गुप्त जी ने कहा था –मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है ”..बचपन से ही इस पंक्ति को रटते -समझते कब साहित्य की किताबों का कीड़ा बनती चली गई ,पता ही नहीं चला .अपनी किशोरावस्था में मै शिवानी को पढना ज्यादा पसंद करती थी –उनकी ‘चौदह फेरे ,सुरंगमा ,कैंजा ,से लेकर न जाने कितनी कृतियों को पढ़ डाला पर चौदह फेरे की ”बसुली [बसंती ]और ”काकी ‘का चरित्र इस तरह मन प्राणों पर छ गयाकि महीनो मेरी कल्पनाओं के संसार में वे दोनों विचरण करती रहीं ..बसुली का गुपचुप प्रेम नियति को अनदेखी .अनकही गलियों से गुजर कर कैसे अपनी परिणति को प्राप्त हुआ ..यह बात यद्यपि धीरे धीरे समझ में आई ,पर उसकी व्यथा कथा में मुझे अनूठा सौन्दर्य और अनुभूतियाँ .. मन के बहुत करीब से नजर आती थीं .काकी की पीड़ा ,युवावस्था में ही पति की अपेक्षाओं पर खरी न उतर पाने का दर्द ,अपनी जाता पुत्री से बिछुड़ना ,,जिन्दगी के कई रंग उनकी जिन्दगी में आये ,,वह सबको कभी मन से स्वीकारती तो कभी स्वाभिमान की चुनौतियों को भी स्वीकार करती चली गई ..धर्म और आध्यात्म में स्वयम को डुबो कर अक नई दुनिया ही बसा ली थी उन्होंने ..मै आज भी उस दर्द को महसूस कर सकती हूँ जब मै भी उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच चुकी हूँ ..शिवानी के लेखन ने ही मुझे कहानीकार बना दिया .शिवानी के बाद मैंने प्रेमचंद को पढ़ा और उनका साहित्य, उनकी कहानियां मेरे मन में उतरती चली गईं , छोटी कक्षाओं से लेकर स्नाकोत्तर तक मेरे दिलोदिमाग में प्रेमचन्द छाये रहे ,पर सबसे अधिक पसंद मै ”गोदान” को करती थी जिसमे होरी का किरदार मुझे अपने आसपास होने का अहसास करता रहता था ,मै होरी को ढूँढ़ती रहती अपने परिवेश में ,,मेरे नानाजी के यहाँ ”बचानू ”नामक एक खेतिहर कई सालों से काम करता .
घर का सदस्य जैसा बन गया था ,मेरा बचपन उसकी स्नेहिल यादों से परिपूर्ण है ,वह मुझे बिलकुल होरी जैसा ही लगता था ,जब वह नानाजी से उधर पैसे मांगने आता ..कभी बेटी की शादी के लिए तो कभी ..गैया खरीदने के लिए ,कभी बेटा बीमार।।तब मै नानाजी को गाँव का जमींदार या पंडित समझती और खूब नाराज होती थी .पर जब मैंने पुनः गोदान पढ़ा ..अपनी छात्राओं को पढ़ाने के लिए तब होरी की पीड़ा ,उसका दर्द ,सामाजिक नाते रिश्तों को निभाने की जद्दोजहद ..गरीबी की विवशताए अक्सर मुझे रातों में रुलाया करती थीं .-तबसे प्रेमचन्द मेरे प्रिय लेखक नब गए -वे धरती से जुड़ कर जीना चाहते थे -खेतिहर किसानो श्रमिको का दर्द और संघर्ष उनकी चेतना को झकझोरता था ”गोदान ”में किसान होरी के माध्यम से उनकी पीड़ा को दर्द को ,मजबूरियों को और उनके अंतर्द्वन्द्ध का मार्मिक चित्रण किया है — ‘
‘ किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमेंसंदेह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव-ताव में भी वह चौकस होता है, ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है, जब तक पक्का विश्वास न हो जाय, वह किसी के फुसलाने में नहीं आता, लेकिन उसका संपूर्ण जीवन प्रकृति से स्थायी सहयोग है। वृक्षों में फल लगते हैं, उन्हें जनता खाती है, खेती में अनाज होता है, वह संसार के काम आता है; गाय के थन में दूध होता है, वह खुद पीने नहीं जाती, दूसरे ही पीते हैं, मेघों से वर्षा होती है, उससे पृथ्वी तृप्त होती है। ऐसी संगति में कुत्सित स्वार्थ के लिए कहाँ स्थान? होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था।””
गोदान की यह पंक्तियाँ मेरे मन की गहराईयों में बसती थीं ,जब बचानू के बेटे मंगरू को देखती ,
जो हमेशा पुरानी पर साफ़ सुथरी कमीज पहने पेन खोंस कर चलता ..वह बिलकुल गोबर जैसा ही प्रतीत होता .और अपने पिता का उधार मांगने के लिए गिडगिडाना पसंद नहीं करता था .नई पीढ़ी इस विषमता को नहीं अपना पा रही थी –जैसे गोदान का गोबर हर अन्याय का विरोध करना चाहता है ,.होरी व् धनिया
की बेटी रूपा में मुझे आज अपनी बेटी नजर आती है ,..समाज में कैसे टूटतेहैं बेटियों के सपने ?..आज मै महसूस कर सकती हूँ ,उन कहानियों के पात्र ,चरित्रों में छिपी संवेदनाओं को ..यही तो लेखन की सार्थकता है जहाँ एक आम पाठक भी उस पीड़ा को आत्मसात कर सके .—पद्मा मिश्रा ,जमशेदपुर -ईमेल -padmasahyog@gmail.com