समझ और सामर्थ के अनुसार घरौंदा सभी बनाते हैं -पशु, पक्षी आदमी सभी । तरह तरह के लघु-विशाल, भव्य और सुन्दर…झोपड़ों से लेकर राजमहलों तक। आदमियों सा ही विविध,व्यापक और रोचक संसार और इतिहास है इनका भी। शुरुवात शायद गुफा और कन्दराओं से ही हुई होगी और आज दो टीन या टाट की झोपड़ पट्टी से लेकर ड़ेन पाइप तक कहीं तो पर्याप्त होते हैं घर कहने को, और कहीं दुनिया भर के ऐश्वर्य और वैभव से भरा महल भी अपर्याप्त और अधूरा ही दिखता है, कईयों को। रूप और गुण की तरह ही औकांक्षा और सपनों की भी तो अपनी-अपनी चाह और उड़ान होती है। फिर उम्रे दराज से उधार मांगकर लाई यह जिन्दगी हर आरजू को कहाँ और कब ठीक-ठीक सहेज व समेट पाई है । फिर भी यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि बहुत प्यार करते हैं हम सभी अपने-अपने घरौंदे से। पेट में रोटी के बाद सिर पर छत या अपनी एक सुरक्षित जगह दूसरी मुख्य जरूरत है किसी भी प्राणी की । जानवर तक पूंछ से हाता खींचकर ही बैठता है। जैसा भी हो और जहाँ भी हो , बहुत प्यार और लगन से ही बन पाता है यह घरौंदा-चाहे नन्ही बया की तिनके-तिनके मेहनत की बात करें हम या फिर आदमी की इस तलाश में आजीवन की भटकन और तिश्नगी की। आज भी आधे-अधूरे और अधबने घरौंदे की एक बस्ती तरसती है, न सिर्फ हर गांव और शहर में ही ,अपितु इन्सानों के मन तक में। जरूरत पड़े तो शेरनी बनकर रक्षा करते हैं कमजोर से कमजोर भी अपने घर की। नन्ही चींटी और बर्र जैसे महत्वहीन प्राणी तक मरने मारने को तैयार हो जाते हैं इसके लिए, कुछ ऐसा लगाव होता है सभी को अपने घरौंदे से।आदमी तो पूरा शहंशाह ही बन जाता है अपने सुरक्षित किले में आकर। यही वजह है कि जहाँ जगह और सुरक्षा मिल जाएः धरती पर , पानी में , पेड़ों पर, यहाँ तक चांद और मंगल ग्रह तक पर इसे बनाने की कोशिश में रत हैं हम। हाँ, यह बात दूसरी है कि बढ़ती सुविधाओं के साथ रुचि और जरूरतों के अद्भुत संग्रहालय बनते जा रहे हैं आधुनिक घर और इतनी विविधता और मानव सभ्यता के लम्बे इतिहास के बावजूद भी खोज निरंतर जारी है।
घर या घरौंदे का वास्तविक महत्व व असली जरूरत जानने व समझने के लिए जिन भाग्यशालियों के पास घर है और जिनके पास नहीं है या जिनसे छिन गया है, उन सभी का मन समझना और जानना होगा हमें। क्योंकि न तो क्षणभंगुर मानव ही अक्षुण्ण है और ना ही उसका बनाया घरौंदा ही। समय धीरे-धीरे सब मिटा या बदल देता है। रुचियाँ भी तो पीढ़ियों के अनुसार बदल जाती हैं और उनके साथ-साथ जरूरतें भी। कहा जाता है कि पिता का बनाया मकान बेटे को पसंद नहीं आता और बेटे द्वारा बनाया उसके बेटे को। क्या है यह घरौंदा -एक सपना…एक तलाश-सुरक्षित किले की, ठहर जाने की अदम्य चाह… या फिर मोह का एक ऐसा बंधन ….एक मकड़जाल, उम्रभर की भटकन , जिससे बच पाना, निकल आना सबके बस की बात नहीं। इस सुख ही नहीं, दर्द को भी समझना है तो हमें एक शरणार्थी की पीर समझनी होगी -जिसे अपने ही घर से खदेड़कर बेघर कर दिया जाता है। या फिर उस बेटी का मन टटोलना होगा, जो आज भी अपने ही घर में मेहमानों की तरह या दूसरों की अमानत की तरह पाली पोसी जाती है-जिसे मायका कभी मरहम बनकर बहलाता सहलाता है तो कभी अपरिचित बना तिरस्कारता और भरमाता है। जहाँ आँखें खोलीं -मां के आंचल और बापू की उंगली में लाड़-प्यार और सुरक्षा पाई वहीं से पराई जान और मान चिड़िया की तरह उड़ जाना, पलटकर न लौटना, आसान भी तो नहीं सबके लिए।
कैसे-कैसे अपने इस अभाव , इस तड़प या संतोष जिसे हम घर या घरौंदा कहते हैं अभिव्यक्ति दी है कवि , लेखक, चित्रकार और फोटोग्राफर ने इन्हें ही सहेजने का लघु प्रयास है लेखनी का यह तेरहवें वर्ष का पहला अंक। उम्मीद है अंक आपको पसंद आएगा और आप अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएँगे।
एकबार फिर रंगों का त्योहार होली आ पहुँचा है , आपके जीवन का हर रंग सदा चटक और सुहाना रहे, इसी शुभकामना के साथ लेखनी होली की कविताओं का रंगारंग संग्रह -रंग-तरंग भी आपके लिए लेकर आई है और होली पर कुछ अन्य जानकारी भी।
मित्रों, चलते-चलते पुनः कहना चाहूंगी-
रंग बिरंगी इस दुनिया में
खेलें तो हम हर रंग से होली
पर मनभाए जो उसमें ही रचें
जी भर भरकर महकें लहकें
दुःख विशाद पास ना आएँ।।
लेखनी परिवार की तरफ से एकबार फिर अपने सभी पाठकों और मित्रों को आगामी रंगोत्सव और रंग पर्व की की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
-शैल अग्रवाल
पुनश्चः लेखनी का मई जून अंक संस्मरण पर है। यात्रा के व्यक्तिओं के, परिस्थितिओं के। यादें जिन्हें भूल पाना आसान नहीं, जिन्हें साझा करने को मन करता है। भेजने की अंतिम तिथि 20 अप्रैल।