दस प्रेरक दोहेः तुलसी दास/लेखनी-जुलाई-अगस्त 17


दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान |
तुलसी दया न छांड़िए ,जब लग घट में प्राण ||

तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग|
सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग||

तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन!
अब तो दादुर बोलिहें हमहीं पूछिहे कौन!!

सचिव  बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस |
राज  धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ||

सहज सुहृद  गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि |
सो  पछिताइ  अघाइ उर  अवसि होइ हित  हानि ||

मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक |
पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ||

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु |
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ||

देखत ही हर्षे नही नैनन नही सनेह!
तुलसी तिंह न जाइए कंचन बरसत मेह!!

अबला,वेला,बालक ये न गनै लघु जात ,
जा समीप निसदिन रहैं,ताही सों लपटात ।

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए!
अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए!!

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