कहानी भाषान्तरः मंजरी कोलहण-लेखू तुलसियणि/ लेखनी-जुलाई-अगस्त 17


( सिंधी से अनुवाद-देवी नागरानी)

कोर्ट का वातावरण कोई ज़्यादा आकर्षक नहीं होता, और न ही कोर्ट में कोई पंसदीदा बातें होती हैं कि आदमी खिंचता हुआ वहाँ चला जाए। हाँ, कभी-कभार कोई ऐसा मजेदार केस हो जाता है जिसकी वजह से खलबली मच जाती है, जिसकी वजह से एक अजीब खिंचाव पैदा हो जाता है; अजीब-सी कशिश लोगों को वहाँ आने पर और कार्यवाई के दौरान लुत्फ़ लेने के लिए उत्तेजित करती है।
मगर ऐसे ग़ैर-मामूली केस कभी-कभार ही होते हैं। आमतौर पर कोर्ट में जाते हैं-वकील, फ़रियादी, मुजरिम, गवाह, न्यायधीश और दर्शक। भला जहाँ सिर्फ वाद-विवाद, तकरार की बातें हों, मुख्तारों की बेवजह कायदे-कानून पर लंबी तकरीरें हों, वहाँ लुत्फ़ कैसे मिल सकता है? मीरपुर ख़ास की कोर्ट तो और भी बदतर हालत में है। बाहरी तौर पर भी निहायत ही मामूली-सी लगती जगह, न कोई आकर्षण है, न मनोहर है। सौंदर्य बढ़ाने के लिए न बड़े गोल स्तंभ हैं, न बुलंद मीनार, न कोई सुंदर गुंबज़। अहाते में पाँव धरते ही सिर्फ और सिर्फ़ मिट्टी नज़र आती है। चारों ओर वीरानगी का आलम होता है। उस वीरानगी में भी एक भाग ऐसा है, जहाँ आदमी दो पल आराम से बैठ सकता है। कोर्ट के स्थान के बाहर छः बड़े-बड़े पेड़ हैं-चार नीम के और दो आम के। वह पेड़ों से घिरा हुआ स्थान ही कोर्ट का बेहतरीन आरामगाह है। एक-एक पेड़ का तना देखो, डाल देखो, शाखाएँ देखो और फिर कहो कि वे पेड़ हैं या देव हैं। मीरपुर ख़ास की हवा भी कैसी? उस हवा में जब ऐसे देव तुल्य पेड़ों की डालियाँ हिलती हैं, तब यूँ महसूस होता है जैसे देव झूल रहे हैं।
एक विशाल नीम के पेड़ तले मंजरी बैठी थी। लड़की तो वह साधारण खेतिहर थी, पर उसकी आँखों में कामुकता थी। बदन में एक अनोखी कशिश की प्रबलता थी।आते-जाते किसी की भी निगाह उसकी ओर उठ ही जाती। शायद पिछले जनम में कोई शहजादी थी, प्रेमियों की शहज़ादी। आज उसके चौड़े चमकदार चेहरे पर ग़म के बादल घिर आए थे. आँखों की दमक भी कुछ क्षीण-सी थी और लबों की लाली, बेरंग-सी लग रही थी। लहँगा भी पुराना-सा था, पर उसकी तंग चोली उसकी उभरती जवानी को छिपाकर भी नहीं छिपा पा रही थी। दो चोटियों में बँधे उसके लंबे बाल बंद होते हुए भी हवाओं में परेशान होकर लहरा रहे थे। रह-रहकर वह उन आज़ाद बालों को अपने सुंदर हाथों से चेहरे पर से हटा रही थी। बालों को हाथों से हटाने में भी गज़ब की नज़ाकत समाई हुई थी। कुदरती ढंग से इस तरह हाथ से बाल सँवारने में, नाज़ नखरे के लिए कोई गुंजाइश बाकी न रही थी।
मंजरी के सामने क़रीब दो सौ क़दम की दूरी पर आम के पेड़ के तले एक जवान हथकड़ियों से जकड़ा हुआ बैठा था और उसके पास ही एक कोतवाल बंदूक कंधे पर लिए खड़ा था। जवान तेईस-चौबीस से ज़्यादा उम्र का न था। धूप में पका हुआ उसका साँवला-गेहूँ सा रंग, सख्त मोटे हाथ, मजबूत बाहें, चौड़ी छाती, बदन पर पुरानी मैली फटी कमीज़ थी और नीचे अजरक की लँगोटी।
