मंथनः ये किताबें-शैल अग्रवाल/लेखनी-जुलाई-अगस्त 17

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किताबों का भी एक रोचक और मोहक संसार है जो आजीवन साथ चलता है कभी एक याद बनकर तो कभी प्रेरणा बनकर। किताबों से यह रोमांस कब शुरु हुआ, याद नहीं। बचपन से ही शायद…हमेशा से ही हाथों में कोई किताब आते ही खुद से बेखबर हो जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी बशर्ते किताब का विषय रुचि अनुसार हो। चलते-चलते भी पढ़ना। सोते वक्त भी अक्सर ही बिस्तर पर एकाध मैगजीन या किताब पड़ी रह जाना आम बात थी। भाई मजाक करते – पहली लड़की है जो बन्द आँखों से भी पढ़ सकती है।
संयुक्त परिवार था । माँ बाप की अकेली सन्तान होकर भी कभी अकेलापन महसूस नहीं हुआ। माँ, बाबूजी, बाबा, दादी , ताऊ,ताई, चाचा, चाची , भाई, बहन , नौकर चाकर सभी थे घर में पर मैं अपने बाबूजी की ही छाया थी, शकल सूरत आदत हर चीज में। अधिकांश समय उन्ही के पास और उन्ही के साथ बीतता।
बाबूजी को हमेशा किताबों से घिरे पाया। उनकी अपनी एक अल्मारी थी जो कई अनमोल किताबों से भरी हुई थी। गांधी जी, विवेकानंद और नेहरू जी के साथ-साथ बृंदावन लाल वर्मा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, रांगेय राघव, इस्मत चुगताई , सआदत हसन मंटो आदि कई लेखकों की किताबें थीं। खाते वक्त भी कुछ पढ़ते ही रहते थे बाबूजी। तीन चार हिन्दी अंग्रेजी के दैनिक अखबार और 7 -8 मासिक पत्रिकाएँ न सिर्फ बाबूजी खरीदते थे परन्तु उनका एक एक कॉलम एक एक शब्द पढ़ते भी थे। माया , मनोहर कहानियाँ और रीडर्स डाइजेस्ट, ईव्स वीकली व फिल्म फेयर के साथ सारिका और भारती…चयन बेहद रोचक और विविध था – बिल्कुल उनके रोचक व गंभीर व्यक्तित्व की तरह ही। जब से होश संभाला हर बात में बाबूजी की नकल करती थी उनकी इस आदत से भी कैसे बच पाती। वही तो मेरे आदर्श थे। याद है, बहुत छोटी थी, तीन चार साल की, परन्तु जब तक बाबूजी सोते नहीं थे, मैं भी किताबों को उलटा सीधा पकड़े पन्ने पलटती रहती थी बिल्कुल उन्हीकी तरह लेटे लेटे और पैर पर पैर रखकर, चाहे पढ़ना आए या नहीं। यूँ घंटों तस्बीरें और बाबूजी को देखती कब सो जाती, पता ही नहीं चलता। कई बार तो वे खुद उठकर उन उलटी पकड़ी किताबों को सीधा करते और प्यार से सिर सहलाते हुए कहते…पगली, ऐसे नहीं ऐसे।

