माह के कविः अमरेन्द्र मिश्रा/ लेखनी-जुलाई-अगस्त 17

किताब में कहानी

टहटहाती दुपहरी में टिटहरी ने क्या कहा
कि कविताएं लिखी गईँ बंद किताबों में।

किताबें कभी खत्म नहीं होतीं, अगले अध्याय तक
चलती रहती हैं कथाएँ जो आती हैं दूर देश से चलकर

टिटहरी अभी अभी चली गयी डाल छोड़कर
गौरैया आ गयी उसकी जगह और लगी कुछ गाने।

किताब का एक और अध्याय जुड़ा
किताबें कभी खत्म नहीं होतीं, न होतीं खत्म कथाएँ।

टिटहरी गौरैया पता नहीं क्या कहतीं अपनी भाषा में
लिखने वाले बताएँ वो रोती हैं या हंसती हैं?

गुलमोहर

ठीक ऐसे ही बना रहा गुलमोहर
शीतल छांह छींटते, हिलते-डुलते नये पत्ते
फरफराती नन्ही कोमल पत्तियां
हवा संग संवाद बनातीं।

ठीक ऐसा ही दिखा यह उस रोज भी
बदहवाश, वहशी भीड़ जब उमड़ी थी यहाँ
ऐसी ही शीतल छांह देता सोचता
यह आग किसने लगाई है?

पहाड़ों को किसने किया खल्वाट
नदियां क्यों बनी बांझ
क्यों हुआ पक्षियों का पलायन

गौरैया क्यों रहती उदास?

ुगुलमोहर सोचता है-

धरती जब कांपती है, वन्य प्रांतर रोता है
होती हैं उदास जब फसलें
खेत बनते वीरानों के प्रहरी
सन्नाटा बुनते किसान।

करते हैं शोध भूगर्भ शास्त्री, खोजते कारण
जलजले का, कांपती धरती का
देखी होगी उन्होंने गुलमोहर की छांह
मिले होंगे इन जागते पहरुओं से।

इंतजार में तारीख

चल पडे जब सफर में न था वो इतना मुश्किल
मुश्किलें तब आई थीं
जब एक तनहा इंतजार ठहरा उन आंखों में
एक मुकम्मल तारीख के लिए आई ही नहीं, जो छूट गई
दिन के किनारे।

इंतजार शयद उसने भी किया था ठहरा था जो खुली आँखों में…

आंखें तकती रहीं तुम्हारा रास्ता जो अनजान सा दिखता
प्रतीक्षा टिकी तारीख पर जो आई ही नहीं
खड़ी रही एकांत दिन के बीतने तक
साथ हो ली मेरे एक पूरी उम्र तक।

खाली खत

कुछ कहा नहीं हमने आपस में
बस देखा किये एक दूसरे को

इतना सा काम किया उन यादगार पलों में
इस बीच यादें बनीं बीच, हमारे तुम्हारे

समय का हस्ताक्षार तीस सल का है
पर यादें हैं आज भी ताजा।

उस दिन मिलीं तुम तो सूरज कंधे पर था
शाम को तुमने छुपया था पीली चुनरी तले

वद किया था
खत लिखने का
जैसे लिखती थीं तुम वासंती निशा में

और रात भीगती थी चांदनी में…

आज मिला तुम्हारा वह खत
वह एक कोरा कागज था, ताजा सफेद

सच है

इतने दिनों बद कुछ लिखा नहीं जाता
इतने दिनों बाद कुछ कहा नहीं जाता।

कुछ कहा नहीं हमने आपस में
बस देखा किये एक दूसरे को

बुद्ध

बुद्ध तुमने कहा था
जीवन में दुख है।

बताना जरा

बोधिवृक्ष कहाँ? ज्ञन के लिए
ज्ञान कहाँ, विज्ञान के लिए।

किताबें ढूँढ़ती हैं, पढ़े लिखे को
पर उन्हें कुछ समझ नहीं आता

वो जानते ही नहीं, दुःख में सुख
सुख में दुःख और दोनों का मधुर मिलन

शरणागत होना चाहते, कहते समवेत
बुद्धं शरणम् गच्छमि !!

पिता पहली बार दिल्ली आ रहे हैं

उनके आने के पहले वह चिंतित था
वे नहीं आए तो उदास हो आयाा
शयद तबियत ज्यादा खराब हो आई हो
या कि मौसम खुश्क हो हमेशा कि तरह
या बरगद का पेड़ गिरने-गिरने को हो अब-तब में
या कोई जरूरी काम आ गया हो सामने।

कल दंगा हुआ था इस शहर में
कल ही पिता आनेवाले थे
उसके सामने ज का अखबार है
खबर बुरी है कि शहर मर चुका है
और मरने मारने से अधिक लोग लापता हैं।

लोग लापत हो रहे हैं वर्षों से
जब से हम मशीन से बातें करने लगे हैं
उन लोगों के बारे कोई नहीं सोचता
जो अनाायास निःस्वार्थ दुआएँ देते थे हमें
जो साथ चलते थे हमारे अपने पैरों पर पड़े छाले के बावजूद।
ओ सब कहाँ गए जो हमारे लिए समंदर की
हाहाकार करती लहरों से शांति और समिधा लाया करते थे?
ोजो हमें वक्त के किनारे रोने से रोकते हुए अट्टाहास किया करते थे और जिन्दगी को भरपूर
प्यार करते थे!!!
लापता लोगों की लम्बी फेहरिस्त में पिता सबसे ऊपर होंगे वह जानता है।
पिता लापता हैं
पर वो उसके पास हैं, वह जानता है।

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