अपनी बातः हिन्दी के पक्ष में

पिछले महीने हुए 11 वें हिन्दी सम्मेलन की कुछ बातें, कुछ यादें मन से लिपटी -लिपटी साथ लौट आई हैं।

चारो तरफ अपनों का मेला था । थोड़ी गपशप , थोड़ा मेल-मिलाप और कुछ खटमिठ्ठी बातें, जो भूलती ही नहीं।

मॉरीशस के पूर्व पीएम अनिरुद्ध जगन्नाथ जी ने कहा कि हिंदी भारतीय संस्कृति की आत्मा है। उन्होंने गिरमिटिया संस्कृति की बात करते हुए बताया कि किस तरह सालों पहले भारत से आए मजदूरों ने मॉरीशस को आज़ादी दिलाई। उन्होंने कहा कि मॉरीशस ने आज जो प्रगति की है, उसमें हिंदी का बड़ा योगदान है। अनिरुद्ध जगन्नाथ जी ने कहा कि अगर भारत माता है, तो मॉरीशस पुत्र बन जाता है। उन्होंने कहा कि हिंदी को यूएन में मान्यता दिलाने के लिए मॉरीशस का समर्थन है। उन्होंने कार्यक्रम का अंत जय मॉरीशस, जय भारत, जय हिंदी से किया।

मॉरीशस में निर्णय लिया गया कि हिंदी को आगे बढ़ाने के लिए और विश्व पटल पर वाजिब हक एवं पहचान दिलाने के लिए जो भी वादे और इरादे किए गए हैं, उन्हें पूरा करने का फ्रेमवर्क बनेगा तथा अगले तीन सालों में इस दिशा में साफ अंतर दिखेगा। अंतिम दिन यानी कि सोमवार 20 अगस्त को इसी भरोसे के साथ मॉरीशस में आयोजित तीन दिवसीय विश्व हिंदी सम्मेलन समाप्त हुआ था।

हमारे अपने विजय कुमार मल्होत्रा जी ने कुछ वर्ष पूर्व श्रीलंका में कहा था कि यदि अंग्रेजी आकाश में उड़ान भरने की भाषा है तो हिन्दी जननी से जुड़े रहने की भाषा। पूरे आदर और श्रद्धा के साथ कहना चाहूँगी क्या अब जब भारत की तूती पूरी दुनिया में बोल रही है तो हमारा धर्म नहीं, कि आपसी मन-मुटाव भुलकार हिन्दी को भी वही सक्षम पर मिलें ताकि हिन्दी भी आकाश में उड़ने की भाषा हो जाए। कम-से-कम भारतीय धराताल और आकाश व परिवेश में तो अवश्य ही!
वाकई में हिन्दी-प्रेमियों के लिए ही नहीं, भारत सरकार के लिए भी हिन्दी-दिवस सिर्फ एक उत्सव ही नहीं, आत्म-निरीक्षण और आत्म-परिक्षण का दिन है। कथनी और करनी दोनों में ही हिन्दी को पूर्णतः आत्मसात् करने की राह पर चलने का दिन है।

यूँ तो सितंबर के महीने में हिन्दी का पखवाड़ा मनाने का पिछले दशक से चलन सा चल पड़ा है और इसका स्वरूप भव्य से भव्यतर होता जा रहा है। परन्तु 11 वें विश्व हिन्दी सम्मेलन से लौटकर मन बेहद अधीर है और कई सवाल मन को निरंतर मथ रहे हैं। क्या है हमारी हिन्दी की दशा और दिशा…क्या हिन्दी के साथ-साथ हमारे देश का , हमारा भी विघटन हो रहा है ? क्या भारत की बोलियों ने , हमारे लालच ने हिन्दी को , भारत की अस्मिता को दफन करने की पूरी तैयारी कर ली है? क्या वजह है कि हम आजादी के 71 साल बाद भी विदेशी भाषा अंग्रेजी को मान्यता दे सकते हैं परन्तु हिन्दी को मान्यता देने के नाम पर आपस में ही लड़ने-झगड़ने लग जाते हैं ?

यदि हमें वाकई में अपने देश से प्यार है तो हमें समझना और मानना ही होगा कि हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है‚ जो आज भी पूरे हिन्दोस्तान को आपस में जोड़े हुए है, जोड़े रख सकती है। हर प्रांत को और हर प्रांत वासी की वास्तविक अर्थों में संपर्क भाषा है। भारत मुख्यतः हिन्दू राष्ट्र है और भारतीय चाहे किसी भी प्रांत का हो‚ चाहे कोई भी भाषा-बोली बोलता हो‚ उसे पासपोर्ट हिन्दुस्तान का ही मिलता है जिसपर हिन्दी में लिखा होता है-पासपोर्ट। सत्यमेव जयते, भारत गणराज्य आदि-आदि हर शब्द हिन्दी में। पंजाबी‚ बंगाली, मराठी, मद्रासी वगैरह का वहाँ इस्तेमाल नहीं होता। पूरे भारत के हर सरकारी कामकाज में पूरी निष्ठा के साथ यही नियम लागू करने की जरूरत है अब। तभी हिन्दी भारत में और विश्व में अपना सही स्थान पा सकेगी क्योंकि इज्जत और इस्तेमाल दोनों ही हमेशा घर से ही शुरु होते हैं। समझ में नहीं आता कि अपने-अपने प्रांत की भाषा के साथ साथ‚ हिन्दी सीखने और अपनाने में अपने ही देशवासियों को इतना परहेज़ क्यों है, जबकि देश की सभी बोली-भाषाएँ सहोदरा हैं- संस्कृत से ही जन्मी हैं?