फिर जब पांच छह साल की उम्र में पढ़ना आ गया तो धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका और भारती आदि के साथ मुन्ना मुन्नी, पराग, चन्दामामा और बालभारती भी जोड़ दिए बाबूजी ने। शहादरा में चाचा किशोर गर्ग रहते थे जिन्होंने विश्व के बीस बाल उपन्यासों का हिन्दी में न सिर्फ अनुवाद किया था अपितु उन्हें अपने ही रानी प्रकाशन से छापा भी था। जिसके लिए उन्हें सन 55 या 56 में भारत और रूस दोनों ही देशों से पुरस्कार भी मिला था । चाचा ने वे सारी किताबें मुझे भी दीं और बचपन उन बाल उपन्यासों के साथ बड़ा रोचक निकला, मेरे उस पढ़ने के शौक और सोच में नए -नए रंग भरे इन किताबों ने। हाइडी और बाम्बी की कहानी तो बड़े होने तक याद रही। बाबूजी और चाचा में अक्सर किताबों पर और देश की राजनीति पर लम्बी-लम्बी और गंभीर बहसें होती थीं जिन्हें तब भी मैं बड़ी तन्मयता से सुनती। देश-दुनिया में क्या चल रहा है यह जानने और समझने की उत्सुकता तभी से जगी होगी, शायद। छोटी उम्र से ही वयस्क पत्रिकाएँ भी पढ़ीं पर कहीं कुछ अटपटा या अभद्र नहीं लगा। धर्मयुग, सारिका और भारती का इंतजार करने लगी थी। विशेषतः धर्मयुग में शिवानी के धारावाहिकों का। धर्मवीर भारती की रचनाओं का। बारह वर्ष की उम्र में गुनाहों का देवता पढ़ने के बाद ऐसा लगता कि इनसे तो मिलना ही होगा, कुछ इतना पसंद आया था वह उपन्यास। सच कहूँ तो शरद, बंकिम बाबू और धर्मवीर भारती ने ही उपन्यासों की दुनिया से पहला और असली परिचय करवाया था। कविता की दुनिया में ले गए थे जयशंकर प्रसाद, कबीर और टैगोर। आंसू की एक एक पंक्ति पढ़ती और सोचती कोई इतना अच्छा कैसे लिख सकता है कोई, कबीर को पढ़ती तो चमत्कृत हो जाती कैसे यूँ गागर में सागर भर लेते हैं वे और टैगोर का व्यक्तित्व तो इतना अच्छा लगा कि बाबूजी के बाद दूसरे व्यक्ति थे जिनके जैसा बनना चाहती थी उस नादान उम्र में। कभी शांति निकेतन जैसी संस्था बनाने की सोचती तो कभी गीतांजलि जैसी मशहूर किताब लिखने की। तस्बीरें बनाना तो थोड़ा बहुत बचपन से ही आता ही था। अब सोचती हूँ मां निश्चय ही दुखी हो जाया करती होंगी हम बाप बेटी द्वय से जिनके आगे कुछ भी रख दो बस मिट्टी के माधो की तरह अपनी किताब या अखबार में डूबे ही खा-पीकर उठ जाया करते थे, उनकी या थाली की तरफ न ढंग से देखते, ना ही ज्यादा कुछ बातें ही करते थे हम दोनों। पर तब इतना सबकुछ सोचने या समझने की फुरसत ही कहाँ थी हमारे पास।
यूँ तो फेमिना और फिल्म फेयर को भी खूब चाव से पढ़ा परन्तु डुबोया कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी, राधाकृष्णन या फिर अमृता प्रीतम और विनोबा भावे के आलेखों ने ही। ये सब वो लेखक और कवि थे जिन्होंने किशोर सोच को गढ़ा और वयस्क किया। बाद में इनमें नीरज, शिवमंगल सिंह सुमन और राम अवतार त्यागी भी जुड़ गए। अब मुझमें इतनी रुचि और समझ आ गई थी कि लेखक, कवि और विचारक नाम से ढूंढ़कर पढ़ने लगी थी। बाबूजी ने कभी नहीं रोका क्या पढ़ रही हूँ और ना ही मेरी पसंद पर अपनी पसंद ही लादने की कोशिश ही की । लादी भी तो ऐसे समझाकर मानो वह उनकी नहीं मेरी अपनी ही पसंद हो। गांधी हों या विवेकानंद हरेक ने गीता को अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण किताब लिखा। पर मेरे लिए तो गीता सिर्फ वह एक किताब थी जिसे मां रोज सुबह नहा धोकर रामायण के साथ पढ़ती थीं और बाद में उसके अंदर मेरे इंगलैंड से भेजे पत्र और फोटो आदि भी रखती थीं ताकि घंटों देख सकें। रामायण भी अरण्यकांड तक आते आते बोझिल लगने लगती थी। ये किताबें पढ़ीं पर बड़े होकर उम्र के अब इस दौर में …आनंद के लिए नहीं , जिज्ञासा को शांत करने के लिए , भारतीय दर्शन को समझने के लिए । गीता के तो तीन-तीन भावार्थ पढ़े राधाकृष्णन् का दार्शनिक , विनोवा भावे का व्यवहीरिक और दयानंद सरस्वती का सामाजिक। तीनों ने ही गीता की अपनी तरह से अलग अलग समझ दी।
छोटी उम्र से ही हर विषय और हर दुविधा पर बाबूजी के साथ बहस और विचार विमर्श होता था। अक्सर वे गीता पढ़ने और समझने को कहते पर माला तो कर में फिरे जीभ फिरे मुख मांहि आदि कहकर इतना वह माँ का मजाक बना चुके थे कि गीता और रामायण पढ़ना पोंगापंथी लगता , चाहकर भी हिम्मत ही न होती। वैसे भी वह कर्म करो और फल की इच्छा न करो समझने का वक्त नहीं था। थोड़ी और बड़ी हुई तो बाबूजी ने जो पसंद आए उसपर दो चार लाइनें लिखने की सलाह दी। और इस तरह से एक बेहद सहज और जीवन पर्यंन्त शौक व आदत की शुरुवात हुई। बड़े चाव से पढ़ते थे बाबूजी बेटी का हर उलटा सीधा लिखा। हमेशा एक प्यारी सी मुस्कुराहट और मोहक सपने दिखते थे मुझे तब बाबूजी की आंखों में। सहपाठिनों के साथ साथ शिक्षकों ने भी इस अपरिपक्व शौक को खूब सराहा और अजेय आत्मविश्वास से भरा। यूँ तो सहपाठिनों का भी हाथ कम नहीं था इसमें। बिना कहीं छपे ही कहानियाँ एक सहेली से दूसरे सहेली तक और आगे-पीछे की कक्षाओं तक पहुंचने और सराही जाने लगी थीं । लड़कियाँ ही नहीं शिक्षकों ने भी अपनी अंतरंग बातें बतानी शुरु कर दीं इस उम्मीद में कि शायद मैं कभी उनपर भी लिखूँ। सबसे अधिक आश्चर्य तो तब हुआ जब धीर-गंभीर संस्कृत की टीचर शीला सहस्त्रबुद्धे ने यह बात बड़ी गंभीरता से और खुलकर कही। अब उन सबकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना मेरी नियति बन गया और मुझे भी शब्दों की नावों में भावों को बहाना उतना ही अच्छा लगने लगा जितना कि उन्हें औरों की किताबों में पढ़ना।

