रिमझिम के तराने लेकर आई बरसात…
अगर कोई मुझसे पूछे कि तुम्हें कौन-सा मौसम सुहावना लगता है, तो मैं बिना समय गवाएं कह सकता हूँ कि मुझे तो सिर्फ़ बरसात का मौसम सुहाना लगता है. यह वह समय होता है जब आसमान से इंद्र देवता धरती पर अमृत की वर्षा रहे होते हैं. इस बरसती बूंदों में कौन भला भींगना नहीं चाहेगा? तन तो भींगता ही भींगता है, साथ में मन भी भींगता रहता है.
बारिश की पहली फ़ुंवार के साथ ही धरती का कोना-कोना हरियाली की चादर से ढंक जाता है. शीतल, मंद-मंद हवा के झोंके आपके शरीर को छूकर आगे बढ़ जाते है. कौन भला इन सुखद हवा के झूलों में झूलना नहीं चाहेगा?. पेड़ों ने हरियल बाना पहन लिया है. उनकी लचकदार डालियों में कोई कच्ची कली अपना घूंघट खोले रसिक भौरों को आमंत्रण दे रही होती है. नए पत्तों से लदी-फ़दी किसी घनी डाली पर बैठी कोयल कुहू..कुहू की स्वर-लहरी बिखेर रही होती है. झिंगुरों को कौन क्या कहे, वे अपनी टिर्र-टिर्र से पूरा वातायण गूंजाने लगते हैं. वे अपनी ही मस्ती में खोए हुए हैं. कान उनकी टिर्र-टिर्र सुनना नहीं चाहते,लेकिन मजबूर है. आठ महिने धरती के गर्भ में अपने को छिपाए बैठे मेंढक अब बाहर निकल आते हैं. वे भी अपने आप में किसी सिद्ध गायक की तरह अपने को पेश करने में लगे हैं. कौन क्या सुनना चाहता है, किसे कौन-सा राग पसंद है, उन्हें इससे मतलब नहीं. वे तो अपने ढर्रे पर उतर आए हैं और अपनी टर्र-टर्र की आवाज निकालने में मस्त हैं. शायद उन्हें इस बात का भ्रम बना रहता है कि वे राग-मल्हार ही गा रहे हैं. मयूर भी भला कहीं पीछे रहने वाला प्राणी है? बादलों को घिरता देख वह खुशी से झूम उठता है और कै-कै की आवाज निकालकर अपने आकर्षक पंखों को फ़ैलाकर नाचने लगता है. मयूर का नाच अद्भुत और देखने लायक होता है
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सभी प्राणी इस रिमझिमाते मौसम में खुश है. खुश तो ढोर-डंगर भी हैं जिन्हें हरी-हरी मुलायम घास खाने को जो मिलने लगी है. खुश तो बेचारे तब भी थे, जब सूखी घास को खाकर किसी तरह अपना उदर-पोषण कर रहे थे. सूखी घास में वह सुख कहाँ जो हरी-हरी घास में रहती है ! हरा चारा चर कर वे खुश तो हो ही रहे हैं साथ ही ग्वाला भी खुश हो रहा है. जहाँ वह पाव भर दूध निचोड़ता था, अब किलो से दुह रहा है. कृषक भी खुश हैं कि उनका खेत फ़सलों से लहलहा रहा है. एक साथ कई उम्मीद बलवती हो उठती है उसकी कि इस बार फ़सल भरपूर होगी तो वह अपनी सयानी होती बेटी को डॊली में बिठाकर बिदा कर सकेगा. साहूकार के कर्ज का बोझ उतार सकेगा. अपने मुन्ना-मुन्नी के लिए नए कपड़े सिलवा सकेगा. गले में नकली सोने की चेन पहने अपनी प्रियतमा को कम से कम तोला दो तोला का हार ही बनवा देगा. ताल, तलैया, नदी, नाले सभी खुश हैं कि उनकी प्यास बुझ जाएगी. सबसे ज्यादा खुशी तो