कहते हैं विदा या विछोह शब्दकोश का सबसे दुखदायी शब्द है। पर पुराने को विदा तभी तो नए का स्वागत संभव है। प्रकृति और जीवन दोनों में ही तो यही क्रम और नियम दिखता है। क्या इसके बिना भी जीवन संभव है ! पेड़ से विदा लेते पत्ते हों या फिर जीवन से विदा लेती अंतिम सांस, मानती हूँ, विदा शब्द संभवतः शब्द-कोष का सर्वाधिक त्रासद शब्द है, विशेषतः तब, जब पुनः मिलने की कोई उम्मीद ही न हो। पर यह भी तो एक अपरिहार्य सच ही है कि समस्त सृष्टि ही इसी बनने और बिगड़ने- यानी सृजन और विनाश पर ही चलती है। कुछ भी तो थिर नहीं है यहाँ पर। जो है उसे जाना होगा और जो नहीं दिख रहा वह आएगा कल उसकी जगह लेकर , नए रूप, नए भाव के साथ। यही नियम है इसका। यही संरचना है इसकी-नया आए, पुराना जाए। कोई पक्षपात नहीं, ना ही कोई चयन या उपेक्षा। यंत्रवत बदलते रहते हैं मौसम, इन्सान , सबकुछ।
चाहें या न चाहें, आंसू-मुस्कान का सिलसिला यूं ही चलता रहता है, चलता रहेगा। सोचती हूँ, फिर यह विदा शब्द इतना दुःखद क्यों? कहीं यह भी तो हमारा अपना एक नजरिया, एक स्वार्थ ही नहीं!
बिछुड़ते समय दो ही चीजें साथ होती हैं। आँख में आँसू और पैरों में आंधी। आँख के आंसू कुछ देखने नहीं देते और पैरों की आंधी कहीं थमने नहीं देती। जीवन के किसी न किसी मोड़ पर हम सभी ने अनुभव किया है इसे। अपनों का सानिध्य पाया है फिर खोने या दूर होने का दुःख भी सहा है…कभी-कभी तो फिर कभी न मिल पाने के विषाद और निराशा में घिरकर। जब यह दुःख जीवन का अभिन्न हिस्सा है तो लेखनी का यह अंक इसी पर क्यों नहीं…विशेषकर सितंबर के महीने में, जब श्राद्ध शुरु होते हैं, जब पतझण शुरु होता है, जब अंधेरा शुरु होता है…क्योंकि अंधेरे में घिरकर ही तो रौशनी तलाशते हैं, तलाश पाते हैं।
ऐसी ही मनःस्थिति में लिखी गई बिछुड़ते समय कविता का विशेष महत्व है मेरे लिए और सदा रहेगा । यूँ तो बाबूजी से 20 वर्ष की उम्र में ही बिछुड़ गई थी जब उन्होंने डोली में बिठाकर विदा कर दिया था मुझे और फिर कुछ महीने बाद ही हजारों मील दूर इंगलैंड में जाकर घर बना था मेरा । पर असली अहसास हुआ था अप्रैल 1992 में जब बनारस गई थी और घर पर बाबूजी की चप्पलें थीं, कपड़े थे बस बाबूजी नहीं थे।
अगले 25-तीस साल जीवन और इसकी जिम्मेदारियों ने इतना लपेटा कि लिखना करीब-करीब भूल ही चुकी थी पर 17 नवंबर 1997 की शाम को पांच साल की असह्य वेदना और विकट मौन के बाद ( ऐसा मौन -जिसमें किसी स्वजन को पत्र तक नहीं लिखा था) जाने किस सोच की उंगली पकड़े, मुझे समझाती-सी यह कविता स्वयं ही अवतरित हुई थी । और फिर एक नहीं, जाने कब-कब के कई-कई आंसू पोंछ डाले थे इसने। जैसे स्रोत से निर्झरणी फूट पड़े फिर तो कई कहानी, और कई-कई कविताओं ने जन्म लिया । कविता को भरपूर प्रशंसा मिली श्रोता और पाठकों की। स्वतः ही बी.बी. सी रेडिओ से लेकर देश-विदेश की कई प्रमुख पत्रिकाओं और संकलनों में भी अनायास और स्वतः ही पहुंच गई थी यह। मैं स्तब्ध इसकी और अपनी यात्रा की एक मूक दर्शक मात्र थी, आज भी हूँ।