मंजरी बार-बार उसकी ओर देखकर, फिर अपनी गर्दन नीचे करती रही। कभी-कभी वह ठंडी साँस भी भरती हुई दिखाई दी। मंजरी की समूची दुनिया इस नौजवान में समाई हुई थी। आज उसी के कारण उसे ये कष्टदायक दिन देखने पड़ रहे थे।
नौजवान भी बार-बार मंजरी की ओर देख रहा था, पर उसके चेहरे पर दुःख-दर्द व चिंता की रेखाएँ बिल्कुल भी न थीं। उसकी निगाहें शायद मंजरी को पैगाम दे रही थीं-‘निराश मत होना, मेरे लिए सूली भी सेज बन जाएगी मंजरी।’
कोर्ट के बुलावे पर पुलिसवाला नौजवान को साथ लेकर कोर्ट के भीतर आया। कुछ देर के बाद नायक ने लगातार तीन बार ज़ोर से आवाज़ दी- ‘कुसूरवार मंजरी हाज़िर है?’

मंजरी की मदहोशी यकायक टूट गई। ख़ुद को सँभालते हुए वह उठी और कोर्ट की ओर चलने लगी। उसकी चाल में अजीब कशिश थी। नायक ने घूरकर उसकी ओर देखा और फिर अपनी मूँछों पर हाथ फेरा।
उसने भयभीत हिरनी की तरह कोर्ट में प्रवेश किया। वकीलों का ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हुआ। सभी की जबान तालू से जा लगी। एक हँसी ठट्ठा करनेवाले वकील ने दूसरे वकील की ओर आँख मारते हुए धीरे से कहा-‘रंडी तो कमाल की है। कौन कहेगा कोलहण है। उसका चलना तो देखो, जैसे मोरनी चल रही है।’
मंजरी कटघरे के पास रुककर खड़ी हो गई। न्यायधीश ने प्रभावशाली अंदाज में कहा-‘बाई कटघरे में जाकर खड़े रहो, देखती क्या हो?’
मंजरी बिलकुल भी नहीं हिचकिचाई। वह पक्का इरादा करके आई थी कि वह ईसर को किसी तरह भी इस झंझट से आज़ाद करवाएगी। हालाँकि क़ायदे-क़ानून की पेचीदा रवायतें, वकीलों की आड़ी-टेढ़ी जिरह बाबत उसे कुछ जानकारी न थी। पर उसका दृढ़ निश्चय उसे हौसला दे रहा था। वह बेझिझक कटघरे में आकर खड़ी हो गई। नियमानुसार उसे भी सच, सिर्फ़ सच कहने की क़सम खानी पड़ी।
मंजरी अपना बयान देते समय कुछ हिचकिचाई, पर जल्द ही सँभल गई, उसने कहना शुरू किया-‘मेरे माँ-बाप मंगल के क़र्जदार थे। उस क़र्ज को न चुका पाने के कारण मेरी शादी उसके साथ करा दी गई। मंगल शराबी व बदचलन था। हर रोज़ अफ़ीम के सेवन के कारण अपने होश-हवास गँवाकर जब घर लौटता, तो मुझे मारता-पीटता। तीन माह मैंने जैसे-तैसे घर में गुजर-बसर किए। उसके बाद घर मेरे लिए नरक बन गया। वह हर रोज़ मुझे मारता। दिन-ब-दिन वह मार बढ़ती रही। मैं नवेली थी इस कारण सब-कुछ सब्र के साथ सह जाती थी।