उन तमाम नदियों को हो रही होती है, जो भीषण गर्मी के चलते कृष्काय हो चुकी होती हैं. वे खुश हैं इस बात को लेकर कि आसामान से बरसते अमृत को पीकर उनकी देह जवान हो उठेगी. जवान होते ही वह कल-कल, छल-छल के स्वर निनादित करती हुई, अल्हड़ चाल से चलते हुए, पायल बजाते हुए, गीत गाते हुए बह निकलेगीं. वे इस सोच के चलते भी खुश हो रही होती हैं कि उनके घाटॊं पर फ़िर मेले लगने लगेगें. प्यासे डोर-डंगर,पखेरु,जंगली जानवर अपनी प्यास बुझा सकेगें और कजरी गाती नव-यौवनाएं सिर पर जवारों की डलियाँ उठाए उनके तटॊं पर आएगीं. मंगल दीप बारे जाएंगे, ढोल.ढमाकों के साथ नृत्य-गायन भी होगा. यह सब सोच-सोचकर वे अपने भाग्य की सराहना करने लगती हैं. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि पूरा संसार इस हरियल माहौल में खुश नजर आ रहा है.
इन बरसती फ़ुंवारों में सभी खुश हो रहे हों, यह कतई जरुरी नहीं है. रिमझिम के तराने गाती बरसात जहाँ एक ओर ठंडा महौल बनाने में मगन हैं, वहीं दूसरी ओर कोई नव-यौवना के मन में विरह की भीषण आग भी लगा जाती है. उसका प्रेमी यह कहकर गया था कि वह बादलों के साथ लौट आएगा, वह अब तक आया नहीं है और न ही बैरन डाकिया अब तक उसकी कोई पाति ही लेकर आया है. जैसे-जैसे बारिश तेज होती है, उसके कलेजे की आग वैसे-वैसे भड़कती जाती है. एक ओर बरसात की झड़ी तेज होती जाती है, ठीक वैसे ही उसकी कजरारी आँखों से विरहा के बादल फ़टकर बरसने लगते हैं. कहीं कोई निर्वासित,अभिशप्त यक्ष, पहाड़ की ऊँचाइयों पर चढ़कर किसी मेघ के आने की प्रतीक्षा में अपनी देह को कृषकाय करता हुआ पाती भेजने की जुगाड़ में लगा हुआ होता है. किसी प्रेमी को किसी आवश्यक काम से जाना जरुरी होता है, तो उसकी प्रेमिका गलहार बनकर उससे अनुनय करती है कि बरसात की इस सुहानी घड़ी में उसे अकेला छोड़कर न जाए. या फ़िर बादलों से गुहार लगाकर कहती है कि इतना बरसो की उसका प्रेमी घर के बाहर कदम निकालने की भी न सोचे.
बरसात के इस सुहाने मौसम को लेकर अनेकानेक कवियों-गीतकारों ने एक से बढ़कर एक कविताएं और गीत लिखे. जमकर गीत लिखे. सिर्फ़ लिखे ही नहीं बल्कि उन तमाम भावनाओं को भी उसके माध्यम से इस तरह पिरोया है कि लोग खुशी से झूम उठें. कहीं उन्होंने उसे इतना गमगीन बना दिया कि आँखों से आँसू झरझरा कर बह निकले. उनके लिखे गीतों ने हिन्दी साहित्य को नए आयाम दिए. उसे मालामाल बना दिया. फ़िल्मी दुनिया ने बरसात के हसीन मौसम को अपनी फ़िल्मों में काफ़ी स्थान दिया. बरसात के इस मौसम को उन्होंने जितना कैश किया, उतना किसी अन्य ने नहीं किया. हम सब उन तमाम फ़िल्मों के निर्माताओं, गीतकारों, संगीतकारों, कलाकारों के ऋणी हैं कि उन्होंने बरसात को माध्यम बनाकर एक नया संसार रचा. एक नयी चेतना को आयाम दिया और उसे सदा-सदा के लिए अमर बना दिया.