2000 के आसपास जब यह कविता अशोक सेंगर जी द्वारा निकाले एक संकलन में आई तो गोवा की जेल से सुधीर शर्मा जी का पत्र मिला मुझे । यह मेरी वयस्क दौर की पहली कविता थी और कविता पर पाठक द्वारा मिला पहला पत्र था वह। पत्र ने मुझे एक अभूतपूर्व आत्मविश्वास और उल्लास, अपनेपन से भर दिया । पत्र की लगन और सच्चाई ने मन को छुआ। आज जब इस कविता को आपके साथ साझा कर रही हूँ तो इस ऐतिहासिक पत्र को भी साझा करने का मन करता है। मुझे विश्वास है कि बाबूजी होते तो उन्हें भी यह पत्र अपरिमित सुख देता …वैसा ही जैसा कि उन्हें कभी मेरे बचपन में हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के मुंह से निकले उस वाक्य से मिला था, ‘ धन्य है वो जनक जिसने इस कन्या को जन्म दिया।’ जो उन्होंने मेरे द्वारा 14 वर्ष की आयु में लिखितआलेख -मर्यादा पुरुषोत्तम राम-की प्रशंसा में कहा था, पूरे स्कूल के आगे और स्कूल के खचाखच भरे सभागार में, मंच से। धीर गंभीर बाबूजी की आंख से भी स्नेहधारा बह चली थी तब। उनके चेहरे पर दीप्त वह संतोष संभवतः, मेरे जीवन की एक यादगार उपलब्धि है। कई साल बाद श्री विभूति नरायण राय जी से पता चला था कि सुधीर शर्मा जी उनकी गांव में लाइब्रेरी चला रहे हैं। आज बाबूजी के साथ-साथ उन्हें भी वन्दन करती हूँ कि उनका वह पत्र यूँ मेरी लेखन-यात्रा की प्रेरणा बना।
दूसरी कविता ‘बनारस में’ लिखी गई थी बाबूजी के तर्पण के हप्तों बाद। कहानी ‘ सपना वही एक’ , ‘ भीगता पानी’ और ‘ सुरताल’ भी उन्ही मानसिक उद्वेलन के परोक्ष-अपरोक्ष प्रतिफल हैं।
बाबूजी का जन्म 19 अगस्त 1915 को हुआ था और निधन 1 अप्रैल 1992। मेरे लिए एक साधारण व्यक्ति की असाधारण प्रेरणाप्रद जिन्दगी थी वह…जो सिर्फ दूसरों के लिए ही जिए। आजीवन अपने सिद्धान्त और आदर्शों पर अटल रहे। स्नेह करते तो इतना कि खुद को भी भूल जाते।चाह रही थी कि व्यक्तिगत श्रद्धांजलि की तरह यह अंक इसी दिन , उसी तारीख को पहुंचे पाठकों के हाथ में। पर इसबार तो अप्रत्य़ाशित रूप से ही विशेष तूफान लेकर आया वह दिन। बारबार बस एक ही खयाल बेचैन किए जा रहा था – अगर बाबूजी होते तो 100 वर्ष के होते! समझा रही हूँ खुद को, होते तब न..पर हैं तो नहीं। यादों की उम्र नहीं होती। अमर होती हैं ये। और यह समय, जो दिन महीने सालों में बीतता है, हमारा खुद का बनाया हुआ है । असली समय तो निरंतर है। फिर बाबूजी को विदा कहे भी तो अब 23 वर्ष से अधिक हो चुके हैं! आंसू भीगी आंखें ढूँढती रहीं खोए पल और स्मृति-पन्ने पलटते-पलटते दिन क्या, हफ्तों बीत गए।
कैसे मनाते हैं जन्मशती…विशेषतः उसकी, जिसे अलग ही न किया हो खुदसे कभी, जो मन में ही समाधि बनाकर रच-बस गया हो। जिन्दा हो सोच और आदर्शों में, कैसे दूँ श्रद्धांजलि उसे! जब कभी जीते-जीते बिछुड़ने के डर से नमस्ते या प्रणाम नहीं कहा, अब कैसे कहूँ। जहाँ भी हों आप खुश हों , प्रभु की कृपा की छत्रछाया में हों बस यही प्रार्थना है मेरी।
अंततः उम्मीद नहीं विश्वास है कि माफ करेंगे मुझे यूँ खुद में, अपनी यादों में खो जाने के लिए, इस स्वार्थी विलास के लिए । आभारी हूँ आपके साथ सुखदुख को यूँ साझा कर पाने के इस मौके के लिए। इस अंक में अन्य नियमित स्तंभों के अलावा थोड़ा-बहुत जो भी, जिस भी दबाव या उफान के तहत, बाबूजी के इर्दगिर्द रचा-बुना, साझा कर रही हूँ- जन्मशती की श्रद्धांजलि की तरह , खुद मेरी अपनी सान्त्वना के लिए।
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