किसकी धरती’
जब तक है शरीर में साँस
तब तक धरती पर आवास
पर धरती बंटी है देशों में
जहाँ तेरे-मेरे का अहसास l
जन्मभूमि से दूर हो गये
ना कोई घर ना ठिकाना
आज यहाँ कल वहाँ भटकते
है जीवन इनका बेगाना l
सैलाब से आ रहे शरणार्थी
नितदिन बढ़ रहा प्रवास
हर देश करे आनाकानी
जब मिलता इनका आभास l
सुनकर आहट इन लोगों की
बड़ी मुश्किल से खुलते द्वार
इस दुनिया में ना कोई चाहे
किसी दूजे का उठाना भार l
झोली फैला कर माँगते हैं
कुछ कपड़े-लत्ते और खाना
कभी लोग कुछ दे देते हैं
कभी कर देते हैं बहाना l
किसी गुदड़ी का बना बिछौना
सो जाते हैं फुटपाथों पर
किस्मत ने इनको लूट लिया
जो लिखी है इनके हाथों पर l
गोद में लेकर नन्हे बच्चे
और आँखों में आँसू खारे
माँगती रहतीं भीख सभी से
कुछ औरतें सड़क किनारे l
उन्हें देख मुँह फेरते हैं सब
न कोई सुनता उनकी पुकार
करती हैं अनुरोध अगर वह
तो मिल जाती है दुत्कार l
नियति ने इनके संग किया
एक बहुत बड़ा परिहास
नीड़ खो गया, चैन खो गया
फिर भी जीवित है आस l
-शन्नो अग्रवाल
रिफ्यूजी कैंपः विमलेश त्रिपाठी
(ज्ञान प्रकाश विवेक की एक कहानी पढ़कर)
अपने मुल्क से बेदखल वे चले आये हैं यहाँ रहने
एक अन्तहीन युद्ध से थके हुए उनके चेहरों पर
बाकी है अभी भी
जिन्दा रहने की थकी हुई एक जिद
वतनी लोगों की नजर में बेवतनी
वे छोड़ आये हैं
दरवाजों पर खुदे अपने पुरखों के नाम
आलमारी में रखे ढेरों कागजात
हर समय हवा में तैरते अपने छोटे-बड़े नाम
बिस्तर पर अस्त व्यस्त खिलौनों की आँखों के दहशत
और पता नहीं कितनी ही ऐसी चीजें
जिन्हें स्मृतियों में सहेजे रखना उनके लिए असम्भव है
पृथ्वी पर एक और पृथ्वी बनाकर
वे सोच रहे हैं लगातार
कि इस पृथ्वी पर कहाँ है
उनके लिए एक जायज जगह
जहाँ रख सकें वे पुराने खत सगे-सम्बन्धियों के
छन्दों में भीगे राग सुखी दिनों के
गुदगुदी शरारतें स्कूल से लौटते हुए बच्चों की
शिकायतें काम के बोझ से थक गयी
प्रिय पत्नियों की
एक आदमी के ढेरों बयान जंग के समय के
और किताबों की फेहरिस्त से चुनकर रखी हुईं कविताएँ
शान्ति के समय की
उनकी नसों में रेंग रही हैं
अपनों की असहाय चीखें
और उनके द्वारा गढ़े गये
एक नष्ट संसार की पागल खामोशी
जिन्हें टोहती आँखों में लेकर वे बेचैन घूमते हैं
उनकी मासूम पीठों पर लदी हैं
जंगी बारूदों की गठरियाँ
और हृदय में सो रही अनेक ज्वालामुखियाँ हैं
वे चुप आँखों से देख रहे हैं
दूर पहाड़ के पार असहाय और धुँधलाये सूरज को
जैसे अपने क्षितिजों में उगने की तरह
और रात में टिमटिमाती बत्तियों को
अपने छोटे आसमान में सनसनाते
किसी दहशत की खबर की तरह
उनके सपने में दिख रही हैं
सर्द लोहे की भयानक कानूनी आकृतियाँ
अपने पंजे में दबोचने को आगे बढ़ती हुईं
पर बार-बार कत्ल होने के बाद भी वे जिन्दा हैं
एक अदद जगह
और रोटी के कुछ टुकड़ों के अधैर्य इन्तजार में
वे चुप हैं कि उनके बोलने पर पाबन्दी है
उनके रूखे दिलों में
फैलता जा रहा है एक रेगिस्तान
सिर उनके सामूहिक झुकते जा रहे हैं
पाताल की ओर
मनुष्यता के पार की यात्रा कर रहे वे
सबकुछ होकर भी निकल जाना चाहते हैं कैंपों से
चले जाना चाहते हैं किसी अनन्त यात्रा पर
पहुँच जाना चाहते हैं एक ऐसे पड़ाव तक
जहाँ रोप सकें अपनी पोटली में जिन्दा रह गये
एक आखिरी अधसूखे पौधे को
चलते वक्त उखाड़ लाये थे जिसे अपने आँगन से
और सबकुछ होकर भी वे बना लेना चाहते हैं अन्ततः
उम्मीद की रेत पर
छूट गए अपनी-अपनी दुनिया के साबुत नक्शे
फिलहाल उनके लिए
यह दुनिया की सबसे बड़ी चिन्ता है।
-विमलेश त्रिपाठी
बिछड़ने का गीत
चले जाओ दूर समंदर के पार घने जंगलों में स्वर्ग-सी चमकीली किसी धरती पर