‘एक दिन दुपहर में मंगल के लिए खाना लेकर खेत की ओर जा रही थी। ईसर का खेत मंगल के बगल में ही था; अग्रभाग में-ईसर अपने खेत में खड़ा था, कुल्हाड़ी से ज़मीन खोद रहा था। एक लँगोटी के सिवाय बदन पर और कुछ न था। कुल्हाड़ी चला-चलाकर थक गया था, इसलिए बदन पर पसीने की बूँदें हीरों की तरह चमक रही थी। चौड़ी छाती, मजबूत कंधे और बड़ी-बड़ी शोख़ आँखें। वह जवान था। उसे देखते हुए मैं खड़ी हो गई। अगले दिन मंगल ने बहुत मारा था। मार खाकर मेरे तन का एक-एक अंग दुख रहा था। मैंने ईसर को बुलाया और उसके साथ अनावश्यक बातें करने लगी। वैसे उसकी मुझमें कोई खास रुचि नहीं थी। मैं ही उसके साथ छेड़छाड़ किया करती। एक दिन मैं बातों-बातों में उसे घने पेड़ की छाँव में ले आई। आस-पास पेड़ों के साए तले छोटी-छोटी झाड़ियाँ झूम रहीं थीं। पास में कहीं ऊँचाई से बहती हुई पानी की धारा मन को शीतल कर रही थी। माहौल में मेरा मन भी झूम रहा था। इस तरह हमारी कामुकता बढ़ती रही। ईसर कभी भी मेरे घर न आता था, मैं ही उससे किसी-न-किसी तरह मिलती रहती थी। उसके साथ रूह-रूहाण करती, दिल बहलाती और…।’ वह पलभर को चुप रही और फिर कहने लगी-‘मंगल ने जो मुक़दमा ईसर पर, मुझ पर कामुक संभोग का धावा करने के लिए किया है, उसके लिए ईसर जवाबदार नहीं है। वह बेक़सूर है, सारा दोष मेरा है और मैं सज़ा भोगने के लिए तैयार हूँ…।’
हँसी-ठट्ठा करनेवाले वकील ने फिर उसे देखते हुए कहा-‘राँड तो इश्क़ में अंधी हो गई है।’
दूसरे वकील ने अपनी राय ज़ाहिर करते हुए कहा-‘यार, शाबासी नहीं दोगे? कैसे सर ऊँचा उठाए खुल्लम-खुल्ला गवाही दे रही है।’
न्यायधीश ने भी ज़रा मुस्कराते हुए वकीलों की ओर मुँह करते हुए कहा-‘वक़्त आया है कि शोषित करनेवाली औरत को सज़ा मिलनी चाहिए, मर्द को नहीं।’
दूसरे दिन न्यायधीश ने अपना निर्णय देते हुए कहा-‘हालाँकि मंजरी बाई ने बयान दिया और उसमें काफ़ी हद तक सच्चाई शामिल है कि उसने ईसर का शोषण किया है, हालाँकि ईसर का क़सूर भी नहीं है, फिर भी क़ायदे के नज़रिए से दोषी फिर भी वही है, क्योंकि क़ायदे के मुताबिक़ मर्द ही शोषण करता है। जैसे कि ईसर ने अपने बचाव में कुछ भी ठोस नहीं कहा है और यह क़बूल किया है कि उसका मंजरी के साथ अनैतिक रिश्ता है, इसी कारण वही दोषी है, पर अदालत ने रहम करते हुए उसे सिर्फ़ दो महीने कठोर परिश्रम, जेल में रहकर काम करने की सज़ा दी।
मंजरी की आँखों में बे-अख़्तियार आँसू छलक आए। जिस प्रीतम को बचाने के लिए उसने इतना किया, बेहया बनकर अदालत में ख़ुला बयान दिया।
उस माशूक को वह बचा न सकी। उसने एक दीर्घ श्वास लेते हुए ईसर की ओर देखा। वह मुस्करा रहा था। जब उसे पुलिसवाले ले जा रहे थे, तब मंजरी के पास से गुज़रते हुए उसने कहा-‘मर्द आदमी हूँ, दंड भोग लूँगा।’
मज़ाकी तन्ज़ में वकील ने कहा-‘कुलटा बदचलन है, साथ के लिए मर रही है।’
जवाब में दूसरे वकील ने कहा-‘दोस्त उसे बदचलन नहीं कहा जा सकता। उसकी आँखों में अनमोल आँसू हैं, दिल की गहराइयों से निकले हैं।’
ईसर को पुलिसवाले साथ ले गए। मंजरी एक परास्त सिपाही की तरह नीरवता से, गर्दन नीचे किए हुए बाहर निकल गई।

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