माह की कवियत्रीः शबनम शर्मा


दुशाला
थक गई हूँ ज़िन्दगी
के दुशाले बुनती-बुनती
कभी धागा कम पड़ गया
तो कभी रंग रास न आया
फिर भी बुनती चली गई
समय के साथ
और लपेटती गई उस गोल
लकड़ी पर कस कर
धुन सवार थी उसे पूरा करने की
इसलिये हर रोज़ डालती
उसमें जान,
आखिर एक दिन पूरा हो ही गया,
मेरी खुशी का ठिकाना न रहा,
डाले थे उसमें मैंने सातों रंग।
सातवाँ रंग खत्म होते ही
तेज़ी से खोल डाला मैंने,
वो बड़ी गोल लकड़ी से लिपटा
रो रहा था, बरसों में रंग
फ़ीके पड़ गये थे,
धागे कमज़ोर हो गये थे,
कोई भी उसे ओढ़ने-देखने
को तैयार न था,
बस यही शब्द,
क्या ज़रूरत थी इसे बुनने,
सजोने की,
कौन पहनता है
क्यूं बुना तुमने, कितना
ज़ार-ज़ार हो गया
कह कूड़े के ढ़ेर में डाल दिया
जहाँ से मैं उठा लाई
और ओढ़े फिरती हूँ
सोच शायद किसी को
दिख जाये व महसूसस
करे मेरी खुशी

मैं
मैं – मैं नहीं हूँ
बसती है इक़ दुनिया मेरे अन्दर,
कहीं अंगारों के दहकते ढ़ेर
तो कहीं बर्फ की जमी सिल्लियाँ
रेगिस्तानी तूफान, मृगभरिचिका
भी है मुझ में,
कभी पिघलता मोम, तो कभी
तपता लोहा भी हूँ
बहता है कभी ममता का उद्गार
तो कभी नफरतों की हवाएँ,
महसूस व कल्पना होती है
कभी चमकते भविष्य
करोड़ों में खेलते लोगों की सी
संतोष भी है धरती सा
कि उगा है मुझ में बहुत कुछ,
इस धरती माँ का सा
फिर भी ज़िन्दा हूँ,
कह सकती हूँ ये मैं हूँ
ये मैं, सब कुछ समाये
अपने अन्तर मन में।

रचती है नारी
रचती है नारी इक
सुदृढ़ संसार,
बलिष्ठ छाती,
पत्थर से पाषाण दिल,
कीमती तोहफे,
सुन्दर बाज़ार,
नन्हा सा इक विचित्र संसार,
सुन्दर खिलौने,
भीष्मपिता से आदर्श
कृष्ण, राम से देवता,
रावण सा दशानंद
और कई बलिष्ठ हस्तियाँ,
फिर क्यूँ ठुकराई जाती है
क्यूँ बनती है मर्द के हाथ
कसी कठपुतली।
उठ, बता इन्हें, गर तू न होती,
कर क्या लेता अकेला मर्द
वर्ग संसार में,
दूध से रोटी, कपड़े, मकान
के लिए दास है तेरा,
तुझे ही अपना महत्व समझाना होगा।

ये क्या हो गया?
बरसों पहले घूंघट ओढ़े,
प्रवेश इस दहलीज़ का,
दिया गया मुझे साथ वाला
सुन्दर कमरा,
बहुत बरस बीत गये उसमें,
आज भी मेरे मानस पटल
पर बिखरे हैं बच्चों के खिलौने
उनकी किलकारियाँ, किताबें
व कपड़े।
रात के गीले बिस्तर,
नहीं सूखे हैं अब तक,
यादें आँसू बनकर कई बार
बहती हैं दिन में,
साथ खला माँजी-बाबूजी
का कमरा,
जिसमें दो खटिया, इक मेज
उस पर गिलास व पानी
कुछ जोड़ी कपड़े, जूते,
और कोने में मन्दिर,
मनोरंजन के लिए
रात को बच्चों संग खेलना,
उन्हें कहानी सुनाना,
लोरी दे-देकर सुलाना,
वक्त की रफ़तार ने आ दबोचा,
बाल सफेद, दांत कम और
भाषा सहम सी गई
घर में फिर से नई बहू आई,
कि मेरे हाथों ने कमरा खाली
कर दिया,
आ गये हम साथ वाले कमरे में
जहाँ कभी माँ-बापू थे।
बिछी थी आज भी दो खटिया,
मेज व मन्दिर,
भर आया मन, ये सोच
कितनी उम्र है इन चीज़ों की
जो पीढ़ियाँ बदलकर भी
अशान्त नहीं होती,
सिखाती हैं हमें सबक,
ये ही दुनिया का चक्रव्युह है,
जहाँ से शुरु करते हैं
आखिर वहीं खत्म करना है,
आखिर वहीं खत्म करना है।