अब मैं तुम्हें नहीं पुकारऊँगा
नहीं कहूँगा कि तुम्हारे होंठ बहुत खूबसूरत हैं
और मैं अपने होंठ से वहाँ एक झरने की तस्वीर बनाना चाहता हूँ
कि तुम्हारी देह पर रोपना चाहता हूँ
गुलमुहर का एक पेड़
कि बचपन से शब्द जो सँचकर रखा था
जिसे खर्चना था मुझे प्रेम कविताएँ लिखने में
तुम्हारे नाम
उन शब्दों को मैंने अब अपने लहू में मिल जाने दिया है
तुम चले जाओ
कि अब कभी गुलमुहर के खिलने का मौसम नहीं आएगा
हवा नहीं बहेगी दो लटों को एक साथ उड़ाती
बारिश नहीं होगी कभी
दो हथेलियों पर एक साथ
दो जिह्वाएँ नहीं उचरेंगी
एक ही शब्द एक साथ गहन एकांत में
किसी पहाड़ी पर सीतलहरी बीच
हम एक दूसरे को स्वेटर की तरह बुन नहीं पाएँगे
हां, तुम चले जाओ
इससे पहले कि समय मर जाय हमारे बीच
ऑक्सिजन जैसी किसी चीज के अभाव में
पृथ्वी यह रसातल में चली जाए काँपती थरथराती
अंधकूप बन जाय यह अंतरिक्ष
तुम चले जाओ
कि मैं फिर से लौट सकूँ अपनी ही अँधेरी खाइयों में
गहरे पाताल बीच
सदियों से गुम एक ढिबरी शब्द की तलाश करता।
– विमलेश त्रिपाठी
यथार्थ के अंधेरे में
जब घर नहीं
अपने साथ नहीं
पेट में रोटी नहीं
तो शोर हैं ये
धर्म और ईमान की बातें
खो जाती हैं जब उम्मीदें
निराश भटका आदमी
कुछ भी सोचने और
कहने लग जाता है
किसी के कहने पर
किसी का कत्ल
बड़ा गुनाह नहीं उसके लिए
मौत में भी
जन्नत का दरवाजा
दिखा सकते हैं कई इसे
लड़ाई भूख की हो
या जजबातों की
दोनों में ही उलझा
सब भूला
जानवर हो सकता है…
-शैल अग्रवाल
जॉर्डन पायलट
कैसे फटा होगा,
वह कर्ण यह सुनकर ।
तेरा बेटा ख़ाक हो गया है,
हैवानियत की आग से जलकर ।
हो गया है बलि वह,
आतंक की गंदी धरा पर ।
शर्मसार हो जाता है मन,
क्रूरता की ऐसी नग्नता पर ।
जिस आस की डोर से माँ ने,
बाँधे रखा था स्वयं को ।
अब न आएगा कभी वह,
उस डोर को रख लो जतनकर ।
वो क्रूर कातिल और न जाने,
कितने घरों को फूँक देंगे ।
और कितनी देह जलेंगीं,
शीश कितने ही कटेंगे ।
निर्वस्त्र होती मानवता को,
न देख पाने की झिझक से,
कब तक यूँ हम अपनी,
आँखें बंद करते रहेंगे ।
कुछ समय में मृत्यु भी अब,
ख़ौफ़ उनसे खाने लगेगी ।
अब आ भी जाओ ईश तुम,
नृसिंह का अवतार लेकर,
तब कहीं जाकर ही तो,
आतंक की होली जलेगी ।।
-शुभ्रता मिश्रा
शरणार्थी, आत्मज-आतंकवाद
कल वो
बहुत रोईं,
बहुत सिसकीं,
बहुत चीखीं ।
वे कौन ?
किसकी बात कर रहे हो ?
वे ही……..
मानवता,
ममता,
अस्मिता,
वेदना,
करुणा ।
ये कौन हैं ? और क्यों रोईं ?
ये हमारी संवेदनहीनता की
लाखों परतों के नीचे
अवसादित होती जा रहीं
ईश्वर-सृजित प्रतिबद्धताएँ हैं ।
पर दब गईं हैं, तो आवाजें कैसे आईं ?
कल ऐसा क्या हुआ,
जो इतनी परतों को चीरती
उनकी आवाज सुनाई भी दे गई ।
हाँ कल,
नहीं कल ही नहीं,
ऐसे बहुतेरे कलों में,
हर रोज़
कोई भोला बचपन करुण क्रंदन करता पुकारता रह जाता है ।
कोई निर्भया निर्वस्त्र होती रहती है ।
कोई पिता आँसू पीता रहता है ।
कोई माँ पथराई आँखों से मृत बचपन को दुलारती रहती है ।
कोई मोहल्ला शोकसभा करता है ।
कोई प्रदेश शोकसंदेश पढ़ता है ।
कोई देश शोकदिवस घोषित करता है ।
और विश्व,
ऑस्ट्रेलिया से पाकिस्तान तक,
अमेरिका से अफगानिस्तान तक,
शोक के महासागर में,
हर रोज़ मानवता को,
क्षण-क्षण डूबते देखता है ।
और हम ?
बेबस हैं,
इस सबके मूक साक्षी होने के ।
सिर्फ एक आत्मग्लानि के हल के रुप में
यह सोच लेकर
कि कहीं फिर अवतार होगा
फिर,
राम आएँगे……….
कृष्ण आएँगे……..
ईसा मसीह आँएगे…….
पैगम्बर आएँगे……..
बुद्ध आएँगे…….
या फिर इस पूर्णाशा में कि
कल्की अवतार तो अवश्य होगा ।
-शुभ्रता मिश्रा
You’ve got it in one. Conudl’t have put it better.