कहानी समकालीन-माई इंडियाः गोवर्धन यादव/ अगस्त सितंबर 2015

माई इंडिया

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ब्लेकबोर्ड पर हिन्दुस्तान का नक्शा बनाकर शहरों का नाम लिख रहा था। दिल्ली को चिन्हित कर दिल्ली भर लिख पाया था कि तभी एक हवाईजहाज स्कूल के ऊपर से घरघराता निकल गया। क्लास के बच्चों का ध्यान उस तरफ जाना स्वाभाविक था। थोड़ी देर पश्चात्वह फिर से स्कूल के ऊपर से गुजरा और आगे जाकर लौट आया। उसने पूरे गांव के तीन-चार चक्कर लगाए और जमीन पर उतरने लगा। हवाईजहाज को नजदीक से देखने की प्रबल इच्छा को बच्चे दबा नहीं पाये, मैं कुछ कहूं इससे पूर्व वे अपनी कक्षा छोडक़र बाहर इकठ्ठे होकर शोर मचाने लगे। आकाश में उड़ रहा वह एक हेलीकाप्टर था जो धीरे-धीरे जमीन की ओर बढ़ रहा था। उसके विशाल डैने अब भी तेजी से चक्करधन्नी काट रहे थे। सूखे पत्ते फरफराकर आकाश में ऊंचा उडऩे लगे और धूल का एक बड़ा गुबार उठने लगा। हेलीकाप्टर अब नीचे आ चुका था। उसके बड़े-बड़े पंख अब भी चारों ओर चक्कर काट रहे थे। आदिवासी महिलाएं एवं पुरुष अपनी-अपनी झोपड़ी छोडक़र अन्यत्र भागकर एवं पेड़ों की आड़ में छुपकर नजारा देखने लगे। शायद वे भयभीत हो गए थे। कुछ आदिवासी महिलाएं अपने दूध पीते बच्चों को बंदरिया की तरह छाती से चिपकाए बाहर आकर खड़ी हो गईं और विस्मित नजरों से नजारा देखने में लग गईं। घुटने से ऊपर और कमर के नीचे मैली-कुचैली साड़ी के छोर को बांध रखा था और शेष से अपनी पीठ तथा उरोजों को ढांक रखा था। एक शिशु ने तो साड़ी का छोर हटाया और सूखे से लटके वक्ष को चूसने लगा। उसके उरोज कब छिटककर बाहर आ गए इसका तनिक भी ध्यान उसे नहीं रहा क्योंकि वह उतरते जहाज को देखने में तल्लीन थी। हेलीकाप्टर के विशाल डैने अब थम चुके थे। हवा में उड़ रहे सूखे पत्ते धरती पर आकर गिरने लगे। धूल का गुब्बार अब शांत पड़ गया था। हेलीकाप्टर अब सभी को साफ-साफ नजर आने लगा था। हेलीकाप्टर के उतरते समय जो तेज हवा का झोंका आया उससे स्कूल की एक चौथाई दीवार जो गिरने-गिरने को हो रही थी भरभराकर गिर पड़ी। मैं मन ही मन उस जहाज को और उसमें सवार चालक को कोस रहा था। पर तुरंत ही उन्हें धन्यवाद भी देने लगा कि यदि कक्षा चल रही होती और उस समय वह दीवार सरकती तो न जाने कितने बच्चे अपाहिज हो जाते अथवा मर जाते। हेलीकाप्टर का दरवाजा खुला। 6-6½ फिट का एक कद्दावर अधेड़-नौजवान सफेद झक धोती-कुर्ता, सिर पर गांधी टोपी लगाये, आंखों पर बेशकीमती ऐनक चढ़ाए जमीन पर उतरने का उपक्रम कर रहा था। उसके चमचमाते जूते दूर से ही दिखलाई पड़ते थे। उसने उतरकर अपनी कमर पर हाथ रखा और एकटक हम लोगों की ओर देखने लगा। उसने चारों तरफ नजर फैलाई। दूर-दूर तक नंगे-अधनंगे बच्चे एवं आदिवासी महिलाएं पुरुष घेरा बनाये टुकुर-टुकुर देख रहे थे। काफी देर तक वह वैसा ही खड़ा रहा। मेरे मन के अन्दर भारतीय परम्पराएं हिलोरे ले रही थीं। मैंने आगे बढक़र दोनों हाथ जोडक़र भारतीय मुद्रा में नमस्ते की। अब उसके शरीर में कुछ हरकतें हुईं। उसने कमर पर से हाथ अलग किए और दोनों हाथ जोडक़र मेरा अभिनंदन स्वीकार किया। मैं अब उसके नजदीक पहुंचने का उपक्रम करता