कुछ लोग
हमारी ज़िन्दगी में आते-जाते
कुछ लोग,
वक्त-वक्त पर सबक अलग-अलग
सिखाते कुछ लोग,
वक्त के परिंदे संग, उड़-उड़
जाते कुछ लोग,
नहीं डोर, न पतंग लुटाते
न जाने कहाँ गिर जाते
कुछ लोग
अपना बन आत्मा झुलसाते
कुछ लोग,
पराये होकर भी ठंडक
पहुंचाते कुछ लोग,
संग वक्त के करवटें बदलते
कुछ लोग,
देख तड़पता मरहम लगाते
कुछ लोग,
तड़प जिनकी, आँखों से
ओझल न हो
वहीं छोड़ मझधार में
चले जाते कुछ लोग,
हर पल, हर दिन कुछ नया
बताते कुछ लोग,
‘बदल गये हैं आप बहुत’
ये भी बताते कुछ लोग,
कई नसीहतें, कई हिदायतें
दे जाते हैं कुछ लोग,
अब जब बचा ही कुछ न
तो क्या बदल पायेंगे कुछ लोग।
सूख गये आँसू, लुप्त हो गई भावनायें,
अब हमसे क्या ले जायेंगे
कुछ लोग।

किताबें
हमेशा हर जगह
कवि से इक सवाल
‘‘कोई किताब छपी है?’’
हर कवि का उसकी
हैसियत मुताबिक जवाब,
भरी हैं उसने डायरियाँ,
खींचीं हैं लकीरें,
आसमान से ज़मीन तक,
कई बारे गूँजी हैं किलकारियाँ
उसकी कविता में,
और हाँ रोये भी हैं प्रेमी,
लिखा है अपनी गृहस्थी
के उतार चढ़ाव संग
कनखियों से देख
समाज की अच्छाई बुराई को,
बेटी की बिदाई और
बेटे की लुगाई को
कभी-कभी फाड़ भी दी हैं
उसने कविताएँ,
चूंकि दर्द से पन्ने चीख उठे थे
कभी रोया, कभी मुस्काया
तो कभी घुटा है कवि
तब कहीं रची है उसने
इक रचना,
न जाने कब से कब तक
लिखता चला गया
कभी दिल के पन्नों पर
तो कभी काग़ज़ के टुकड़ों पर,
बदलते गये शब्द उम्र के साथ-साथ
भरती गई ज़िन्दगी की गई किताबें
छपा न सके, कई मज़बूरियाँ थी
मत पूछना, ‘‘कोई किताब छपी है?’’
क्यूंकि हर कवि इक पुस्तकालय है
संजोए है खुद में अनगिनत
किताबें, जिन्हें पढ़ सको तो
पढ़ लो, चूंकि वो उस कवि
के बाद बंद हो जायेंगी
हमेशा-हमेशा के लिए।

आत्मबोध
आज पहली बार दिल से
इक अजीब सी टीस ने
मुझे आ झंझोड़ा है,
मैं व्यर्थ ही इस डोर के
पीछे-पीछे खिंचती चली
गई कि ये मेरा ये तेरा है,
बड़े इत्मीनान से मैंने अपने
इस घरोंदे की नींव रखी
लाखों बाधाएं आने पर भी
मैं तनिक न हिली, परन्तु
मेरी ईमानदारी, कर्मठता का
ये रूखा-रूखा सिला होगा
ये कदापि सोचा न था
बच्चे पंख पसारे हवा में
उड़ने लगे
मतलबी मुस्कराहटों से
करते मेरा अभिनंदन
आज बेसमझ, बेवकूफ
बन गई हूँ मैं
हमारे घर में सबके कमरे
साथ-साथ सटे हैं
परन्तु दिल न जाने कहाँ-कहाँ
बंटे हैं।
समझ नहीं आता क्या करूँ
किधर जाऊँ, किसे अपना कहूँ
आज तो मेरा अपना शरीर ही
मेरा नहीं है, परायों से आस।

– शबनम शर्मा
अनमोल कुंज, पुलिस चैकी के पीछे, मेन बाजार, माजरा, तह. पांवटा साहिब, जिला सिरमौर, हि.प्र.A मोब. – ०९८१६८३८९०९, ०९६३८५६९२३

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