विदा
तुम चले जाओगे…
पर थोड़ा-सा यहाँ भी रह जाओगे
जैसे रह जाती है
पहली बारिश के बाद
हवा में धरती की सोंधी-सी गंध
भोर के उजास में
थोड़ा-सा चंद्रमा
खंडहर हो रहे मंदिर में
अनसुनी प्राचीन नूपुरों की झंकार।
तुम चले जाओगे पर
थोड़ी-सी हँसी
आँखों की थोड़ी-सी चमक
हाथ की बनी थोड़ी-सी कॉफी
यहीं रह जाएँगे
प्रेम के इस सुनसान में।
तुम चले जाओगे
पर मेरे पास रह जाएगी
प्रार्थना की तरह पवित्र और अदम्य
तुम्हारी उपस्थिति,
छंद की तरह गूँजता
तुम्हारे पास होने का अहसास।
तुम चले जाओगे
और थोड़ा-सा यहीं रह जाओगे।
-अशोक वाजपेयी
संग
सूरज की सुनहली रश्मियों में लिपटी
वह
बारजे पर खड़ी रही
पहाड़ अपनी समूची सतह फैलाए हुए
हाथी जैसी पीठ पर सूर्य को लाद लेने का उपक्रम कर रहे थे
साड़ी का गहरा हरापन सुनहले नारंगी बूटों को संभालता
खड़ा था
सबके पीछे खड़ा था उसका मन
जो
उस वक्त उदास होना चाहता था
वह नहीं चाहती थी उदासी
मन को संभाले समेटे वह खड़ी रही
शाम की रंगीन बूंदों के संग उसका चित्त भरम में डूबता
उतराता रहा
वक्त
डूबने उतराने के भरम के बीच बीतता रहा
स्वयं को निरपेक्ष भाव से निहारता उसका मन
उसके संग खड़ा रहा
वह स्वयं के संग
संग उसे चाहिए था
वक्त का दिया हुआ संग
उसके मन में
मन उसके संग
विचारों की गंध के पीछे बढ़ने पर
उबड़ खाबड़ धरती को समेटती घाटी सामने थी
घाट खंड के पांव पर लहराती बल खाती काली सड़क
दूर पहाड़ों पर ष्यामलता की झाईं
और
पहाडि़यों की परतों के पीछे सूरज का सुनहला पीला थाल
अचानक
क्षितिज पर स्थित दमकती अदृष्य लकीरें
सूर्य के पग संभालने में अति व्यस्त हो उठीं
तभी शाम दौड़ती आई
पीले पुष्प और लाल कलियों के मनके से लदीं झाडि़याँ
घास की पर्त के पीछे पसरी धरती
धुंएँ की लकीरों के मध्य बँटा आसमान
सभी कुछ उसके करीब
कोई भी
उसके करीब न था
–इला कुमार
यूं ही चलते हुए …
यूं ही चलते हुए रुका होगा
फ़िर तेरे शहर में लुटा होगा
उसकी आँखें बहुत छलकती हैं
वो समंदर से खेलता होगा
ख़्वाब आते हैं बंद पलकों में
रात भर जागने से क्या होगा
आज माँ बाप की दुआ ले लूँ
मेरा आँगन हरा भरा होगा
कुछ तुम्हारी जफ़ा से टूट चुके
कुछ मुक़द्दर में ही लिखा होगा
रूठकर चल दिया मगर ‘तनहा’
फ़िर किसी मोड़ पर खडा होगा
– प्रमोद कुमार कुश ‘ तनहा ‘
तुम्हें विदा कहने से पहले
डरती थी तुम्हारे जाने से
इतना कि उठ जाती पसीने-पसीने
जबरन् भरी नींद दुस्वप्नों से
तुम कहते- पर, जाना तो होगा…
जाते हैं सभी एकदिन-
और मैं सोचती यदि ऐसा ही
तो क्यों उलझें नेह की डोरियो में
आंसू-मुस्कान की लड़ियों में
कि असह्य हो जाए बिछुड़ना !
तभी तुम आ जाते हंसते मुस्कुराते
पूछते-अच्छी तो है बेटा
और मैं फुदक जा बैठती
तुम्हारे नेह की लहलाती डाल पे
आज तुम नहीं, पर मैं हूँ
कल मैं नहीं, पर वे होंगे
जिन्हें चाहा उतना ही…
जीते सभी और जिएंगे
हंसते-मुस्कुराते
यादों में रख जिन्दा
आखिरी सांस तक
जीने के लिए कितना जरूरी
भूलना वक्त-बहेलिए को..