बरसात पर लिखे गए गाने सिचुएशन को देखकर भी इस्तेमाल किए गए. अधिकतर गीतों में बारिश का प्रयोग दृष्य को रोमांटिक पुट देने के लिए किया गया, जिसमें प्यार था, मस्ती थी, रोमांस था, उल्ल्हास था, उमंग थी. इसके अलावा बारिश के गीतों में अलग-अलग मूड के कई गीत भी थे. कुछ विरह का पुट लिए हुए था, तो कोई मोहब्बत का पैगाम भेजते हुए था. जब बरसात की बात हो रही हो, फ़िल्मों की बात हो रही हो तो अनेकानेक फ़िल्मों के दृष्य आँखों के सामने झिलमिलाने लगते हैं. फ़िल्मों में बरसाती गीतों की फ़ेहरिस्त काफ़ी लंबी है. फ़िर भी हम कुछ सदाबहार फ़िल्मों का यहाँ उल्लेख करते चलें.
फ़िल्म रतन का गीत-“सावन के बादलों” -जबरदस्त हिट हुआ, फ़िल्म गुरु का गीत” बरसो रे मेघा बरसों”. बरसात की बात चल रही हो तो फ़िल्म “बरसात” को कैसे भूला जा सकता है. उसका एक सीन बड़ा पापुलर हुआ जिसमें राज साहब और नरगिस झमाझम होती बारिश में छाते के नीचे खड़े हैं और गीत गा रहे है..”.हम से मिले तुम सजन-“. अमिताभ बच्चन-राखी अभिनीत- बरसात की एक रात, भारत भूषण-मधुबाला की फ़िल्म “बरसात, गोविल-जरीन वहाव अभिनीत-“सावन को आने दो: परख- ओ सजना बरखा बहार आई, रस का फ़ुवार लाई, कालाबाजार—रिमझिम के तराने ले कर आई बरसात, सुजाता=काली घटा छाए”, चलती का नाम गाड़ी-“एक लड़की भीगी भागी-सी”,फ़िल्म चिराग-“छाई बरखा बहार, पड़े अंगना में फ़ुहार, फ़िल्म दो आँखें बारह हाथ- उमड़ घुमड़ घिर आई से घटा”,फ़िल्म धरती कहे पुकार के “जारे कारे बदरा बलम के द्वार”, फ़िल्म मिलन-“ सावन का महिना, पवन करे शोर”, फ़िल्म अनजाना-“भीगी भीगी रातों में, फ़िल्म दो रास्ते-“ छुप गए सारे नजारे ओए क्या बात हो गई”, फ़िल्म मेरा गांव मेरा देश-“ कुछ कहता है सावन”, फ़िल्म आया सावन झूम के-“ बदरा छाए झूले पड़ गए”, फ़िल्म शर्मीली-“ मेघा छाए आधी रात बैरन बन गई निंदिया”, फ़िल्म गाइड-“ अल्लाह मेघ दे पानी दे”, फ़िल्म मंजिल-“ रिमझिम गिरे सावन”, फ़िल्म जुर्माना-“ सावन के झूले पड़े”, फ़िल्म अजनवी-“ भीगी भीगी रातों में”, बेताब फ़िल्म का गीत-“ बादल यों गरजता है”, फ़िल्म १९४२ ए लव स्टोरी-“ रिमझिम रिमझिम रुमझुन-रुमझुम”, फ़िल्म किनारा-“ अबके न सावन बरसे”, आशीर्वाद फ़िल्म से” झिर झिर बरसे सावलीं अखिंया”,, नमकीन फ़िल्म से-“ फ़िर से अइयो बदरा बिदेसी”, फ़िल्म शोर-“ पानी रे पानी”, फ़िल्म प्यासा सावन-“ मेघा रे मेघा”, फ़िल्म लगान-“ घनन घनन घन गरजत”, फ़िल्म बरसात की रात-“ गरजत बरसत सावन आये रे”, जुर्माना फ़िल्म का गीत-“ सावन के झूले पड़े तुम चले आओ”, सावन के नाम से भी अनेके फ़िल्में बनी.जैसे-आया सावन झूम के, सावन को आने दो, प्यासा सावन आदि.
