धारावाहिक मिट्टी ( भाग 20)- शैल अग्रवाल

river. jpgदिन ने रात की चादर अभी ओढ़ी नहीं थी पर उन सबके चेहरे का रंग दुख से सियाह था। पता नहीं परिस्थिति की अवशता थी या कर्मकाण्डों का अज्ञान …नीतू के अंतिम कार्य में कोई कसर न रह जाए-एक ख्याल ही था जो अब रह-रहकर परेशान कर रहा था पूरे परिवार को।

“ अब तो यहीं हमारा हेमकुण्ड है और यहीं पर हमारे काशी और हरिद्वार। पूरे मन से अपनाया था इस देश और मिट्टी को नीतू ने भी। सारे सुख-दुख यहीं पर तो जिए थे उसने! क्यों वापस ले जाना चाहते हो तुम इसे यहाँ से ? क्या बचा है अब उस पीछे छूटी दुनिया में, जहाँ इंतजार करने वाला तक कोई नहीं। अब तो इसकी आत्मा यहीं सुख पाएगी, अपनों के बीच।“

कह तो गई दिशा पर सबने देखा और महसूस किया कि दिशा का गला रुँध आया था और चेहरा आवेश से सुर्ख, तमतमा रहा था ।
क्या वाकई में अपनों से दूर होने की टीस कभी नहीं जाती-पूरी उम्र निकाल देने के बाद भी ! दिशा भी हैरान ही थी खुद पर।

कुलवंत जिसने अभीतक नीतू का घर और बच्चे संभाले थे , आज दिशा के दुख से उतनी ही विचलित थी। दिशा जानती थी कि ऐसा ही स्वभाव था उसका…पानी सा सरल और तरल। हरेक के सुख-दुख में पूर्णतः डूबी-भीगी ही नहीं, गिरते को हमेशा हाथ देने को उदध्रत। बड़ी जिम्मेदारी और लगन से जुड़ी हुई थी उनके साथ। और बड़ी बहन की तरह ही हर बात का ध्यान भी रख रही थी। नीतू के परिवार को अपनाया तो ऐसे कि उनके हर दुख-दर्द सोच –स्वभाव का पूरा ही ध्यान रखा। यदि उसके बस में होता तो वह बच्चों पर किसी दुख की छाया तक न पड़ने देती पर मां से विछोह के इस दुख को कैसे कम करे, नहीं जानता था उसका डूबता मन। एक बात तो तय थी और सभी महसूस कर रहे थे कि अपने जीते-जीते नीतू की कमी महसूस नहीं होने देगी वह उन्हें।

आडंबर और दिखावा तो तीनों सहेलियों के स्वभाव में मानो था ही नहीं।

‘अब तो यहाँ की सरकार ने भी इस एवन नदी पर अंतिम संस्कारों की अनुमति दे दी है …इसी को गंगा मां मानकर हाथ जोड़ लेंगे हम सब।‘ कुलवंत ने आंसू भीगी आँखों से पूछा, ‘ क्यों बच्चों ठीक है न, यह ?’…

वाक्य पूरा भी हो, इसके पहले ही सबने स्वीकृति में सिर हिला दिया । और दो दिन बाद ही सर्वसम्मति से इतवार का दिन भी निश्चित कर लिया गया।
….

वह इतवार का दिन विशेषतः खुला और साफ था और ठंड के बावजूद खुलकर धूप बिखरी हुई…
नीतू, जो अबतक तांबे के कलश में सिमटी चुपचाप मुफ्ती और काव्या के बीचोबीच नाव पर थी मिनटों में राख बनकर एवन नदी की लहरों पर तितर-बितर हो गई। काव्या और मुफ्ती ने मिलकर बेहद निर्वीकार भाव से निशब्द बहा दिया अंतिम अवशेषों को । सच कहा जाए तो घटनाओं का प्रवाह इतना तेज और अप्रत्याशित था कि अभी भी सदमे में ही तो थे वे ।
‘ नीतू तो कबका छोड़ गई है हमें। यह तो बस मिट्टी ही है जो वापस मिट्टी में जा बैठेगी ।‘ दिशा ने अपनी छलक आई आँखें पोंछी और बच्चों की तरफ देखती, होठों ही होठों में बुदबुदाई।
‘ हाँ, आंटी। पादरी ने भी तो कुछ ऐसा ही कहा था..डस्ट टु डस्ट।‘
मुफ्ती अपनी गहरी नीली आँखों से प्रश्न पूछता-सा बोला।
‘ हाँ, जब तुम्हारी नीतू आंटी को अंतिम विदा दी जा रही थी बिजली के दाह गृह ले जाने से पहले।‘
इसबार जवाब अब सोच में डूबी कुलवंत ने ही दिया था उन्हें।