-शैल अग्रवाल
बिछड़ने का गीत
चले जाओ दूर समंदर के पार
घने जंगलों में स्वर्ग-सी चमकीली किसी धरती पर
अब मैं तुम्हें नहीं पुकारूँगा
नहीं कहूँगा कि तुम्हारे होंठ बहुत खूबसूरत हैं
और मैं अपने होंठ से वहाँ
एक झरने की तस्वीर बनाना चाहता हूँ
कि तुम्हारी देह पर रोपना चाहता हूँ
गुलमुहर का एक पेड़
कि बचपन से शब्द जो सँचकर रखा था
जिसे खर्चना था मुझे प्रेम कविताएँ लिखने में
तुम्हारे नाम
उन शब्दों को मैंने अब अपने लहू में मिल जाने दिया है
तुम चले जाओ
कि अब कभी गुलमुहर के खिलने का मौसम नहीं आएगा
हवा नहीं बहेगी दो लटों को एक साथ उड़ाती
बारिश नहीं होगी कभी
दो हथेलियों पर एक साथ
दो जिह्वाएँ नहीं उचरेंगी
एक ही शब्द एक साथ गहन एकांत में
किसी पहाड़ी पर सीतलहरी बीच
हम एक दूसरे को स्वेटर की तरह बुन नहीं पाएँगे
हां, तुम चले जाओ
इससे पहले कि समय मर जाय हमारे बीच
ऑक्सिजन जैसी किसी चीज के अभाव में
पृथ्वी यह रसातल में चली जाए काँपती थरथराती
अंधकूप बन जाय यह अंतरिक्ष
तुम चले जाओ
कि मैं फिर से लौट सकूँ अपनी ही अँधेरी खाइयों में
गहरे पाताल बीच
सदियों से गुम एक ढिबरी शब्द की तलाश करता।
-विमलेश त्रिपाठी
जैसे
जैसे नीरव एकाकी पथ
रात चांदनी हो या घोर अंधेरी
सोता नहीं
जैसे कितनी भी तैयारी कर ले
शिशिर बसंत का हिस्सा
होता नहीं…
कई बार
चाहकर भी नहीं मिल पाती नदी
दोनों किनारों को
नहीं बांट पाती यह खुद को
बराबर दो पाटों में
बढना ही पड़ता है कईबार
मजबूरी नहीं, जरूरत है
यह भी एक जिन्दगी की
पीछे ना मुड़ना
कितना भी चाहो लौटना…
यादों के पत्थर
और कीचड़ में लिपटी
फूल और सुगंध तो देगी
पर लौट नहीं सकती जिन्दगी
नदी की तरह
खुशियों के उस उद्गम पर
जिसे अलविदा कहकर
आगे बढ़ आई थी …
-शैल अग्रवाल
कैसे भूलूँ क्या याद करूँ?
राहों का अनजानापन,
अपनों का बेगानापन.
ले गया तुम्हें मुझसे दूर,
तोड़ गया संबंधों की डोर.
कैसे भूलूँ, क्या याद करूँ?
तुम हो गए नज़रों से दूर.
सूनी राहों पर टिकी निगाहें,
खोजती हैं तुम्हारी परछाईं.
नयनों में दो दीप लिए हुए,
तुम्हें ढूँढ रही मेरी तनहाई.
शाम के सुरमई अँधेरों में,
एक पहचानी सी सदा आती है.
जो जाने-अनजाने मुझे तुम्हारी ,
यादों के आँगन में ले जाती है.
जान कर भी कि इस जहान में
वजूद तुम्हारा मौजूद नहीं है
फिर भी हर आहट तुम्हारे यहाँ होने का
अहसास करा जाती है.
कैसे भूलूँ क्या याद करूँ?
तुम हो मेरी नज़रों से दूर.
अनजानी राहों का अनजानापन,
अपने ही अपनों का बेगानापन
ले गया तुम्हें मुझ से दूर. तोड़ गया
संबंधों की डोर.
कैसे भूलूँ क्या याद करूँ ?
तुम हो मेरी नज़रों से दूर
-शील निगम
तानाबाना
जुनून यह कैसा
यह कैसी विदा है
धरती आकाश से लेकर
काल्पनिक क्षितिज तक
फैला रहता है क्यों रंग वही
सिंदूरी नेह भरा…
क्यों मिलते और बिछुड़ते रोज
पर अलविदा नहीं कह पाते
ये धरती और सूरज …
क्यों आस की हथेली पर
नाम एक गुदने सा गुदा
थकें ना ऊबें ये भी संग घूमते
परिक्रमा देती है धरती
तारों-सा छिटकाए खुद को
जलाए रखती आस का दिया
आसान है बिछुड़ना तन से
क्यों जगह या वस्तुओं-सा
दूर हो जाना मन से
आसान नही !
तानाबाना रचती हैं आंखें
इस छोर से उस छोर तक
बिखरा रहता पर
रंग वही बिखरा हुआ
रीती होती जब जब रोशनी की गागर
विदा की वेला में
क्यों तोड़कर घनी उदास बदली
धनक अलबेली देता है वह
खिलखिलाता है फिर सूरज
ओढ़ सुरमई चूनर तारों वाली
चांद बनकर चमकता !
-शैल अग्रवाल
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