हूं। उसने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए और मेरे बढ़ते हाथों को अपने मजबूत हाथों से जोड़ दिया। मैंने सुस्वागतम-सुस्वागतम कहते हुए अपनी ओर से बात करने की पहल की, ‘‘देखिए श्रीमान… इस गोंड़ी बस्ती में जाहिर है कि यहां न तो सर्किट हाउस है और न ही रेस्ट हाउस, मेरा अपना मकान उसे झोंपड़ा ही कहना ठीक होगा (हाथों का इशारा करते हुए) वो रहा, चलिए वहीं चलते हैं। आप चलकर विश्राम कीजिए और अपनी सेवा करने का मौका दीजिए।’’ मैं आगे-आगे और वह मेरे पीछे यंत्रवत्चला आ रहा था। हमारे पीछे आदिवासी बच्चे महिलाएं एवं पुरुषों की भीड़ एक घेरा बनाते हुए चली आ रही थी। सामने दालान में एक कुर्सी, जिसका एक हत्था कई महीने पहले टूट चुका था, धूल-धूसरित पड़ी थी। अपने कंधे पर लटके गमछे से मैंने कुर्सी साफ की और उनसे बैठने का निवेदन किया। बाड़ी के उस तरफ खड़ी भीड़ अंदर की प्रत्येक गतिविधियों को देख रही थी। कुर्सी पर बैठने के बाद उन्होंने अपने माथे पर चू आया पसीना पोंछना शुरू किया। इसी बीच मैंने नजदीक पड़ी चारपाई को बिछाया और एक कोने में बैठ अपनी जोरू को आवाज लगाते हुए कहा, ‘‘अरी सुनती हो भागवान्ï, देखो हमारे यहां कौन आया है। भाई चायपान की कुछ तो व्यवस्था करो।’’ हमारे घर पहुंचने के पहले ही वह पिछवाड़े से होते हुए घर पहुंच गई थी। एक स्टील की प्लेट में पानी से भरे गिलास लेकर वो बाहर निकली और कहने लगी, ‘‘दादाजी, लीजिए पानी पीजिए, कुएं का ताजा पानी है, एकदम ठंडा है।’’ तभी मेरी चेतना जागी और मैंने तपाक्ï से कहा, ‘‘श्रीमान, आप हेलीकाप्टर के साथ मिनरल वाटर लाए होंगे। किसी को भेजकर बुलवा लेते हैं। कुएं का पानी क्या आप पी पाएंगे? कहीं गला खराब हो गया तो यहां न तो कोई डॉक्टर है न ही कोई नाड़ी पकड़ वैद्य।’’ मेरा इतना कहना ही था कि वे ठहठहाकर हंस पड़े और पानी का ग्लास उठाते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘मैं तो आपका परिचय लेना ही भूल गया। अच्छा ये बताइए आपका क्या नाम है और आप यहां क्या करते हैं?’’ ‘‘जी सर, मेरा नाम गोवर्धन है। मैं यहां पर विगत 20 साल से प्राइमरी में पढ़ा रहा हूं।’’ मैंने कहा। ‘अच्छा-अच्छा तो तुम मास्टर हो, तभी इतना अच्छा बोल बता लेते हो। (और पानी से हलक गीला करते हुए) अच्छा तो ये बताओ मासाब कितने शिक्षक हैं यहां पर?’ ‘मुझे मिलाकर कुल चार।’ ‘और तो दिखाई नहीं पड़ते।’ ‘दरअसल बात ये है श्रीमान्ï कि वे दूर शहर से आते हैं। दो-चार माह में एकाध बार आ जाते हैं। वो भी तनखाह लेने के लिए। तनखाह लेकर गए कि फिर पता नहीं कब आ पाएंगे?’ ‘क्यों? वे स्कूल नहीं आते तो फिर करते क्या हैं?’ ‘ऐसा है श्रीमान्ï, एक मासाब ने अपनी पत्नी के नाम डाकघर बचत योजना के अंतर्गत एजेन्सी ले रखी है। जाहिर है कि वे पैसा क्लेक्शन में व्यस्त हो जाते हैं। दूसरे ने अपनी शोभा कन्स्ट्रक्शन कंपनी खोल रखी है। ठेकेदारी करते हैं। मकान/बिल्डिंगें आदि बनवाते हैं। और तीसरे मासाब हमारी यूनियन के लीडर हैं। ये हम लोगों के हक के लिए सरकार से लड़ते रहते हैं। उन्हीं की मेहनत का फल है कि अब हमारी अच्छी तनखाह बनने लगी है,’ मैंने कहा। ‘‘तो तुम मास्टरी के अलावा कुछ नहीं करते?’’ ‘‘नहीं श्रीमान्ï नहीं। मैं कुछ भी नहीं कर पाया। कोरा मास्टर बना बैठा हूं। गांधीजी ने एक बार आम सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि पढ़-लिखकर गांवों में चले जाना चाहिए। वहां ग्रामवासियों को भी शिक्षित बनाना चाहिए तभी हिन्दुस्तान में सही आजादी आ पायेगी। पता नहीं उनकी बात सुनकर मुझ पर क्या पागलपन छाया कि मैं शहर छोडक़र गांव आ गया। और फिर यहां का ही होकर रह गया। सुना है कि सरकार शिक्षकों का सम्मान करती है। तभी से श्रीमान मेरी भी एक इच्छा है कि मुझे राष्ट्रपति जी से विशेष सम्मान मिले।’’ ‘‘जैसा कि मैं देख भी रहा हूं कि तुमने गांव के लिए काफी कुछ किया है। तुम्हें अब तक तो सम्मान मिल जाना चाहिए था।’’ थूक से गला तर करते हुए मैंने कहा, ‘‘श्रीमान्ï, अभी तक आपने अपना परिचय नहीं दिया और हम हैं कि बड़बड़ किए जा रहे हैं।’’ इसी बीच पत्नी ने हांक लगाई, ‘‘अजी सुनते हो, वो डिराईवर साहब कब के बाहर खड़े हैं, तनिक उन्हें अंदर तो बुला लो।’’ अपनी भूल को छिपाते हुए मैं खीं-खीं करके हंस पड़ता हूँ और उनसे अंदर आने को कहता हूं। फिर पत्नी की ओर मुखातिब होते हुए मैंने उन्हें समझाया कि जीप-मोटर चलाने वाले को ड्राईवर और हवाईजहाज चलाने वाले को पायलट कहते हैं। मैं कुछ निर्देश दूं इससे पूर्व ही वह गरमा-गरम पकौड़े और चाय लेकर आई। एक हिलिंग डूलिंग मेज पर उन्होंने प्लेट करीने से जमा दिया और एक तरफ पानी से भरे गिलास एवं एक लोटा। पकौड़ों की प्लेट उनकी और पायलट साहब की ओर बढ़ाते हुए मैंने अपनी बात जारी रखी, ‘‘तो श्रीमान्ï अपना परिचय तो दीजिए।’’ ‘‘मासाब मेरा नाम भारत है।’’ ‘‘जाहिर है कि आप मनोज कुमार तो नहीं हैं मैंने उनकी फिल्म देखी है। मैं रूबरू तो नहीं, पर उन्हें पहचानता जरूर हूँ।’’ ‘‘अरे नहीं भई मेरा नाम भारत है भारत। तुम चाहो तो मुझे हिन्दुस्तान भी कह सकते हो या फिर मॉय इंडिया।’’ ‘अरे आप तो अच्छा-खासा मजाक भी कर लेते हैं,’’ मैंने दांत निपोरते हुए कहा। ‘तुम मुझे भारत मानने को तैयार नहीं इसमें मेरा क्या कसूर है। तुम मान लो तब भी और न मानो तब भी मैं भारत हूं और भारत ही रहूंगा।’ ‘अच्छा भाई भारत ही सही। पर ये तो बताइए आप रहने वाले कहां के हैं और आपकी उम्र क्या है? आप क्या करते हैं? हेलीकाप्टर में बैठकर आए हैं जाहिर है कि आप बहुत बड़े बिजनेस मैन हैं अथवा कोई धन्ना सेठ?’ ‘सुनिए मासाब, मैं किसी एक प्रदेश में रहता हूं तो बताऊं (आकाश की तरफ सिर उठाकर देखते हुए) मैं तो सारे प्रदेशों में एक साथ रहता हूं वैसी मेरी उमर तो हजारों हजार साल की है और वर्तमान में 50 वर्षों की। मेरे हजारों-लाखों की तादाद में बच्चे हैं। कई बड़े-बड़े कल कारखाने चला रहे हैं तो कई खेती कर रहे हैं यानि सुई से लेकर हवाईजहाज तक बनाते हैं। मैं उनकी मेहनत-मशक्कत से काफी खुश हूं और साथ ही दुखी भी हूं।’ ‘दुख किस बात का श्रीमान्ï?’ मैंने पूछा। ‘कुछ ऐसी भी निठल्ली बेईमान औलाद निकली जिसने मेरी नजरों से छुपाकर करोड़ों-अरबों का गोलमाल किया। यहां तक कि भोली-भाली जनता को मेरे प्रिय गांधी के नाम का हवाला देकर बड़े-बड़े हवाला कांड खड़े कर दिए और न जाने सहस्रों रुपयों के घोटालों का पहाड़ भी खड़ा कर दिया। नकली चमक-दमक के चक्कर में विदेशों से भी कर्जा लेने लगे। स्वदेशी स्वावलम्बन तो वे भूल ही चुके हैं। गरीबों के नाम पर योजनाएं चलाते और अपनी गरीबी दूर करने से भी नहीं चूकते और कहते हैं कि हम सूरज की ओर चार कदम बढ़ा चुके हैं। पता नहीं, इनके मन में सम्पत्ति बनाने की ललक क्यों पलने लगी है।’ उन्होंने एक सांस में पता नहीं कितना कुछ बोल डाला। ‘अरे छोडि़ए भी साहब घर गिरस्ती की बातें। ये बताइए आपका पूरा शरीर जख्मी दिखलाई पड़ रहा है। क्या राज है?’ मैंने अपनी ओर से प्रश्न उछाला। ‘मेरी कुछ संतानें ऐसी भी हो चुकी हैं जिस पर भारत ही क्या समूचा संसार भी गर्व करता है, उनका आदर करता है। उन्होंने मेरी सेवा में अपना संपूर्ण जीवन, सारा सुख-वैभव तक न्यौछावर कर दिया। आज भी ऐसी संतानें हैं जो भरपूर फसल उगाते हैं, अपना स्वयं का पेट पालते हैं और पूरे देशवासियों का भी। कुछ तो चौखट पर खड़े होकर शत्रुओं के हमलों से मेरी हिफाजत करते हैं और हंसते-हंसते अपने प्राण तक न्यौछावर कर देते हैं। लहलहाती फसलें, हरे भरे वृक्ष देखकर मेरी तबीयत खुश हो जाती है। बच्चों के मन में दया का भाव, प्रेम-ममता, करुणा, आदर्श और त्यागमय जीवन-समर्पण आदि देखकर तबीयत गद्ïगद्ï हो जाती है। यह मुझे हमेशा प्राणवायु की तरह ताजगी देते रहती है। यही कारण है कि मैं हमेशा हृष्ट-पुष्ट दिखाई देता हूं और दुख इस बात का है कि मेरा छोटा लडक़ा खोटा सिक्का निकला। लड़-झगडक़र अलग रहने लगा। उसकी लिप्साएं उसका कपटपूर्ण व्यवहार आज भी उतना ही है जितना पहले कभी था। बात-बात में हथियार निकाल लेता है। गोला बारूद से ऐसे खेलता है जैसे दीपावली में छोटे बच्चे टिकली वाला तमंचा चलाते हैं। मेरे सिर पर, कंधों पर जो घाव देख रहे हो न मासाब, ये सब उस नामुराद की वजह से ही हैं। मेरी छाती में तथा पैरों में जो घाव रिसते देख रहे हैं न, ये भी उसकी कारस्तानी है। मेरे मन में यही दु:ख बार-बार सालता रहता है कि वह कब होश में आयेगा। इन जख्मों से मुझे दर्द इसलिए भी नहीं होता कि मेरे अपनों ने ही जख्म दिए हैं। कोई और होता तो… तो पता नहीं मैं क्या-क्या कर डालता। मेरे मन में अब भी यही आशा है, विश्वास है कि वह एक दिन अपने किए पर पछतायेगा। उसकी आंखों में पश्चाताप के आंसू जिस दिन छलछला आएंगे उस दिन मेरे ये सारे जख्म अपने आप भर जाएंगे।’ बोलते-बोलते भारत जी को पता नहीं क्या हुआ— तेजी से कुर्सी पर से उठे और तेज चाल चलते हुए हेलीकाप्टर के पास पहुंचे। पायलट भी पीछे-पीछे सरपट भागा जा रहा था। उन्होंने उसे चालू करने की आज्ञा दी और फर्र से उड़ गए। मैं पीछे-पीछे भारत जी, भारत भाई चिल्लाते-चिल्लाते भागा जा रहा था, तब तक तो वे आकाश की ऊंचाइयों पर पहुंच चुके थे। मेरा इस तरह चिल्लाना-चीखना देखकर पत्नी जागी और कहने लगी क्या कोई सपना देख रहे थे। मैंने चेतना में लौटते हुए कहा, ‘हां, सपने में भारत जी आए थे।’

1 Comment on कहानी समकालीन-माई इंडियाः गोवर्धन यादव/ अगस्त सितंबर 2015

  1. कहानी एवं आलेख प्रकाशन के लिए धन्यवाद.

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