पिछले चार-पांच दिनों से बारिश हो रही है लगातार. बादल न तो हड़बड़ी में है और न ही सुस्त-आलसी बने हुए हैं बल्कि हल्की-हल्की फ़ुवार चल रही है..टापुर-टपुर-टिपिर-टिपिर. मैंने कंप्युटर में बरसात पर लिखे गए गानों की सीरीज खोज निकाली है और आराम कुर्सी में धंसा, बारी-बारी से उन तमाम गीतों को मगन होकर सुन रहा हूँ. बाहर अब भी बारिश हो रही है टिपिर-टिपिर-टापुर-टापुर. क्या आप अब तक इन सदाबहार गीतों को सुनने का, उसमें भींगने का मन नहीं बना पाए हों, तो कब बना पाएगें ?
खनकते राखी गीत और फिल्मी दुनिया
आकाश में अटे-पड़े बादलों के समूह को देखकर जहाँ एक ओर मन मयूर तरंगित हो रहा है, वहीं मयूरा भी अपने नीले-नीले पंखों को फ़ैला कर झूमता हुआ नृत्य करने में तल्लीन हो उठता है. एक कवि मन में अनेकों प्रश्न उठ खड़े होते हैं कि ऎसा क्या रहस्य है इन बादलों में कि मन तो मन, समूची कायनात ही थिरक उठती है. सीधी से बात है. अब से कुछ दिन पहले तक सूरज मामा अपनी प्रचण्ड किरनॊं से धरती को तपा रहा था. ताल-तलैया-बावड़ियां सूख गई थे. पेड़ झुलस गए थे. ढोर-डंगर यहाँ तक जंगली पशु भी प्यास बुझाने के लिए एक बूंद पानी को तरसने लगे थे. हरे-भरे जंगलों की खूबसूरती गायब हो गयी थी. नदियों की देह बुढ़ा गई थी. यहाँ तक कि आदमी भी एक मटका पानी की तलाश में दर-दर भटकने को मजबूर हो गया था. शहरों के तो और भी बुरे हाल थे. जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे थे. हर कोई सरकार की नाकामी को कोस रहा था. सबकी अपनी-अपनी समस्याएं थीं लेकिन कोई चारा भी तो नहीं था. सरकार का अपना कोई पानी का खजाना तो होता नहीं कि जब चाहे तब खोलकर पानी बांटा जा सके. आज का मनुष्य भूल गया है कि उसके क्या कर्तव्य हैं, केवल और केवल वह अपने अधिकारों को ही याद रख पाता है.
दोषारोपण करना आज के मनुष्य की आदत बन गया है, जबकि इन तमाम तरह की परेशानियों की जड़ में वह खुद है. प्रकृति के इस अनमोल खजाने को उसने जी भर के लूटा. शायद यही एक मात्र कारण है कि चारों तरफ़ पानी को लेकर त्राहि-त्राहि मची हुई है.
आदमी चाहे जितना निष्ठुर हो जाए, प्रकृति अपने बनाए नियमों पर आज भी कायम है और समय आने पर सारी परेशानियों को हल करने में तत्पर हो जाती है.
सूरज की तपिश आखिर बनी भी रहती तो कितनी? एक दिन वह समय आ ही गया, जिसका का इन्तजार हर प्राणी को था. एक वह आकाश जिस पर चढ़कर सूरज आग बरसा रहा था, बादलों से अट गया है. बादल माने एक आस. सभी की आस अब पूरी होने वाली थी.