हवा अब तेज हो चली थी और आकाश में उनके मन की तरह ही गहरे काले बादल घिर आए थे। सब जानते थे यह विछोह स्थायी था। नीतू न लौटने के लिए जा चुकी थी। उपस्थित हर व्यक्ति अब चुप था और एक दूसरे का दुख समझ रहा था।
सुख दुख में जुड़ा परिवार था पर…एक दूसरे को बेहद प्यार करने वाला।


नाव किनारे पर वापस लौट आई थी।

‘ कितने भी दुख दें, पर काम तो सब करने ही पड़ते हैं’- उतरते समय एक ठंडी आह भरी कुलवंत ने।
‘ बस माटी से माटी तक की ही तो यात्रा है यह, जिसे हम जीवन कहते हैं। ‘
अपने ही दुख में डूबी दिशा अब पूर्णतः दार्शनिक हो चली थी। यही एक तरीका जानती थी वह अपने और दूसरे के घावों पर मरहम लगाने का।

‘ हाँ बस माटी से माटी का सफर…वाकई में इसी के साथ तो जीते-मरते हैं हम। वैसे भी, सदा साथ कौन रह पाया ह यहाँ…कभी हम खुद साथ नहीं चल पाते तो कभी वक्त। वक्त की एक लहर ही मिटा देती है सब। पर जानते हो बच्चों, यह माटी रहती है साथ सदा , हर मौसम, हर तूफान को खुद में समेटे। …समंदर की तह में भी यही बैठी है और हिलोर खाती लहरों के संग भी यही बहती है। हमारे-तुम्हारे हर सुख-दुख के सारे भूगोल इतिहास…हर रहस्य यह मिट्टी ही तो छुपाए हुए है। यही सोना उगलती है और यही कांटे भी। सामर्थ हमारी अपनी है कि क्या चुनें, क्या रचें इस जीवन में! वैसे, सच्ची बात तो यह है कि हमें न तो लेना ही आया और ना ही देना ही कभी। हाँ, मनमाफिक ना मिले तो दूसरों से जलते-डाह भरते, लड़-झगड़ अवश्य लेते हैं। और तब भी मन ना भरा, तो खूंखार और निर्मम हो दूसरे का हक ही नहीं जीवन तक छीन सकते हैं कई तो।‘
सभी दिशा का मर्म समझ रहे थे । जानते थे कि यूँ दर्शन का मरहम लगाते ये घाव अभी भी बेहद हरे थे और मवाद से रिस रहे थे अंतस से।

दिशा अबतक पूर्णतः स्वयं में समाधिस्थ हो चली थी और अपनी ही रौ में खुद से ही बातें किए जा रही थी।

‘ आजकी यह सारी लड़ाई बस इसी स्वार्थ और अधिकार की ही तो रह गई है, वरना किस चीज की कमी है इस धरती पर!
पर देखो ना, यह मिट्टी फिर भी नहीं लड़ती कभी। ज्यादा तकलीफ हुई तो सीना तो फटता है इसका पर जुबान तब भी नहीं खोलती। हमारे हर आघात को सहती , बारबार रौंदे जाने पर भी हमारा भार सहती, हमें पल पल बस देती ही देती है यह। कितना कुछ दिया है इसने ।…कितना कुछ सीखना है इससे हमें । कोई भेदभाव नहीं। कोई राग-विराग नहीं। जीवित हों या मृत, सबको अपनाती है, अच्छे-बुरे हर इन्सान को । एक बात और जो मुझे श्रद्धानत कर देती है इसके आगे …सब सहते, सब जानते हुए भी यह मिट्टी कभी मिट्टी नहीं जनती। रचती है यह एक सुनहरा संसार, रंग और खुशबू से सजा… विविध फल-फूलों से भरा। ताकि हम जी सकें, पल सकें, पलपल का आनन्द ले सकें !’…
बच्चों ने देखा, चारो तरफ नदी-सी, नदी के संग बही जा रही थी अब नीतू और दिशा खुद उन लहरों में डूब उतरा रही थी। भारी मन से पलट कर देखा तो चन्द फूल अभी भी लहरों पर तैर रहे थे मानो जाते-जाते पलट-पलटकर नीतू अलविदा कह रही हो उनसे ।
ये भी अपनी जगह ढूँढ ही लेंगे- कहकर जैसे तैसे अलग किया दिशा ने तब खुदको उस दृश्य से । हाथ जोड़कर विदा ले ली नीतू से। इस दुख से तो उबरना ही होगा…इन बच्चों की खातिर। उनके सुरक्षित भविष्य की खातिर।
हिम्मत और समझ तो बच्चों ने भी कम नहीं पाई थी । लालच तो छू तक नहीं गया था उन्हें। लम्बी उम्र दे भगवान इन्हें, कुबेर का खजाना नहीं था उनके पास फिर भी अपने लिए कुछ भी बचाकर नहीं रखा था उन्होंने।