थोड़ी और बड़े होते ही मैग्जीन कम पड़ने लगीं या पूरी तरह से संतुष्ट नहीं कर पा रही थीं और तब स्कूल की लाइब्रेरी से हर दूसरे तीसरे दिन नई-नई किताबें लाने लगी। धीरे धीरे पसंद का और विस्तार हुआ। कौतुक और जिज्ञासा दोनों ही बढ़ रही थी। पृथ्वी ही नहीं, चांद तारे और उससे भी परे की खबरें चाहिए थीं अब मुझे । नतीजा यह हुआ कि ज्योतिष, हस्तरेखा के साथ-साथ दर्शन और मनोविज्ञान ही नही, परामनोविज्ञान और मैटाफिजिक्स, अरस्तू और प्लूटो भी इस लिस्ट में आ जुड़े । मृत्यु और उसके बाद क्या? प्रेम के बाद मृत्यु का काला रहस्य सर्वाधिक रोचक और रहस्यमय विषय लगने लगा तब। भ़तहरि और कालीदास को पढ़ती बाबा को संस्कृत के गीता के श्लोक सुनाती और उनसे मणिकर्णिका घाट पर प्रचलित कर्णसिद्धी साधु और अघोरियों के किस्सों को सुनती। कचौड़ी गली के हलवाईयों के किस्से जिनके यहाँ रात के दो से चार के बीच मिठाई की शौकीन आत्माएँ आती हैं और जिनसे वे आज भी पैसे नहीं लेते, चुपचाप जो चाहते हैं खिला देते हैं। विश्वास न होने पर भी आज भी हाथ पैर ठंडे कर देती हैं ये कहानियाँ। उनके एक परिचित का तो दावा था कि वो जब चाहें वैष्णव देवी के दरवार से प्रसाद और माला मंगवा सकते हैं।

