हास्य-व्यंग्यः स्टार्टअप हिंदी ! स्टैंडअप हिंदी-गिरीष पंकज

”साथियो, आज हिंदी डे है। हम सब लोग इसे सेलिब्रेट करने यहाँ जमा हुए हैं।
हिंदी हमारी नेशनल लेंगुएज़ है।
इसका फ्यूचर तभी ब्राइट होगा, जब हम सब लोग करेंगे इसके लिए फाइट ।
आय एम् रांग आर राइट?
और हां, हिंदी के डेवलपमेंट के लिए टाइम टू टाइम काम्पीटीशन वगैरह भी होते रहने चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा स्टूडेंट्स इन्वाल्व हों और हिंदी से अटैच हो सकें। हम हिंदी को स्टार्टअप हिंदी और स्टैंड अप हिंदी बना कर रहेंगे। आज के इस ओकेज़न पर मैं तो बस इतना ही कहना चाहूंगा कि बिना डिवोशन के हम लोग अपने ऐम तक नहीं पहुँच सकते। नेवर …एंड नेवर..।”
तालियाँ… तालियाँ… तालियाँ…।
छदामीराम का लेक्चर खत्म और तालियाँ शुरू। उनके लेक्चर से तो मैं भी काफी इम्प्रेस हुआ।
मैंने छदामीराम को बधाई दी और बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया।
मैंने उन पर मखमली प्रहार किया, ”आपने बहुत अच्छा लेक्चर दिया। आप जैसे दो-चार महानुभाव और जन्म ले लें न इस धरा पर, तो हिंदी भाषा का कल्याण ही हो जाएगा।”
लेकिन वह अभी-अभी तालियों का कर्ण-सेवन कर के ही उबरे थे इसलिए असर ही नहीं हुआ।हमारे कथन के गूढ़ार्थ को वह समझ नहीं पाए और बोले-
‘आप करेक्ट फरमाते हैं। हिंदी हमारी मदर टंग है, एंड यू नो बेचारी आज कितनी बैकवर्ड हो कर रह गई है। इंग्लिश के सामने हिंदी को आखिर पूछता ही कौन है, लेकिन हमारे जैसे सन ऑफ इंडिया के रहते हिंदी का कोई नुकसान नहीं हो सकता।”
”बहुत खूब’, मैंने कहा, – ‘हिंदी के लिए आप क्या कर रहे हैं?”
”मैं ? टाइम-टू टाइम पर लेक्चर देते रहता हूँ।विश्व हिंदी सम्मेलनों में भाग ले कर आता हूँ। इसी बहाने विदेश घूम लेता हूँ। बस। इससे अधिक व्हाट कैन आई डू ?”
”अपने बच्चों को हिंदी माध्यम से पढ़ाते होंगे ?”
”बाई गॉड, मैं झूठ नहीं बोलूँगा ।” उन्होंने कहा, ”मैं अपने बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढ़ाता हूँ क्योंकि अगर ऐसा न किया तो हमारे बच्चे बैकवर्ड ही रह जाएँगे। आजकल सारे इम्पार्टेंट इग्ज़ाम तो इंग्लिश में ही होते हैं या फिर इंग्लिश में बोलने या लिखने वालों को ही आजकल इम्पोर्टेंस मिलता है। यू नो। अगर बच्चों को हिंदी से पढ़ाया तो वे क्या बनेंगे? क्लार्क आर प्यून। इंग्लिश मीडियम से पढ़ेंगे तो अफसर बनेंगे, नंबर दो की कमाई करेंगे और जि़ंदगी भर ऐश करेंगे, ऐश।”
”इसका मतलब यह हुआ कि आप कथनी-करनी में अंतर रखने वाले हैं। इसीलिए तो हिंदी की यह गति है. गति नही, दुर्गति है. आप सब लोग हिंदी को सदगति तक पहुंचा कर रहेंगे। ” मैंने उन्हें हौले से घूरा।
वह मुसकरा कर बोले- ”यहीच्च हो रहा है। मेरा मन रो रहा है। लेकिन क्या करोगे,
आजकल डबल स्टैंडर्ड हमारा
नेशनल कैरेक्टर है ।
दोहरा मापदंड ही आजकल
राष्ट्रीय चरित्तर है।
कौन बच पाया है इससे। ऐं ? कौन बच पाता है ? फिर मैं क्यों अलग-थलग रहूँ? मैं अपने बच्चों को हिंदी स्कूल में भर्ती करके आखिर क्या पाऊँ गा ? मैं अपने बेटों को बाबू नहीं बनाना चाहता हूँ।”
”साहेब बनने से क्या फायदा होगा ?”
