फागुनी आकांक्षा
चलो मिल बटोर लाएँ
मौसम से वसंत
फिर मिल कर समय गुज़ारें
पीले फूलों सूर्योदय की परछाई…
हवा की पदचापों में
चिडियों की चहचहाहटों के साथ
फागुनी संगीत में फिर
तितलियों से रंग और शब्द लेकर
हम गति बुनें
चलो मिल कर बटोर लाएँ
मौसम से वसंत
और देखें दुबकी धूप
कैसे खिलते गुलाबों के ऊपर
पसर कर रोशनियों की
तस्वीरें उकेरती है
उन्हीं उकेरी तस्वीरों से
ओस कण चुने
चलो मिल कर
प्रेम का मौसम
फूलों!
इस प्यार के मौसम में
तुम्हारी खुशबू ने
सभी का दिल मोह लिया है
भँवरे की गुंजन से
थरथराती पत्तियों में
पुलकन है
हवा के साथ सरसराती
कोपलें भी खुल गई हैं
कितना मधुपर्की रसपगा
अहसास है कि बाँसुरी के
सुरों की तरह
तरंगित हो रहा है जीवन
और एक नदी की तरह
गतिमान है
नीले समुद्र को कहता-सा कि
मुझे तुम्हारे अन्दर समाना है
मेरा स्वागत करो तुम
क्योंकि वसंत के साथ ही
प्रेम का मौसम आता है।
सरहदें
एक भट्टी की तरह
तप रही हैं
साज़िशों के जाल में
फँसीं हवाएँ
मिट्टी के लौंदे पर
काँप कर काटती हैं हवाएँ
समय मौन है -गमगीन माएँ
हर आहट पर
आँखों से घर की ओर
आने वाला पथ नापती हैं
बिछड़े मीत की
राह उड़ीकती हुई
चौंकती हैं पत्नियाँ
बच्चों को बहलाती हैं
जो डरे डरे सहमें सहमें से
भीगी पथराई आँखों से
रात दिन लोहे की
सलाखें लगी खिड़कियों से
सूनी गलियों में
झाँकते हैं
जहाँ पाठशाला की ओर
जाने वाले पथ
बारूदों से सने हैं
बुज़ुर्ग भी
समझ नहीं पाते कि
कैसे मन के भेद मिटाएँ
लहू एक है
किसे समझाएँ ?
उनकी सुरमई आँखों में
ख़ौफ का सपना तो है
पर नींद नहीं
कैसे पलकें झपकाएँ
रह रह कर सरहदों पर
बारूदों की
डरावनी धुनें बजती है
सैनिकों के जीवन भी वहाँ
किसी भुल भुलैया में
ख़ानाबदोश से घूम रहें हैं
इन सरहदों से
दुश्मनी कैसे हटायें
सरहदें तो धुअें की
चौपाल हो गयी हैं
मन की सरहदें भी
भट्टी की तरह तप रही हैं
वहाँ कैसे प्रेम दीप जलायें ?
तुम नारी हो ।”
तुम नारी हो
हिस्सा हो जीवन का
आधी दुनिया ही नहीं
तुम दिवा रात्रि का
सृष्टि द्वार भी हो
उषा फैलाती हो
एक बदली हो ,जब चाहे
बिज़ली बरसाती हो
बहती पुरवाई हो
तुममे ही है ,प्राणों का सम्मोहन
सच कहूं तो तुम ही हो
जग की मुस्कान
इसलिए उडो
पंख फैला कर
खुले आसमान में
क्यूंकि न होगी पूजा
न कोई मसीहा आएगा
तुम्हारी शक्ति सृज़न का
सृजन ही तुम्हें
आकाश दिलायेगा ।
‘नारी विमर्श ।’
यह कैसा विमर्श है
नारी की पहचान
ढूँढ़ने को
मोहल्ले -गाँव -चौपाल
शहर -गलियो में
देश विदेश से
आ रहे हैं प्रबुद्धजन ?
जबकि वह चाँद को छू आई है
ओलम्पिक में धाक जमाई है
खोल कर अपने बँधे पंख
उसने उड़ान में
नयी ऊँचाई पायी है
वो कहना चाहती है
इंसान ना मानों आप
परिंदा मान कर ही
आज़ाद क्यों नहीं छोड़ देते?
एक अदद ज़मीन
और हौंसलों का आसमान
क्यों नहीं छोड़ देते
जहाँ वह उन्मु््क्त उड़ सके
अपने फैले पंखों के साथ
डॉ. सरस्वती माथुर
ए-2,सिविल लाइन
जयपुर-6
गत 2 सितंबर को सरस्वती जी अचानक ही अमेरिका वास के दौरान अपनी अनंत यात्रा पर चली गईं और वहीं पर 6 सितंबर को बौस्टन शहर में उनका अंतिम संस्कार संपन्न हुआ। मित्र, कवियत्री, लेखिका और एक बेहतरीन इंसान सरस्वती माथुर जी को लेखनी परिवार की तरफ से भावभीनी श्रद्धांजलि और संतप्त परिवार व मित्रों संग हार्दिक संवेदना।