बनारस के इस रहस्यमय वातावरण में बड़े होते हुए चेखव तौल्सतौय, कीट्स, हार्डी, हेमिंग्वे और ह्यूगो कब पसंद की लिस्ट में आ गए पता ही नहीं चला। अमृता प्रीतम, प्रसाद, कबीर, इस्मत चुगताई , गालिब, मोयेन, कीट्स , जेम्स जौएस… लिस्ट फैलती ही गई और मैं खुद को डुबोती ही चली गई इस समंदर में। शुरु के वे बीस बर्ष सिर्फ पढ़ने और सोखने के लिए ही बने थे मानो, जिज्ञासाएँ शान्त करने के थे वे दिन। शायद पूर्वाभास ही था कि इसके आगे जिन्दगी यह मौके दोबारा नहीं देने वाली थी। सबकुछ बदल जाएगा और यह शौक यह प्यास पूरा करने का वक्त ही नहीं रहेगा मेरे पास। बीस की होते-होते ही शादी हो गई और बनारस ही नहीं , भारत को भी छोड़कर जाना पड़ा सात समन्दर दूर। ब्रिटेन में जिन्दगी निकली। जिम्मेदारियों ने फिर न तो कभी इतना वक्त ही दिया और ना ही वे सहूलियतें। ब्रिटेन के जिन जिन शहरों में शुरु के दस साल रहे, वहाँ हिन्दी किताबें तो दूर…हिन्दुस्तान की खबर तक नहीं मिलती थी। वास्तविक जिन्दगी की इस मातृत्व की पाठशाला में एकबार फिरसे बच्चों के साथ हम abcd और नर्सरी राइम सीख रहे थे।…अगले तीस साल बच्चों में ऐसी रमी कि मैं कहीं थी ही नहीं, बस बच्चे और पति ही थे उनकी ही जरूरतें थीं, उनके ही शौक थे।

हाँ, जीवन के इस उत्तरार्ध में अब एकबार फिर लेखनी के बहाने ही सही किताबों का साथ है और कलम हाथ में है।

पहली किताब प्रौपर जिल्द में बंधी आठवीं सालगिरह पर मिली थी मुझे । बाबूजी ने किताब दी थी तोहफे में खिलौने नहीं। निश्चय ही बहुत बड़ा और विशेष महसूस किया था तब। किताब का नाम था-पिता के पत्र पुत्री के नाम-जवाहर लाल नेहरू द्वारा लिखी हुई किताब थी वह अपनी बेटी इंदिरा के लिए। बाबूजी ने यह किताब ही क्यों जानने के लिए तुरंत ही पढ़ने भी बैठ गई। दो चार पन्ने पढ़े -दस बीस ऐसे ही उलट दिए और किताब एक किनारे रख दी। आठ साल की बच्ची के लिए जेल से लिखे गए वे पत्र कोई ज्यादा माने नहीं रखते थे। उसके लायक कुछ भी समझ में नहीं आया उसे। फिर दोबारा तिबारा भी बहुत कोशिश की पर आज तक पूरी नहीं पढ़ी वह किताब। यह बीमारी आज भी ज्यों की त्यों कायम है। जो किताब पहली बार में ही पूरी तरह से नहीं पढ़़ पाई वह हमेशा वैसे ही आधी-अधूरी ही रही।

लिखने पढ़ने के इस शौक को हवा और दिशा दी मोहिनी दी और वर्मा जी ने। एक हिन्दी की शिक्षिका थीं और दूसरे अंग्रेजी के , वहीं क्वीन्स कॉलेज में प्रिंसिपल। दोनों को ही बहुत अपेक्षाएँ थीं अपनी इस शिष्या से। दोनों का ही अपरिमित स्नेह भी मिला। मोहिनी दी ने आठवीं नवमी और दसवीं तीनों कक्षाओं की मेरी हिन्दी की कौपियाँ मांगकर अपने पास रख ली थीं यह कहकर कि आगे बच्चों को पढ़ाने के काम आएगी पर मुझे लगा कि वह मुझे ही अपने पास रख रही हैं, दूर नहीं कर सकतीं। वर्मा जी पहले व्यक्ति होते जो हर रिजल्ट के बाद सर्वप्रथम बधाई देते मेरी मनपसंद मिठाई मलाईचॉप के साथ। आज भी याद है जब वर्मा जी दस चुनिंदा अंग्रेजी के नौवेल लेकर घर आए थे इंटर की परीक्षा के बाद के ग्रीष्मावकाश में और मुझसे सभी को पढ़ने को कहा था उन्होंने। फिर पसंद के हिसाब से क्रमानुसार एक फेहरिस्त भी बनाने को कहा था। मैंने भी सभी पढ़े या पढ़ने की कोशिश की। कुछका एक-एक शब्द और कुछ वैसे ही बीच बीच में से सकई-कई पन्ने पलटकर।
मास्साब को लगा था 16 वर्ष की उम्र में मुझे वूदरिंग हाइट्स या जेन आयर, या फिर प्राइड एंड प्रेज्यूडिस या एमा वगैरह सर्वाधिक पसंद आएंगे पर जब मेरी लिस्ट में ला मिजरैबल सबसे ऊपर था औरफिर एना कैरेनिना, फौर हूम द बेल टौल्स फिर वुडलैंडर्स । टैस या फार फ्रौम द मैडनिंग क्राउड भी पूरे पढ़े थे पर वुड लैंडर्स में एक अलग ही खिंचाव पाया। यूँ तो एरिक शीगल के मैन वूमेन एण्ड चाइल्ड ने भी बांधा था कभी। पर उस वक्त मेरी फेहरिस्त ने मास्साब को निश्चित ही चौंकाया। बहस भी हुई क्यों और क्या था जो पसंद आय़ा तो उस उम्र में भी मुझे पात्रों के समर्पण और संघर्ष की तीव्रता, लगन की सच्चाई ही थी जिसने आकर्षित किया। दुःख भी अगर ईमानदारी से साझा किया जाए तो द्रवित करता है। यही बात गुनाहों के देवता में भी है। कौन भूल सकता है वह दृश्य जब चन्दर सुधा की अस्थियाँ ले जा रहा था और रोती बिनती की मांग उसी राख से भर देता है। इस उपन्यास में चंदर और सुधा के स्वाभाविक प्रेम और सहज आकर्षण के अलावा बिनती का दुख भी है जो मन को कहीं गहरे सालता है। इतनी आत्मसात हो गई थी तीनों चरित्रों से वह 12-13 साल की मैं कि मुझे लगा था तब कि तीनों चरित्र सुधा, चन्दर और बिनती मैं खुद ही हूँ।