गरज-बरस के साथ आकाश से अमृत की बूंदे धरती पर बरसने लगीं. प्यासे पपीहे ने उड़ते हुए चार बूंदे अपनी चोंच में थामी और वह गदगद हो उठा और पागलों की तरह शोर मचाता हुआ घर-घर संदेशा देने उड़ने लगा. कोयल भी कब पीछे रहती. वह कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल पर फ़ुदकती–कूदती पिहू-पिहू के स्वर निनादित करती नाचने-गाने लगी. नदियों की खोई हुई जवानी फ़िर लौट आयी. सूखा- मुरझाया जंगल फ़िर हरियल बाना पहनकर इठलाने लगा. धरती पर हरियाली की चादर फ़ैल गयी. ढोर-डंगरों को हरा चारा चरने को मिलने लगा. हरा चारा पाकर गायों के थनों में दूध उतरने लगा. जहाँ सारी कायनात खुशी में उबल रही थी, आदमी कब भला पीछे रहता. बरसते सावन में वह अपनी ढपली उठा लाया और गीत गाने लगा. महफ़िले जमने लगी. ढोलक सजने लगी. मंजीरे खनकने लगे और आल्हा-उदल के गीतों की स्वर-लहरी हवा की पीठ पर सवर होकर बस्ती-बस्ती डोलने लगी. आदमी शुरु से ही उत्सव-धर्मी रहा है. चाहे जैसा भी मौसम हो, चाहे जितनी भी परेशानियाँ ही क्यों न हो, सुख के ढांचे में कैसे ढालना है, उसे आता है.
सावन के शुरु होते ही त्योहारों की जैसे बाढ़ ही आ जाती है. पूरी में जगन्नाथजी के रथ यात्रा की तैयारियां होने लगी है. जैन मुनि महाराज चतुर्मास में किसी खास जगह रुककर साधना करने का मानस बनाने लगे हैं. व्यास पूजा ,गुरुपुर्णिमा, सावन के सोमवार, मंगला गौरी व्रत, हरियाली तीज, नाग पंचमी महोत्सव, रक्षा बंधन, बहुला चतुर्थी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, गोगानवमी, हरतालिका व्रत, श्री गणेश चतुर्थी, ऋषिपंचमी, दुबड़ी सप्तमी, श्रीराधाजन्माष्टमी, वामन जयन्ती, अनन्त चतुर्दशी जैसे व्रत और त्योहार की बाढ़ सी चली आती है.
बंधना राखी के कच्चे धागे में.
बंधन का शाब्दिक अर्थ तो बंध जाना, कैद हो जाना, जकडा जाना होता है, बंधना भला कोई चाहेगा भी क्यों कर.? लेकिन हर कोई बांधना चाहता है. यदि बंधने वाले के मन में कोई प्यारी सी ललक जगे और बांधने वाले के मन में कोई रस की निष्पत्ति हो तो कोई भी बंध जाना चाहेगा. मछली क्या जाल में बंधकर उलझना चाहेगी ? कदापि नहीं,लेकिन जाल के साथ बंधा चारा उसे अपने सम्मोहन में बांध देता है और वह बेचारी उसमें जा फ़ंसती है. चारा यहां उसके मन में एक लालित्य जगाता है. बस उसी लालच में वह बंध जाती है. यह तो रही मछली की बात. कोई रुपसी भी भला किसी के जाल में क्योंकर बंध जाना चाहेगी?.उत्तर होगा कदापि नहीं. लेकिन वह भी प्यार के महिन बंधनों में बंध जाती है. कृष्ण ने सभी जीव-जन्तुओं को,सभी नर-नारी सहित समूचे विश्व को अपने सम्मोहन में बांधकर रखा था. वे भला क्या मां यशोदा के बंधन मे आसानी से बांधे जा सकते थे.? यहां वह मां का प्यार था, दुलार था,और भी बहुत कुछ था कि कृष्ण ने उन्हें अपने आपको बांधे जाने के लिए प्रस्तुत कर दिया.