…मां का दिया सब कुछ दान कर दिया था अनाथ अभागों को। महल सा घर अब उनका नहीं, सामूहिक और सार्वजनिक ‘ अपना घर ’ था उन सबके लिए, जिनके सर से मां-बाप का साया उठ चुका हो या फिर जिनका कोई हितैषी या अभिभावक न हो इस दुनिया में ! कुलवंत ने भी ज्यादा नहीं तो गरम सूप किचन का तो 24 घंटे का वादा कर ही दिया था उनसे। ’
तो राजी कर ही लिया था उन्होंने अपनी कुलवंत आंटी को, देखभाल के लिए, सबकी माँ बनने के लिए। दिशा दुख के उस पल में भी मुस्कुराए बिना न रह सकी। वैसे भी उस घर के कोने-कोने से वाकिफ है कुलवंत। नीतू के अकेलेपन में सहेली रही है। किफायती और समझदार कुलवंत कुशल संचालक भी है। एक पैसा फालतू का बर्वाद नहीं होने देगी। उससे ज्यादा सहृदय महिला मिल ही नहीं सकती थी इन्हें इस जिम्मेदारी भरे कर्मठ पद के लिए। इसी बहाने उस दुखिया को भी अपना एक परिवार…जीने का बहाना मिल जाएगा। दिशा, गौरव और बच्चे तो हैं ही। साथ देंगे सभी इसका । वक्त जरूरत पर आते जाते भी रहेंगे। पूरा हाथ बंटायेंगे। सभी ने अपने मोबाइल नं ही नहीं, दो असिसटेंट के चयन की छूट भी दे दी है कुलवंत को। खर्च सब मिलजुलकर वहन करेंगे। बच्चों का यह निर्णय और चयन भी बेहद सोचा-समझा और जिम्मेदारी भरा लगा दिशा को। मन किया कि माथा चूम-चूमकर अनगिनित अशीषों से नवाज दे उन्हें। ऐसे संस्कारी बच्चे बड़े भाग्य से ही तो मिलते हैं। जरूर इसमें भी प्रभु की ही कोई सदेच्छा रही होगी।
तब बेहद भावपूर्ण दृष्टि ने उसने बच्चों को तौला और आश्चर्य की बात तो यह थी कि बच्चे इस दुख के कठिन पल में भी, छोटी सी उम्र के बावजूद भी गजब के संयत और शांत बैठे हुए थे। विचलन की एक रेखा तक नहीं थी माथे और ओठों पर, मानो पत्थर के हो चुके थे वे। दुख भी तो एक शक्ति ही देता है, सहने की पुन्रनिर्माण की। दिशा ने सोचा-एक सेफ्टी मैकेनिज्म है यह भी हम सबके अन्दर निपटने और खुद को सुलझाने के लिए। एक फिक्र फिर भी थी जो अब उसकी हर सोच पर हाबी हुई जा रही थी- ‘ कौन ढाढस देगा इस 13 वर्षीय किशोर को, जो सालभर के अंदर ही दोबारा अनाथ हुआ है ?
कम यातना तो नीतू ने भी नहीं सही होगी अपने अंतिम पलों में! क्या कुछ लोगों का जन्म सिर्फ दुख सहने के लिए ही होता है। उनकी हर खुशी किरकिरी और आधी-अधूरी ही क्यों रहती है! पर अब तो उसे अपने संरक्षण में खुश ही रखना भगवान या दूसरा जन्म दो तो एक खुशहाल जीवन का।…
एकबार फिर आखें तो आभार में आकाश की तरफ उठी थीं पर गीली मिट्टी-सा भारी मन गहरे कहीं अनजानी गर्तों में धँसा जा रहा था, जहाँ उजाले की कुछ किरणें तो थीं पर साथ में अंधेरा भी घना और असह्य ही था। घटनाओं का यह आकस्मिक मोड़ और परिणाम सभी के लिए दुखदायी और विचलित करने वाला था। उबरना चाहती थी वह असह्य स्मृति से। पर अभी भी यादों की कई-कई उदास भंवरें बांहें फैला-फैलाकर गले लगा लेतीं उसे। नीतू का जीवन वृत्त तो कभी साल भर पहले का उदास, अनाथ मुफ्ती का चेहरा आँखों के आगे घूमने लग जाता। हद तो तब हुई जब राजेश का स्याह पुता चेहरा और अम्मा-बाबा की झलकती आंखें , भारत छोड़ना …हर कष्टदायी स्मृति आंखों के आगे आकर खड़ी हो गईं। गले मिलकर रोने लगीं। पूरी तरह से घिर गई थी दिशा अपने ही अवसाद में। पता नहीं थकान थी या भावों का आवेग गौरव भी बेहद भावुक हुए जा रहे थे…इतने कि विचारों को शब्दों में पिरोएँ तो पूरी कविता ही बन जाती- दुनिया ही नहीं , आदमी की भी तो फिदरत् है यह ‘ मिट्टी’। पास जाओ, माथे से लगाओ तो आँखों में किरके वरना पैरों से लिभड़े, और पैरों से रूंदो तो बिबाइयाँ तक फाड़ डाले। इस मिट्टी में रचने-बसने का यह हुनर कहीं और कभी भी आसान नहीं, चाहे वह देश हो या परदेश … फिर इंगलैंड की मिट्टी भी तो मिट्टी ही है आखिर, अपना स्वभाव कैसे बदलती ! सामंजस्य हम ही करते हैं, यह नहीं। नीतू तो गई, तुम खुद को अब संभालो, दिशा।
आँसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे और सबके सामने यूँ बिखरना आदत नहीं थी। हजार पोंछने की कोशिशों के बावजूद आंखों से बहती अविरल आँसुओं की धार को सबने ही देखा।
इसके पहले कि अपने ही सोच के भंवर में पूरी तरह से डूब जाए दिशा, हंसते-मुस्काते मुफ्ती और काव्या ने बांहों में जकड़ लिया उसे ।
‘ इतनी उदासी ठीक नहीं आंटी, हम हैं न आपके पास आपकी सहेली का और आपका प्यारा भविष्य।‘
पूरी तरह से चौंकाते हुए, मुफ्ती और काव्या अगल-बगल में आ बैठे थे और वह कैसे भी मुस्कुराए इस प्रयास में तरह-तरह की प्यारी-प्यारी बातें करने लगे।
‘ और हम भी तो हैं, मम !!’…हँसकर अक्षत और रोली ने भी वहीं सामने से बैठे-बैठे ही हाथ हिलाया। फिर माँ की तरफ से कोई जवाब न मिलता देख, दोनों उठे और गालों पर प्यार करते बाँहों में भर लिया , मानो पाँच साल की बच्ची हो दिशा।
‘ वैसे तो मन बहलाने में मैं भी उस्ताद हूँ आन्टी। जब कहोगी, किशोर मुकेश और रफी के गीत गिटार पर सुना दूंगा आपको। बस एक आवाज देना और बन्दा हाजिर। ‘
इसबार यह चहकती आवाज रजत की थी। रोजलिन जो अबतक चुपचाप बैठी थी, उठकर सबको थर्मस से गरमागरम चाय परोसने लगी, जिसकी सभी को बेहद जरूरत आन पड़ी थी अब उस ठँडे अवसाद भरे मौसम में।
‘ कितना हमदर्द स्वभाव है …संवेदनशील और दूरंदेशी। कोई भी परिस्थिति हो, हमेशा दूसरों के बारे में ही पहले सोचेगी, हरेक की जरूरत का ध्यान रखेगी। इससे अच्छी लड़की और कौन मिलेगी अक्षत को।‘
कल का आनेवाला दिन भले ही कितना भी अकेला कर दे, दिशा आश्वस्त थी उनके सुरक्षित भविष्य को लेकर और मन-ही-मन आशीर्वाद पर आशीर्वाद दिये जा रही थी ।
अचानक सोच की यह नई महक और चहक उसके अंदर नव जीवन का संचार करने लगी। सहेली से सदा के लिए बिछुड़ने का दुख जो अभी तक मन पर शिला-सा रखा था, धीरे-धीरे पिघलता जा रहा था। उस एक उष्मामय सोच के साथ ही आजाद होकर हवा में तैरने लगा था।
यूँ ही यादों और संकल्पों की बूंदाबांदी में भीगते-भीगते नाव भी उस कठिन और अंतिम विदा के बाद किनारे पर लगी-लगी उसकी भाव-तरंगों पर हिलोर पर हिलोर लिए जा रही थी- मानो कंधे धपधपा कर कह रही हो-उठो, संभलो, दिशा। ज्यादा वक्त नहीं देती जिन्दगी।
तुरंत ही उदासी झाड़कर उठ खड़ी हुई दिशा। यही नहीं बच्चों को भी हाथ का सहारा देकर खुद ही नीचे उतारा उसने। पर तुरंत ही, जाने किस भावावेश में कांपती, वहीं घुटनों के बल पुनः बैठ भी गई। बच्चों के साथ-साथ गौरव ने भी देखा यह दृश्य-
प्रार्थना में दोनों हाथ उठे हुए थे और आँखें पूरी तरह से बन्द थीं। फिर सबको चौंकाते हुए पास पड़ी मिट्टी को माथे से लगा लिया उसने। इसके पहले कि कोई कुछ पूछे, खुद ही कुछ मंत्रोच्चार-सा भी करने लगी –
‘धरती माता तू बड़ी तुझ से बड़ा न कोय। उठत सबेरे पग धरूँ, साधे रहिओ मोय।
तेरा तुझको अर्पण करके जा रही हूँ , माँ। पर इन बच्चों का ध्यान रखना। अपनी गोद में फलने-फूलने देना इन्हें। ‘
स्तब्ध थे सब दिशा के इस अप्रत्याशित व्यवहार से । परन्तु दिशा को तो आज बहुत कुछ कहना था, बहुत कुछ समझाना था बच्चों को। पता नहीं जिन्दगी कल यह मौका दे भी, या नहीं,