हर देश की पारस्परिक सम्पर्क और आदान-प्रदान की एक अपनी भाषा होती है , जिसे मातृभाषा कहते हैं और सर्वसम्मति से राष्ट्र भाषा भी यही होती है क्योंकि देश का एक बड़ा तबका इसी भाषा में बातचीत करता है। वह देश की बोलियों को जोड़कर और परिमार्जित करके एक सुसंस्कृत भाषा का रूप ले चुकी होती है। फिर वहां की स्थानीय भाषा-बोलियाँ भले ही अपना वर्चस्व बनाए रखें , परन्तु उससे स्पर्धा नहीं करतीं , उसकी जगह लेने की कोशिश नहीं करतीं और यह देश की प्रगति और कार्य प्रणाली के लिए सही भी है। परन्तु दुःख की बात यह है कि हमारे भारत में ऐसा नहीं। चालीस से भी अधिक प्रांतीय भाषा वाले हमारे देश में कई प्रांत तो ऐसे हैं जो हिन्दी को संपर्क भाषा मानने के लिए ही तैयार नहीं और आजादी के सत्तर साल बाद भी भाषा का मसला ज्यों का त्यों बना हुआ है। यह मसला हमारी एकता और बुद्धिमत्ता पर तो प्रश्न उठाता ही है, देश की प्रगति में भी बाधक है । यही नहीं, पूरे भारत और हिन्दी की स्थिति को भी सबकी आंखों में हास्यास्पद बनाता है।

विश्वीकरण और विदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार से निःसंदेह हिन्दी को मान्यता मिली है, विस्तार हुआ है , परन्तु एक बड़ा नुकसान भी हुआ है। अस्सी के दशक में लोगों ने अंग्रेजी की रोमन लीपि में हिन्दी को कम्प्यूटर के फ्री सौफ्टवेयर एम. एस .एन आदि पर लिखना शुरु किया था, क्योंकि हिन्दी में बातचीत का यह मुफ्त और बेहद आसान तरीका था। हर कोई बिना हिन्दी टाइपिंग सीखे यह काम कर सकता था। बातचीत तक तो ठीक था परन्तु जब अखबारों में खबरें और कविता कहानी की किताबों में भी सस्ते प्रचार के लिए अनुवाद की जगह ऐसे ही भाषा हिन्दी और लीपि अंग्रेजी दिखनी लगी तो स्थिति असह्य हो चली है। अबतो सुना है कि क्रिओल आदि भाषा में भी हिन्दी लिखने के लिए कम्प्यूटर पर सौफ्टवेयर तैयार हो रहे हैं । लीपि नष्ट होते ही भाषा बोली का रूप ले लेती है। उसका अस्तित्व काल के साथ-साथ बोलने वालों के साथ-साथ ही विलुप्त हो जाता है। लिखने व पढ़ने वाले नहीं रह जाते। हमें अपनी गौरवमय भाषा हिन्दी को, जिसकी हजारों साल पुरानी देश की साहित्यिक और आध्यात्मिक श्रेष्ठ विरासत है महज एक बोली बनने से रोकना ही होगा। सभी हिन्दी प्रेमी और हिन्दी अधिकारियों से आग्रह है कि हिन्दी के साथ यह खिलवाड़ बन्द करने की कोशिश करें न कि उसमें सहयोग देने की। भाषा की लीपि नष्ट होते ही वह सिर्फ एक बोली ही रह जाएगी और इतिहास साक्षी है कि भाषा को बोली में तब्दील करना उसे विनाश के कगार पर ले जाने का सबसे आसान तरीका है। जिसे हिन्दी और हिन्दुस्तान से प्यार है या व्यापार और लाभ के लिए हिन्दी की जरूरत है वह सही तरीके से हिन्दी सीखे। सस्ता प्रचार-प्रसार किसलिए , न तो यह टिकाऊ है और ना ही फायदेमन्द।

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लेखनी का आगामी और 2018 का अंतिम अंक आज के तेजी से बदलते मानव-संसार पर है, कितना जरूरी है आज भी इस अंतरिक्ष युग में सुख-शांति के लिए दादी नानियों द्वारा दिया समझौता रूपी रामबाण नुस्ख़ा, क्या अब भारतीय समाज को नए तरह से शिक्षित करने की जरूरत नहीं, विशेषतः जब लिंगभेद मिटता जा रहा है समाज से, नारी वह सभी काम कर रही है , जो कभी सिर्फ पुरुषों का क्षेत्र था, पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चल रही है- फिर भी यह पितृसत्तामय भारत का ही आग्रह क्यों, नारी का निरंतर दमन और रोंदन ही क्यों? साथ-साथ युवा वर्ग का भी भारतीय संस्कार व संस्कृति; परम्पराओं के प्रति असहिष्णु रवैया, उपेक्षित व्यवहार क्यों, पाश्चात्य की यह अंधी नकल क्यों ?

आपकी क्या रॉय है विषय पर? सोचें और बताएँ। रचनाएँ गद्य या पद्य में , हिन्दी या अंग्रेजी में भेजने की अंतिम तिथि 15 अक्तूबर है।

ई. मेलः shailagrawal@hotmail.com

तो फिर मिलते हैं नवंबर के पहले हफ्ते में मित्रों, आगामी त्योहार गणेश चतुर्थी , नवरात्रि आदि की अशेष बधाइयों और शुभकामनाओं के साथ,

-शैल अग्रवाल

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