दरअसल, दूसरों को बांधने में एक निर्वचनीय सुख मिलता है, वहीं बंध जाने में भी एक सुख की निष्पत्ति होती है एक रस बांधने में आता है, वहीं एक रस बंध जाने में भी आता है. बंधने की प्रक्रिया अलग-अलग हो सकती है. स्त्री किसी पुरुष से, बच्चा अपनी मां से, बहन अपने भाई से,पुत्र अपने माता-पिता से एक अटूट बंधन में बंधे होते है लेकिन इसका पता न तो बंधने वाले को चल पाता है और न ही बांधने वाले को चल पाता है और इस तरह एक पडौसी दूसरे पडौसी से, पूरा एक गांव और संपूर्ण राष्ट्र एक सूत्र में बंधता चला जाता है. यह क्रम आज से नहीं, अनादिकाल से चला आ रहा है. एक बहन अपने प्रिय भाई की कलाई में राखी बांधती है . राखी क्या है?. वह भी तो एक धागा ही है न ! जिससे वह उसे बांधती है. बहन के मन में अपने भाई के प्रति अनन्य प्रेम होता है,एक अटूट विश्वास होता है, एक ऐसा विश्वास कि वह आडॆ दिनों में उसकी रक्षा करेगा. कोई संकट यदि आ उपस्थित हुआ तो वह अपने प्राणी, की बाजी तक लगा देगा और अपनी बहन की रक्षा करेगा, उसके कठिन दिनों में एक संबल बन कर खडा हो जाएगा. भाई जब इस कच्चे सूत्र से बंधता है तो उसके मन में भी एक हिलोर पैदा होती है, एक गर्व का भाव पैदा होता है, एक आत्मविश्वास पैदा होता है,एक अपरिमेय शक्ति उसके मन में जागती है कि वह ऎसा कर सकेगा. राखी का शुद्ध शाब्दिक अर्थ भी तो यहां रक्षा भाव का जाग्रत होना होता है. बरसात के इस सुहाने मौसम में पड़ने वाले इस धागों के त्योहार को लेकर गीतकारों ने जमकर गीत लिखे. सिर्फ़ लिखे ही नहीं बल्कि उन तमाम भावनाओं को भी उसके माध्यम से इस तरह पिरोया है कि लोग खुशी से झूम उठें. कहीं उन्होंने उसे इतना गमगीन बना दिया कि आँखों से आँसू झरझरा कर बह निकले. उनके लिखे गीतों ने फ़िल्मों में धूम मचा दी. हम सब उन तमाम फ़िल्मों के निर्माताओं, गीतकारों, संगीतकारों, कलाकारों के ऋणी हैं कि उन्होंने बरसात को माध्यम बनाकर एक नया संसार रचा. एक नयी चेतना को आयाम दिया और उसे सदा-सदा के लिए अमर बना दिया.
आकाशवाणी सबकी वाणी. उसने भी इन सदाबहार गीतों को प्रसारण का हिस्सा बनाया. चाहे वह रिमझिम के तराने गाती बरसात हो या सावन का महिना, जिसमें रक्षाबन्धन जैसा पवित्र त्योहार हो ,कैसे पीछॆ रह सकता था. वह भी इस बरसते सावन में राखी के बन्धन पर फ़िल्माए गानों की झड़ी सी लगा देता है, जिसे सुनकर मन प्रसन्नता से खिल उठता है.
फ़िल्मों की अपनी निराली दुनिया
फ़िल्मों की अपनी एक निराली दुनिया है. जहाँ एक ओर वह अरबों-खरबों का व्यापार है, सपनों का रुपहला संसार है, मायावी दुनिया है, चमक-धमक का केन्द्र है वहीं दूसरी ओर वह मनुष्य के पक्ष में खड़ा होकर दुख भी परोसता और तो खुशियों की बारिश भी करता है. उसमें हर मौसम समाया हुआ है. भीषण गर्मी में वह पानी के लिए तड़फ़ती इंसानियत को रेखांकित करता है, वहीं बरसते सवान में खुशी के गीत भी गाता है. कभी वह विरहनी के संग खड़ा होता है तो कभी वह पारिवारिक उलझनों को सुलझाने में अहम भूमिका का निर्वहन करता नजर आता है. शायद ही कोई ऎसा त्योहार होगा, जिस पर उसने अपनी उपस्थिति न दर्ज कराई हो. बारिश में उसने कितनी ही हसिनाओं को भीगती, उत्तेजित होती अपने प्रेमी से चिपकी अपने प्रेम का इजहार करता दिखाया है. वहीं उसने हर त्योहारों पर नायब गीतों को सजाते हुए अपना अभिन्न अंग बनाया है.