‘जानते हो बच्चों, यह धरती ही है, जो साधती है। माँ की तरह पालती-पोसती है। इसका साथ कभी मत छोड़ना। उपकार मत भूलना। माँ रोज सुबह जमीन पर पैर रखते ही, यही प्रार्थना किया करती थी। नित धरती की रज को माथे लगाकर प्रणाम करती थी। गांव से थी न! गांव के लोग मिट्टी से जुड़े लोग होते हैं और जो मिट्टी से जुड़े होते हैं, यह मिट्टी भी उनका साथ नहीं छोड़ती। तब मेरी समझ में नहीं आती थी उसकी ये बातें, पर अब आती है। यही तो है हमारे असली संस्कार, जो पाले पोसे, आश्रय दे, भरण-पोषण करे, उसका आदर करो, उपकार मानो। वाकई में कैसे उऋण हो सकते हैं हम, इस धरती और माँ के प्यार-उपकार से !‘
हर शब्द सोच के सागर से मथकर आ रहा था, मानो जीवन का निचोड़ दे रही थी दिशा बच्चों को। सभी ने महसूस किया कि समाधिस्थ उस एक पल में दिशा की आवाज बेहद बदली, सधी हुई और बेहद गंभीर थी, मानो शब्द नहीं, हवा में गूंजती मंदिर की घंटियाँ हों, गुरु ग्रंथ साहब के बोल हों, मस्जिद के गुंबद से आती सुबह की अजान हो।
देखते-देखते अंधेरा गहराने लगा और बच्चे जो अभी तक कृतज्ञ, माँ का हाथ पकड़े-पकड़े, घेरा बनाकर वहीं बैठे थे, उसी गीली और नम जमीन पर, उठ खड़े हुए, ‘ चलो माँ. अब घर चलते हैं। बाकी बातें घर पर।उम्र पड़ी है अपने पास… ‘
भावावेग और घटनाओं के चक्रव्यूह में फंसी दिशा वाकई में पूरी तरह से थक चुकी थी। सभी ने महसूस किया। बारिश भी तेज हो चली थी, तब ‘ हाँ माँ!’ कहते चारो बच्चों ने मां को सहारा देकर उठा लिया। और तब ‘ हाँ। ’ कहकर, सहेली को मन-ही-मन अंतिम प्रणाम करती, एक वादा-सा करती दिशा भी चुपचाप सिर झुकाए बच्चों के साथ-साथ ही चलने लगी।
अभी चार कदम ही चले होंगे कि मुफ्ती पलटकर बोला- ‘ मिट्टी से खेल खिलौने बनते हैं , घर-घरौंदे बनाए जाते हैं, जो एक लात मारकर कोई भी तोड़ सकता है। हवा का एक झोका बिखेर देता है इन्हें…एक लहर सब कुछ बहा ले जाती है। इसी को सबकुछ मान लेना कुछ ज्यादा नहीं है क्या, माँ ?…जी भरकर सपने बोओ , उगाओ , प्रार्थना है कि ये फलें फूलें भी पर मन की गीली मिट्टी में नहीं , यथार्थ की जमीन पर , एक दृढ़ योजना और पक्की तैयारी के साथ।‘
अच्छी लगी उसे यथार्थ के आँवे में पकी नई पीढ़ी की सोच…व्यावहारिक और सफल। जिन्हें वह छोटा और नासमझ समझती थी . वे बच्चे अब वाकई में बड़े और समझदार हो गए थे।.. अब वह इनके सामने बच्ची-सी मचल भी सकती है और जरूरत पड़े तो अनुसरण भी कर सकती है इनका। कोरी भावुकता से जीवन भला कब चला है! एक नए उत्साह और अधिकार से पलटकर बोली- ‘मानो तो भगवान वरना पत्थर ही तो है सब मुफ्ती। और फिर ठीक से सोचो तो यही तो हैं हम –मिट्टी के पुतले…कमजोर और वक्त के पूर्णतः अधीन , परन्तु अपने-अपने विश्वास और संसार में बेटोक जीते । बस एक आस्था की ही तो बात रह जाती है सारी।‘
‘और मुझे आप पर बहुत आस्था है।‘
मुफ्ती कुछ बोला तो नहीं था पर उसकी चमत्कृत आंखों ने मन का सारा प्यार उड़ेल दिया दिशा पर।
कितनी आसानी से कितना कुछ सिखा देती है यह दिशा आन्टी। सुलझा देती है मन की गूढ़ से गूढ़ गुत्थी को। सौभाग्यशाली है वह कि उसे ऐसे समझदार परिवार मिला।
दिशा ने भी मानो बिना कहे ही उसका एक-एक मनोभाव पढ़ लिया। हर संशय को दूर करती, आगे बढ़ी और प्यार से मुफ्ती को गले लगा लिया, मानो आज के इस एक ही दिन में बीच में खड़ी हर संशय और दूरी की असह्य दीवार को गिरा देगी।
‘यही तो वास्तविक अर्थ है परिवार का –सहारा और एक दूसरे की देख-रेख व संभाल। अभी भी बहुत कुछ है जीवन में जीने को, रचने बसने को, विशेषतः अब, जब हम एक-दूसरे के दोस्त और अभिभावक दोनों ही बन सकते हैं।‘