”प्रॉफिट-ही-प्रॉफिट है मैन!” छदामीराम बोले – ‘हमारे घर में सारी सुख-सुविधाएँ रहेंगी। फ्रिज, कलर टीवी, वॉशिंग मशीन, बेशकीमती कार। यू नो इंग्लिश जानने वाले के लिए प्रोग्रेस के सारे रास्ते ओपेन रहते हैं। हिंदी वालों के सारे रास्ते क्लोज हो जाते हैं।
इसलिए बंधु, मेरी मानो तो
ढोंगी बन जाओ।
बाहर हिंदी की बात करो और भीतर
इंग्लिश का साथइश्क लड़ाओ ।
हिंदी को दासी बनाओ।
…. इंग्लिश को घर की मालकिन। तभी तुम्हारा और तुम्हारी होल फैमिली का कल्याण होगा।”
”लेकिन ऐसा ढोंग तो मुझसे होने से रहा।” मैंने कहा
”तुम डरो मत मैन.” हिंदी प्रेमी बोले – ‘शुरू-शुरू में ऐसा होता है। अंतरात्मा नामक चीज जो है न तुम्हारे भीतर। वह बड़ी भयानक चीज़ है। वह कचोटती है, दुत्कारती है लेकिन धीरे-धीरे इसे कुचलो। तुम पाओगे कि वह मर रही है। एक दिन मर भी जाएगी। तब तुम्हें किसी बात की कोई तकलीफ नहीं होगी। एक दिन तुम खुद ब खुद नंबर एक के शातिर हो जाओगे। हिंदी का खाओगे और इंग्लिश के गुण गाओगे।”
”लेकिन ऐसा करना क्या ठीक होगा ? हमारे वीर शहीदों ने क्या इसी दिन के लिए अपना बलिदान किया था कि एक दिन इस आज़ाद देश की अपनी भाषा तक नहीं बन पाएगी। जिस देश की अपनी भाषा न हो, उस देश के सम्पूर्ण विकास की बात आपको बेमानी नहीं लगती ?”
छदामीराम हँसे- ”तुम ज्यादा इमोशनल हो रहे हो। इसकी जरूरत नहीं है। भई, अँगरेज़ मर गए मगर उनकी औलादों को तो जिं़दा रहना चाहिए न ? लुक मी। हमको देखो। हम चेहरे से काले नज़र आते हैं तो क्या? हम जैसे हजारो लोगों में अँगरेज़ी की आत्मा उतर आई है। अँगरेज़ जैसा कल्चर जीते थे, ठीक वैसा ही कल्चर हम जी रहे हैं और सोच रहे हैं कि यही है राइट च्वाइस अहा। इंग्लिश बोलो, उसी कल्चर में रहो, तो अच्छा खासा इम्प्रेशन पड़ता है लोगों में। सब समझते हैं, सीधे इंगलैंड से चला आ रहा है। कुछ लोगों को अँगरेज़ों से आजादी मिली, हमारे जैसे लोगों को गुलामी की परसादी मिली। इस परसादी को जीवन भर चाटना है।”
हम दोनों की बातें मेरा मित्र गरीबदास सुन रहा था। वह बोला-”क्या ऐसे छदामीरामों के रहते देश सचमुच आजाद हो पाया है? अपनी राष्टï्रभाषा या अपने ही देश की विभिन्न भाषाओं को प्रोत्साहित करने की बजाय विदेशी भाषा को ही अपने जीवन का हिस्सा बना लेने वाले ऐसे लोगों का क्या किया जाए ?”
”बात ठीक है, लेकिन हम लोग कर ही क्या सकते हैं?” मैंने कहा।
”बहुत कुछ कर सकते हैं, लेकिन जिनमें दम होता, वही कुछ कर सकते हैं।”
गरीबदास बोला, ”ऐसे लोगों के खिलाफ अभी एक लड़ाई और बाकी है। अब नारा लगाया जाना चाहिए,
काले अँगरेजो…भारत छोड़ो।
भारतीय भाषाओं का हक मारने वाली मुई अँगरेज़ी…
भारत छोडा़े।
कोई भी भाषा बुरी नहीं होती। बुरा होता है भाषा का गुलाम हो कर देश की आजादी पर प्रश्नचिन्ह लगा देना। छदामीराम के हिंदी वाले भाषण पर खूब तालियाँ पिटी थीं। छदामी कब पिटेंगे ? ऐसे अनेक नकली लोग असली लोगों का हक मार रहे हैं। हिंदी की आड़ में अँगरेज़ी का जहरीला झाड़ बढ़ते-बढ़ते इकहत्तर साल का हो गया है। इस झाड़ की जगह हिंदी का बरगद लगाने के लिए, छदामीराम जैसे लोगों को पहचान कर ठीक करना जरूरी है। तभी भारत का, भारत की राष्ट्रभाषा का सच्चा कल्याण होगा।”
गरीबदास की बात में दम है।
लेकिन अपने में दम नहीं।
सो हम हमेशा की तरह दाँत निपोरते आगे बढ़ गए।


गिरीष पंकज

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