरीबी की रेखा, अमीरी की हेमा। अमीरी और अमरीकी दोनों एक जैसे लगते हैं जबकि अमरीका की हालत इन दिनों बहुत बारीक हो चुकी है। इतनी बारीक की देखने पर भर से उनकी अर्थव्यवस्था टूटने सी लगती है। वैसे यह जरूरी नहीं कि जो बारीक हो, वह टूटेगा ही, कई बार बारीक चीजें सबसे मजबूत होती हैं। मजबूत रिश्ते यूं ही पल भर में दरक जाया करते हैं लेकिन बारीक सी दोस्ती जन्म जन्म का साथ बन जाती है। रिश्तेदारी गरीबी हुई और मित्रता अमीरी। अब मित्रता अमरीका से हो तो अमीरी का ही आभास देगी, चाहे सत्यानाश ही कर दे।
गरीबी के करीबी न नेता होते हैं और न अभिनेता। कुछ अभिनेत्रियां होती भी हैं तो अभिनेताओं को गॉड फॉदर बनाकर अमीर हो जाती हैं। वह बात दीगर है कि बाद में हल्ला मचाकर अभिनेता की इज्जत और ख्याति दोनों को लूट लें। अमीर होना हर कोई चाहता है, जरूरी नहीं कि जो गरीब हो वही अमीर होना चाहेगा बल्कि जो अमीर है उसको और अमीर होने की वासना मन में बसी होगी क्योंकि उसे तो अमीरी का चस्का लग चुका है और जिस चीज का चस्का एक बार लग जाए तो छूटता नहीं है, न आसानी से और न मुश्किल से।
वैसे रेखा को गरीब नहीं कहा जा सकता है, अगर रेखा को गरीब कह रहे हैं तो वह कब मानहानि का मुकदमा ठोंक दे, कहा नहीं जा सकता और जो मुकदमा चलाने की हैसियत रखता है, वह गरीब हो सकता है, मुझे इसमें संदेह है। इससे जाहिर है कि गरीबी की न तो रेखा है, न बिंदी है। हां, हिंदी जरूर गरीब है, इनके मध्य में बिंदी होते हुए भी हिंदी की अंग्रेजी और काले अंग्रेजों द्वारा चिंदी चिंदी की जा रही है।
गरीबी की असलियत रेखा नहीं है, उसकी चोटी तो सदा शिखर पर ही रहती है और कभी घटती नहीं है। हां, उसे तार तार किए जाने की जरूरत है क्योंकि उनके खाते में न रोटी है, न कपड़ा है, बिजली और साफ पानी की तो बात करना भी बेमानी है। सिर पर उनके ओपन आसमान है जो सिर्फ तभी ढकता है, जब बारिश के पहले काले बादल आसमान पर घिर आते हैं। वे गरीबी की क्या कहें, अमीरी को भी ढक जाते हैं। वे जब ढकते है तो अमीर ढके जाते हैं। गरीब तो ढकने के बाद भी उघड़े हुए नजर आते हैं। यह उघड़ना, यह उधड़ना – गरीबी के पिचके गाल पर तमाचे का तड़ से पड़ना है। जो उधड़ते उधड़ते भी भरे बचपन और जवानी में अधेड़ बना देता है।
गरीबी हाथी जितनी छोटी भी नहीं है, उसे ढकना हाथी को ढकने से मुश्किल है। हाथी दिखता है, उसे ढकने के सफल उपाय किए जा सकते हैं। गरीबी दिखती नहीं है, उसे यहां से ढको तो वहां से नंगी नजर आती है और वहां से ढको तो यहां से। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि गरीबी वह नंगी है जो क्या तो पहनकर नहाएगी और नहाकर क्या निचोड़ेगी, इस चक्कर में वह खुद ही निचुड़ जाएगी। वैसे भी हाथी के हाथ नहीं, सूंड हुआ करती है और मजबूत चार पैर जो जाहिर करते हैं कि गरीबी महामजबूती से कायम है, इसे हिलाना पॉसीबल नहीं है।
कुछ रुपयों की गिनती करके किसी को गरीब और किसी को अमीर बतलाना, मानसिक दिवालियापन ही कहा जाएगा। अब चाहे वह आयोग बतलाए लेकिन आयोग पहले ही रोग से ग्रस्त है। जिस दिन नैतिकता, स्वस्थ परंपराओं और ईमानदारी के बल पर अमीरी और गरीबी का शक्ति परीक्षण किया जाएगा, उस दिन सचमुच में देश की असली गरीबी और अमीरी का हाल मालूम होगा। असली अमीर और असली गरीब की जानकारी लेना कोई हंसी खेल नहीं है। कोई ऐसा ठठ्ठा नहीं है जो इस ठाठ के पट्ठे के खेल का पर्दाफाश कर सके।
अमीरी के सामने गरीबी को तिगनी का नाच नचाने में आयोग पूरे मनोयोग से सक्रिय है। अमीरी तो वैसे सब अमीरों के देसी और विदेसी बैंक खातों में सदैव खिलखिलाती रहती है। वह नए नए रास्ते ढूंढ कर गरीब को और गरीब करने में सभी आंकड़ों की बाजीगरी के साथ जुटे हैं। इस जुटने को करतब दिखलाना भी कह सकते हैं परंतु आयोग को मदारी कहना उचित नहीं है। अमीर को अमीर दिखलाने की जरूरत ही नहीं है। पैसा पैसे को खींचता है और गरीबी आयोग को, वह गरीब को भी नहीं खींचती है। आयोग जितना गरीब के पास खिंचा चला जाता है, उतना उसकी पोल को खोलता है। उस समय वह बोलना तो सब सच चाहता है लेकिन बोलता सब झूठ है क्योंकि झूठ ठूंठ है। सच सुनने से सब रूठ जाते हैं। झूठ बोलने से कोई ठूंठ नहीं होता। एक अतीव सक्रियता जाग उठती है जिसे जागरूकता भी कहा जा सकता है। जागरूकता में रूकता कुछ नहीं, बस गरीबी के विरुद्ध अपनी चैतन्यता दिखाने को सब जाग जाते हैं और गरीब के भाग सो जाते हैं। आप तो जाग रहे हैं न ?
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