मौरिशस की डायरी-शैल अग्रवाल

एक बेहद खूबसूरत देश है मौरिशस, नीला समुद्र और गहरा नीला स्वच्छ आकाश और बीच में फैली दूरतक समुद्र किनारे फैली सफ़ेद रेत और उनपर बने कई-कई बहुत शानदार और आरामदेह पांचतारा होटल। जो सैलानियों को बार-बार खींचते हैं अपनी तरफ़। कुछ जो बिल्कुल यूरोपियन रुचि को ध्यान में रखकर बने हैं और कुछ जो बिल्कुल भारतीय सान-शौकत और ठाट-बाट के साथ हैं। जिनमें फिल्म-स्टार और कलाकार ठहरते हैं, बौलीवु़ड की फ़िल्में शूट की जाती हैं। दो हफ़्ते के लिए गए थे तो दोनों का ही आनंद लेने का निश्चय किया।
यूरोप वाले का मुख्य आकर्षण शाम के शो और विविध कौकटेल थे। जो चाहे कितने भी महँगे हों ( एक-एक गिलास बीस हज़ार तक का भी) जो शायद कभी छूते भी नहीं।) और दूसरा जो १२ वें हिन्दी सम्मेलन के पास था। उसमें कई कलाकारों से मिले। अलका यागनिक, तत्कालीन मंत्री वी.के सिंह आदि के साथ वेदा में चाँदी के चमचम बरतनों में राजसी व्यंजनों का आनंद लिया। थोड़े अधिक लैविश तरीक़े से गोवा की याद दिलाई मौरिशस ने। बस वहाँ गोवा की तरह भीड़भाड़ नहीं थी। जी भरकर घुमाई तो की ही और खूब आनंद भी लिया पर सबसे अधिक जो याद रहा कि
दो तरह के लोग मिले मौरिशस में, एक वे जिन्हें अपने भारतीय मूल पर गर्व था और भारत से वहाँ के रीति -रिवाजों से जुड़े रहना चाहते थे और दूसरे वे , जिन्हें अगर आप गलती से भी भारतीय कह दो, तो गाली-सा महसूस करते। पिछड़ा और रुढ़ियों में बंधा लगता था भारत उन्हें। जात-पांत और ऊँच-नीच ही नहीं, अमीरी-गरीबी के दो ख़ेमों में बंधा, जो उनके संघर्ष और अर्जित आत्म-सम्मान को नहीं समझता, आज भी नहीं स्वीकारता। जबकि ये यहाँ पर बँधुआ मज़दूरों की तरह लाए गए पूर्वजों के वंशज उन्मुक्त, एक आरामदेह जीवन जीते हैं, उन्मुक्त और रम जैसी मादक संस्कृति में जीते हैं।

उद्घोष

मैं प्रवासी या अप्रवासी नहीं
गिरमिटिया मजदूर भी नहीं
भारतवंशी तो हूँ पर आपका रक्तबीज नहीं
हर बात मानूंगा, हाँ में हाँ मिलाऊँगा
ऐसी अपेक्षा मत करना मुझसे
मौरिशियन हूँ मैं और गर्व है मुझे मौरिशियन होने पर
विगत कल, आज और आने वाले कल पर
अपने पूर्वजों पर जिन्होंने श्रम-पसीने से सींचकर
यह सतरंगी धरती हमें सौंपी
जीने के, कभी हार न मानने के संस्कार दिए…

गर्व हुआ था तुम्हारी यह गर्वीली हुंकार सुनकर
स्वाभिमान देखकर, पर इतना तो बतलाओ, मित्र
पीछे छूटे भारत के लिए, हिन्दी के लिए
प्यार और सम्मान, जुड़ने की यह चाह
शेष तो है आज भी तुम्हारे मन में?

***

एक सवाल

उसने कहा-
डोडो गायब हो चुका है
सौ साल पहले धरती से
मोर एक रंगबिरंगा खूबसूरत
पर कमजोर पक्षी है तुम्हारा
उबार नहीं सकता
डूबते नहीं, मिट चुके डोडो को
कैसा मजाक है यह
पूछ तो लेते कम-से-कम
हमसे कुछ हमारे बारे में
मदद से पहले काश्
जान लेते ज़रूरत को !

ताड़ के इन पेड़ों पर नहीं
गन्ने के खेतों में बहा था
उनका खून-पसीना
जिन्होने हमें रोटी-रोजी दी
जीने की सुख-सुविधाएँ दी
इस धरती को स्वर्ग बनाया
हमारे श्रम को, पसीने के
इन प्रतीकों को पहचानो
मित्र कहते हो तो,
जुड़ना चाहते हो तो,
ठीक से जानो !

उसका हर उच्छवास
शर्मिंदा कर रहा था
सोचने पर मजबूर कर रहा था
क्या बह गए फिर से हम तूफान में
विस्तार और व्यापार के उन्माद में !

***

गलत मत समझना मित्र

संस्कृति की संवाहिका है भाषा
पर संस्कृति का आधार नहीं
भाषा मात्र विस्तार नहीं
भाषा मात्र व्यापार नहीं
भावभरा संवाद भी है भाषा

नए देश, नए तटों पर
खुद ही जा पहुंचेगी यह
प्रेमियों के उर में लिभड़ी लिपटी
जिह्वा पर उनकी
स्वतः ही हंसती किलकती

अपनों को तलाशते आए हैं
जुड़ने की अद्भुत चाह लिए
रंग-रूप चाहे जो भी हो
अपनेपन का अटूट अहसास लिए
गलत मत समझना, मित्र

निश्चल बहती इस नदी में
उतरकर तो देखो
जी भरकर डूबो या तैरो
साधारण-सा दिन भी तुम्हारा
उत्सव ना बन जाए तब कहना !

देख रही थी उन युवाओं को
जो हमें अपना तो मानते थे
पर अपनों से फ़र्क़ समझते थे
जैसे एक बीज जन्म ले नई माटी में
बदल जाएँ रूप गुण और स्वभाव
मूल से हटकर…

***

वह चिड़िया सतरंगी

आ बैठी जो ठीक सामने
चहकती-किलकती
फिर-फिरके चेतना की डाली पे

वह चिड़िया सतरंगी थी

झूमती, उड़ती, मन लुभाती
शाख शाख फुदकती कुतरती
दंश देती परों से तुरंत ही
पात-पात सहला भी जाती

वह चिड़िया रंगबिरंगी थी

जानी, कुछ अनजानी-सी
अनजानी उस धरती पर
जाने-पहचाने गीत गाती
उड़ने को पल पल तत्पर
पास होकर भी बेहद दूर लगी

वह चिड़िया अलबेली थी

आज यहाँ और कल कहीं और
घर, सीमा, कोई देश नहीं
खुले आकाश में
उन्मुक्त उड़ानें भरती

मिलने का सुख इसे था
ना बिछुड़ने का ही दुख
पास आते ही उड़ जाएगी फिर
मुड़-मुड़कर जो निहारती दूर कहीं से

वह चिड़िया लुभाती थी
पंख फैलाए उड़ने को तत्पर
बस एक सपने-सी थी!


-शैल अग्रवाल

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