कविता आज और अभीः बाल स्वरूप राही, श्यामल सुमन, हरिहर झा

यह तो होली है दोस्त

ये उड़े-उड़े से रंग कि ये चेहरे उदास,

यह फीकी-सी मुस्कान, मलिन अनमने गान।

क्या ऐसे भी त्योहार मनाया जाता है ?

तन डूब रहा सागर में, तट पर खड़े प्राण!

ऐसा भी कोई रंग घोल कर ले आओ,

जो तोड़ देह की दीवारें पहुँचे भीतर,

अन्तर की अनब्याही साधों को नहला दे-

जी उठे चेतना जिसका गीलापन पीकर!

जो तिरे नहीं केवल काया की फिसलन पर,

रम कर शोणित में मुक्त शिराओं में लहरे,

जो पहुँचे आत्मा की अथाह गहराई तक –

जो सतह नहीं, छू सके हृदय के तल गहरे।

रंगों की यह बरसात अजब-सी लगती है,

जो केवल तन के द्वार बरस कर रह जाए,

जो पीले कर दे हाथ देह की चाहों के-

पर, मन की क्वांरी प्यास तरस कर रह जाए।

रंगों के सागर-बीच हमें जो डुबो रहे,

शायद उन को इस परम सत्य का ज्ञान नहीं,

तन से भी ज्यादा मलिन हमारा अंतर है-

मैला है आंसू भी, केवल मुस्कान नहीं।

रंगों की वह मुस्कान बांधकर ले आओ,

जीवन का सारा रूप नया-सा कर जाए,

उजलाए जिस में मात्र धुमैला गात नहीं-

जिस में धुल कर पूरा व्यक्तित्व निखर जाए।

वह रंग, एक-सी शक्ल सभी की जो कर दे,

वह रंग कि सब को एक सरीखा भिगो सके,

जो सूख न जाए नफ़रत की लपटें छू कर-

बन कर दुलार जीवन का कण-कण डुबो सके।

वह रंग, गुलाबी कर दे हर कुम्हलाया तन,

वह रंग, हृदय के मुरझे अंकुर को जल दे,

वह रंग, शुष्क मुसकानों को कर दे मधुमय-

वह रंग कि फीकी हंसियों पर शोखी मल दे।

यह हमें ज्ञात है, जब भी सिंधु बरसता है,

कुछ शक्लों से नक़ली चेहरे धुल जाते हैं,

कुछ परतें बह जाती हैं जल की धारा में—

अंतर के कुछ आवरण स्वयं खुल जाते हैं।

इस का विरोध कर सकते हैं वे लोग कि जो,

ऊपर से स्वच्छ किंतु भीतर से मैले हैं,

जो बातें करते प्यार-मोहब्बत की लेकिन –

जिन के नापाक इरादे बहुत विषैले हैं।

पर, धुँधले अंधकारमय घर के द्वार खोल,

सब को प्रकाश में बाहर आना ही होगा,

अपना कालुष्य छिपा कर रख न सकोगे तुम-

यह तो होली है दोस्त, नहाना ही होगा।

-बालस्वरूप राही

 

उड़ा दिया है रंग

कोई खेल रहा है रंग, कोई मचा रहा हुड़दंग
मँहगाई ने हर चेहरे का उड़ा दिया है रंग

रंग-बिरंगी होली ऐसी प्रायः सब रंगीन बने
अबीर-गुलाल छोड़ कुछ हाथों में देखो संगीन तने
खुशियाली संग कहीं कहीं पर शुरू भूख से जंग
कोई खेल रहा है रंग, कोई मचा रहा हुड़दंग
मँहगाई ने हर चेहरे का उड़ा दिया है रंग

प्रेम-रंग से अधिक आजकल रंग-चुनावी दिखते
धरती लाल हुई इस कारण काले रंग से लिखते
भाषण देकर बदल रहे वो गिरगिट जैसा रंग
कोई खेल रहा है रंग, कोई मचा रहा हुड़दंग
मँहगाई ने हर चेहरे का उड़ा दिया है रंग

सतरंगी आशाओं के संग सजनी आस लगाये
मन में होली का उमंग ले साजन प्यास बुझाये
ना आने पर रंग भंग है सुमन हुआ बदरंग
कोई खेल रहा है रंग, कोई मचा रहा हुड़दंग
मँहगाई ने हर चेहरे का उड़ा दिया है रंग

श्यामल सुमन

 

मुग्ध हो कर

मुग्ध हो कर देख रहा हूँ
और बह रहा हूँ
अस्तित्व की बाढ़ में
तेरी अविजित मुस्कान
इधर झनझनाती तंत्रियों में शुरू
सामूहिक गान

तू झुलसा रही मेरे अहं को
उमड़ रहा न जाने क्या
झुकती नज़र, कभी उठती नज़र
पर इसके माने क्या ?

फुलवारी कुछ सिमट गई है
और थोड़ी-सी आहट से
कांपने लगी है
तूफ़ान के अंदेशे ने
क्या क्या जुर्म किये
मजबूर हो गया
खुद को सहने के लिये
क्योंकि बिच्छू ने मारा डंक
पावक चेतना पर
एक एक क्षण का बोझ
वाचाल तन-मन

पर जिव्हा ने एक न कही
नीरवता खाये जा रही
क्योंकि हिमालय खड़ा अपनी जगह
और गगन अपनी जगह
अव्यक्त भाव
मैं पिंजरे में बंद पक्षी
देख रहा हूं क्षितिज की ओर !

हरिहर झा

 

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