सबने जाना और महसूस किया कि माँ सिर्फ उनसे ही नहीं, आज खुद से भी बातें किए जा रही थी।

सहारे की उन्हे भी उतनी ही जरूरत थी। सबने मिलकर बाँहों का एक अभेध्य किला बना लिया था अब दिशा के चारो तरफ। सभी शामिल थे उस आत्मीय आलिंगन में। अवर्चनीय शान्ति और ठहराव का पल था वह परिवार के लिए। किसी ने सच ही कहा है दुख भी तो वाकई में एक तरह की शक्ति ही है। एक-दूसरे से जोड़ता है यह भी । बहते आंसू पोंछ लिए सबने । और तब घर लौटती दिशा को लगा, जिन्दगी हमेशा हर हाल में खूबसूरत है बस जीना आना चाहिए ।

आकाश से बूंदें नहीं, अब फूल झर रहे थे जिन्हें वह हथेली में भर-भरकर कभी होठों तो कभी माथे से लगा रही थी। घिर आई गहरी काली बदली तो फिलहाल ज्यों-कि-त्यों ही थी, पर आसपास की महकती हवा मानो खुद-बखुद जीवन की लय पर जाने क्या-क्या नया पुराना गुनगुना रही थी और पूरे परिवार को नए संकल्पों से भर रही थी। …

(समाप्त)

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