माह विशेषः घर -चन्द भाव पुष्ष

 

 

 

 

पढ़ लिख गए तो हम भी कमाने निकल गए
घर लौटने में फिर तो ज़माने निकल गए

सूखे गुलाब, सरसों के मुरझा गए हैं फूल
उनसे मिलने के सारे बहाने निकल गए

पहले तो हम बुझाते रहे अपने घर की आग
फिर बस्तियों में आग लगाने निकल गए

किन साहिलों पे नींद की परियाँ उतर गईं
किन जंगलों में ख़्वाब सुहाने निकल गए

ख़ुद मछलियां पुकार रही हैं कहाँ है जाल
तीरों की आऱजू में निशाने निकल गए

‘शाहिद’ हमारी आँखों का आया उसे ख़्याल
जब सारे मोतियों के ख़ज़ाने निकल गए

डॉ.शाहिद मीर

 

 

 

 

 

 
 
 

जिनके जहां हैं घर, वे अब वहां नहीं रहते
लौट जाएंगे हम भी  एक दिन जरूर
उम्र गुजर गई  है बस यही कहते-कहते।

घर की ना कद्र, ढूंढा  किए नए घर
दूर से ही पूछ लेते हैं हाल वो अब
बूढ़े मां-बाप के
लायक सपूत पर ऐसे तो नहीं होते
लौट जाएँगे हम भी एकदिन जरूर
उम्र गुजर गई  है बस यही कहते-कहते।

मेहनत ईमानदारी शब्द निरर्थक, बेजान
बिल नहीं सांप  बनाते हैं बंगले अब आलीशान।
पिंजरे में बन्द देखा हमने शेर पालतू बना
और आदमी करता शिकार एक-दूजे का
घर का पता न मन का ही आज
जीवन का गणित लेनदेन और जोड़भाग
हिसाब ये चुकाए नहीं चुकते

लौट जाएंगे हम भी  एक दिन जरूर
उम्र गुजर गई  है बस यही कहते-कहते।

भटकी फिर एक गौरैया 
ड्रेन पाइप में बना-बना के घोंसले
पेडों की कौन कहे अब तो
जंगल भी आदमियों से नहीं बचते..।.
लौट जाएंगे हम भी एक दिन जरूर
उम्र गुजर गयी है बस यही कहते-कहते।

शैल अग्रवाल

 

 

 

 

 

 

तोड़ने की साजिशें हैं
हर तरफ़,
है बहुत अचरज
कि फिर भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं !

भींत, ओटे
जो खड़े करते रहे
पीढियों से हम;
तानते तंबू रहे
औ’ सुरक्षा के लिए
चिक डालते;
एक अपनापन
छतों सा-
छतरियों सा-
शीश पर धारे
युगों से चल रहे; झोंपड़ी में-
छप्परों में-
जिन दियों की
टिमटिमाती रोशनी में
जन्म से
सपने हमारे पल रहे;
लाख झंझा-
सौ झकोरे-
आँधियाँ तूफान कितने
टूटते हैं रोज उन पर
पश्चिमी नभ से से उमड़कर !
दानवों के दंश कितने
तृणावर्तों में हँसे हैं,
है बहुत अचरज
कि फिर भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं !

घर नहीं दीवार, ओटे,
घर नहीं तंबू,
घर नहीं घूंघट;
घर नहीं छत,
घर न छतरी;
झोंपड़ी भी घर नहीं है,
घर नहीं छप्पर .

तोड़ दो दीवार, ओटे,
फाड़ दो तंबू,
जला दो घूंघटों को,
छत गिरा दो,
छीन लो छतरी,
मटियामेट कर दो झोंपड़ी भी,
छप्परों को उड़ा ले जाओ भले.

घोंसले उजडें भले ही,
घर नहीं ऐसे उजड़ते.
अक्षयवटों जैसे हमारे घर
हमारे अस्तित्व में
गहरे धँसे हैं,
है नहीं अचरज
कि अब भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं ! ,
घर अडिग विश्वास,
निश्छल स्नेह है घर.
दादियों औ’ नानियों की आँख में
तैरते सपने हमारे घर.
घर पिता का है पसीना,
घर बहन की राखियाँ हैं,
भाइयों की  बाँह पर
ये घर खड़े हैं;
पत्नियों की माँग में
ये घर जड़े हैं. आपसी सद्भाव, माँ की
मुठियों में
घर कसे हैं,
क्यों  भला अचरज
कि अब तक
घर बसे हैं-
घर बचे हैं…

ऋषभ देव शर्मा

 

 

 

 

 

 

एक घर सपनों का
तिनके-तिनके चुना
एक घर सपनों का
तिनके-तिनके बुना
इन आंधियों को
पर कौन रोक पाया
एक घर सपनों का
तिनके-तिनके ढहा
तिनके-तिनके बहा
और स्तब्ध खड़ा आदमी
शिला सा जमा देखता रहा
तिनके-तिनके चुनती चिड़िया
हसरत-हसरत ढहा
पर बनते नहीं ये घरौंदे
ईंट गारे बिना कभी…’
-शैल अग्रवाल

 

 

 

 

 

 

चिड़िया बैठी एक डाल पर

चीं चीं चीं चीं चीं चीं करती

अपना गाना सुना रही है

अपना घर वो बना रही है

बच्चों को खाना खिला रही है

सपने अपने सजा रही है

कर्म बंधन में जैसे निशिदन

वह अपने को बांध रही है।

बच्चे बड़े हुए जब उसके

अपनी अपनी राह उड़ चले

कब आएंगे कब लौटेंगे

सूना पड़ा घोंसला अब तक

इंतज़ार में बैठी चिड़िया

अपनी सुधबुध खोती चिड़िया

गाना अब भी गाती चिड़िया

क्या अपना दुःख छिपा रही है

या वो दुखड़े सुना रही है

जीवन संध्या की बेला में

रात्री ने जब किया बसेरा

आंधी आयी तूफां आया

वर्षा ने भी किया बखेड़ा

चिड़िया का घर भीग गया था

अपना सब कुछ बिखर गया था

चिड़िया बिलकुल भीग गयी थी

किन्तु प्रात: की अमृत बेला में

चिड़िया बैठी उसी डाल पर

अपना गाना सुना रही है

मानो आशा की किरण लिए वो

जीवन का सच बता रही है

अपना गाना सुना रही है ।

-मीरा

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