रिमझिम-रिमझिम बरसते सावन में झूला झूलते नायक-नायिका हों अथवा भाई की कलाई पर रेशमी राखी बांधती बहना हो अथवा किसी कारणवश भाई के घर तक न जाने पर मिलती अपार पीड़ा हो, इसने बखूबी परदे पर उतारा है. फ़िर राखी का बंधन कुछ इस तरह का त्योहार है जिसके आने की प्रतीक्षा हर भाई-बहन को रहती है. इस सेलुलाईट के पर्दे ने उन तमाम बातों को बखूबी उजागर किया है
राखी पर फ़िल्माए गए सदाबहार गीतों पर एक नजर डालें और साथ में गुनगुनाते भी जाइए.
फ़िल्म रेशम की डोर में प्रख्यात गायिका लता मंगेशकर जी आत्माराम के निर्देशन में एक प्यारा सा गीत गया- बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है.( सुमन कल्याणपुर) फ़िल्म अनपढ़ मे लताजी ने ही इस गीत को गाया है—रंग-बिरंगी राखी लेकर आई बहना, राखी बंधवा लो मेरे वीर.(लता) फ़िल्म छोटी बहन में भैया मेरे रखी के बन्धन को न भुलाना.( लता) फ़िल्म बंदिनी में-अबके बरस भेज भैया को बाबुल में. फ़िल्म चंबक की कसम में –चंदा से मेरे भैया से कहना, बहना याद करे (लता), फ़िल्म दीदी मे-मेरे भैया को संदेसा पहुंचाना चंदा तेरी जोत जले.. फ़िल्म काजल में मेरे भैया, मेरे चंदा, मेरे अनमोल रतन, तेरे बदले मैं जमाने की कोई चीज न लूं( आशा भोंसले), हरे रामा, हरे कृष्णा में किशोर का गाया गीत है-फ़ूलों का तारों का सबका कहना है, एक हजारों में मेरी बहना है. (किशोर कुमार), फ़िल्म बेईमान का गीत है-ये राखी बंधन है ऎसा.(मुकेश-लता). बहना ने भाई की कलाई पर राखी बांधी है- फ़िल्म रेशम की डोर, फ़िल्म अनजाना –हम बहनों के लिए मेरे भैया,. नहीं मैं नहीं देख सकता तुझे रोते हुए, राखी धागों का त्योहार (राखी),
मित्रों…इस नाजुक और पवित्र त्योहार पर अनेकानेक गीत है जिन्हें फ़िल्मों में स्थान मिला और भी अनेक गजलें और गीत हैं जिन्हें गजलकारों ने, कवियों ने गहराई में डूबकर-उतरकर लिखा है, जिसे एक आलेख में नहीं समेटा जा सकता.
फ़िलहाल इन सदाबहार गीतों में अपने को डूबोते हुए उनका आनन्द लीजिए और इन्तजार कीजिए उस त्योहार का जो इसी माह की अठारह तारीख को आने वाला है और धन्यवाद दीजिए उन कलमकारों को जिन्होंने नायाब गीतों को रचा है और उन तमाम फ़िल्मों के कलाकारों, संगीतकारों, गायकों और उन फ़िल्मों के डायरेक्टरों को जिन्होंने इसे परदे पर फ़िल्माया.
१०३, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा (म.प्र.) ४८०-००१
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