कविता धरोहरः महादेवी वर्मा (1)


मिल जाता काले अंजन में
सन्ध्या की आँखों का राग,
जब तारे फैला फैलाकर
सूने में गिनता आकाश;
उसकी खोई सी चाहों में
घुट कर मूक हुई आहों में!
झूम झूम कर मतवाली सी
पिये वेदनाओं का प्याला,
प्राणों में रूँधी निश्वासें
आतीं ले मेघों की माला;
उसके रह रह कर रोने में
मिल कर विद्युत के खोने में!
धीरे से सूने आँगन में
फैला जब जातीं हैं रातें,
भर भरकर ठंढी साँसों में
मोती से आँसू की पातें;
उनकी सिहराई कम्पन में
किरणों के प्यासे चुम्बन में!
जाने किस बीते जीवन का
संदेशा दे मंद समीरण,
छू देता अपने पंखों से
मुर्झाये फूलों के लोचन;
उनके फीके मुस्काने में
फिर अलसाकर गिर जाने में!
आँखों की नीरव भिक्षा में
आँसू के मिटते दाग़ों में,
ओठों की हँसती पीड़ा में
आहों के बिखरे त्यागों में;
कन कन में बिखरा है निर्मम!
मेरे मानस का सूनापन!

चाहता है यह पागल प्यार,
अनोखा एक नया संसार!
कलियों के उच्छवास शून्य में तानें एक वितान,
तुहिन-कणों पर मृदु कंपन से सेज बिछा दें गान;
जहाँ सपने हों पहरेदार,
अनोखा एक नया संसार!
करते हों आलोक जहाँ बुझ बुझ कर कोमल प्राण,
जलने में विश्राम जहाँ मिटने में हों निर्वाण;
वेदना मधु मदिरा की धार,
अनोखा एक नया संसार!
मिल जावे उस पार क्षितिज के सीमा सीमाहीन,
गर्वीले नक्षत्र धरा पर लोटें होकर दीन!
उदधि हो नभ का शयनगार,
अनोखा एक नया संसार!
जीवन की अनुभूति तुला पर अरमानों से तोल,
यह अबोध मन मूक व्यथा से ले पागलपन मोल!
करें दृग आँसू का व्यापार,
अनोखा एक नया संसार!

घोर तम छाया चारों ओर
घटायें घिर आईं घन घोर;
वेग मारुत का है प्रतिकूल
हिले जाते हैं पर्वत मूल;
गरजता सागर बारम्बार,
कौन पहुँचा देगा उस पार?
तरंगें उठीं पर्वताकार
भयंकर करतीं हाहाकार,
अरे उनके फेनिल उच्छ्वास
तरी का करते हैं उपहास;
हाथ से गयी छूट पतवार,
कौन पहुँचा देगा उस पार?
ग्रास करने नौका, स्वच्छ्न्द
घूमते फिरते जलचर वॄन्द;
देख कर काला सिन्धु अनन्त
हो गया हा साहस का अन्त!
तरंगें हैं उत्ताल अपार,
कौन पहुँचा देगा उस पार?
बुझ गया वह नक्षत्र प्रकाश
चमकती जिसमें मेरी आश;
रैन बोली सज कृष्ण दुकूल
’विसर्जन करो मनोरथ फूल;
न जाये कोई कर्णाधार,
कौन पहुँचा देगा उस पार?
सुना था मैंने इसके पार
बसा है सोने का संसार,
जहाँ के हंसते विहग ललाम
मृत्यु छाया का सुनकर नाम!
धरा का है अनन्त श्रृंगार,
कौन पहुँचा देगा उस पार?
जहाँ के निर्झर नीरव गान
सुना करते अमरत्व प्रदान;
सुनाता नभ अनन्त झंकार
बजा देता है सारे तार;
भरा जिसमें असीम सा प्यार,
कौन पहुँचा देगा उस पार?
पुष्प में है अनन्त मुस्कान
त्याग का है मारुत में गान;
सभी में है स्वर्गीय विकाश
वही कोमल कमनीय प्रकाश;
दूर कितना है वह संसार!
कौन पहुँचा देगा उस पार?
सुनाई किसने पल में आन
कान में मधुमय मोहक तान?
’तरी को ले आओ मंझधार
डूब कर हो जाओगे पार;
विसर्जन ही है कर्णाधार,
वही पहूँचा देगा उस पार।

छाया की आँखमिचौनी
मेघों का मतवालापन,
रजनी के श्याम कपोलों
पर ढरकीले श्रम के कन,
फूलों की मीठी चितवन
नभ की ये दीपावलियाँ,
पीले मुख पर संध्या के
वे किरणों की फुलझड़ियाँ।
विधु की चाँदी की थाली
मादक मकरन्द भरी सी,
जिस में उजियारी रातें
लुटतीं घुलतीं मिसरी सी;
भिक्षुक से फिर जाओगे
जब लेकर यह अपना धन,
करुणामय तब समझोगे
इन प्राणों का मंहगापन!
क्यों आज दिये जाते हो
अपना मरकत सिंहासन?
यह है मेरे चरुमानस
का चमकीला सिकताकन।
आलोक जहाँ लुटता है
बुझ जाते हैं तारा गण,
अविराम जला करता है
पर मेरा दीपक सा मन!
जिसकी विशाल छाया में
जग बालक सा सोता है,
मेरी आँखों में वह दु:ख
आँसू बन कर खोता है!
जग हँसकर कह देता है
मेरी आँखें हैं निर्धन,
इनके बरसाये मोती
क्या वह अब तक पाया गिन?
मेरी लघुता पर आती
जिस दिव्य लोक को व्रीड़ा,
उसके प्राणों से पूछो
वे पाल सकेंगे पीड़ा?
उनसे कैसे छोटा है
मेरा यह भिक्षुक जीवन?
उन में अनन्त करुणा है
इस में असीम सूनापन!

महादेवी वर्मा
पीड़ा की कोकिला, हिन्दी की प्रमुख कवियत्री, छाया वाद के चार प्रमुख स्तंभों में से एक।

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