कई किताबें हैं जिन्हें बिना नीचे रखे पूरा पढ़ा है। आज भी याद हैं वे। पहली थी शरदचंद्र की श्रीकांत , उम्र रही होगी 11-12 और दूसरी गुनाहों का देवता । बाद में कई बार सोचा कि दुबारा पढ़ूँ इन किताबों को पर उस अहसास के दर्द और तीव्रता से दोबारा गुजरने की हिम्मत ही नहीं पड़ती । विक्टर ह्यूगो की ला मिजरैवल और टौल्सटौय की एना कैरेनिना । हैमिंग्वे की फौर हूम द बेल टोल्स। प्रेमचन्द की गोदान और निर्मला। बंकिम बाबू का आनंद मठ । कहानियाँ तो बेशुमार। जिनमें अमृता प्रीतम, शिबानी, चुगताई और मंटो प्रमुख रहे। प्रेमचंद डुबोते थे पर निराश भी करते थे उस कच्ची उम्र में । उनके उपन्यासों में सभी पात्रों का मर जाना खलता भी था और मन भी दुखाता था, विशेषतः जब निर्मला को पढ़ा तो ऐसा कुछ ज्यादा ही महसूस हुआ था। हो सकता है अब वैसा न लगे। निराशा तो हार्डी के उपन्यासों में भी थी पर उनके चरित्र आखिरी सांस तक जी जान से संघर्ष करते थे। बुद्धिमान और धुन के पक्के होते थे। दलीलें देते थे । सही गलत को तौलते थे। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी बेचारे नहीं लगते थे। प्रायः उनके संघर्ष में घुटन तो थी पर हार नहीं। चाहे हम ला मिजरेबल के भूखी मां के लिए रोटी चुराने वाले नायक की उस पुलिस औफिसर के चंगुल से बचने के आजीवन संघर्ष की बात करें या फिर टौल्सटाय की अपने बच्चों के साथ जीने के लिए संघर्ष करती नायिका एना कैरेनिना की। बहुत ज्यादा यथार्थ भी तो स्वाद किरकिरा ही कर देता है।
हाल ही में पैब्लो नेरूदा, रिल्के, अज्ञेय और पुश्किन आदि को भी खूब पढ़ा । कोई उपन्यास नहीं पढ़ पाई। सिवाय राग दरबारी के…अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट ने भी वैसा नहीं बांधा जैसी मन में अपेक्षा और उत्सुकता थी।
आज भी उस अहसास की चुभन और चैन की अक्सर तलाश रहती है जो उस उम्र में पढ़ी उन किताबों में था- करीब-करीब पूजा में प्रार्थना जैसा तल्लीन और तीव्र । अब आप ही बताएँ ऐसी एकाग्र और समर्पित किताबों को भला कोई पढ़कर कैसे भूल सकता है। …

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