127 वीं जयंती पर विशेष
(जन्म- 9 अप्रैल, 1893; मृत्यु- 14 अप्रैल, 1963)
127 वीं जयंती विषेश
एक विश्रांत यात्री जिसके विलक्षण जीवन और व्यक्तित्व पर मैं मुग्ध हूँ। आप भी मुग्धता की परिसीमा पार कर आश्चर्य के दायरे में आये बिना नहीं रह सकते हैं, जब महायात्री के जीवन संघर्षों के विराट परिदृष्य में आप उनके अतुलनीय कार्यो को जानेगें।
एक अद्भुत दृढ़ संकल्पित व्यक्ति जिसने जिस भी कार्य को करने की ठानी उसे पूर्ण करने में किसी भी चीज की परवाह कभी नहीं की । वे अपूर्व श्रमशक्ति और अविस्तरणीय प्रतिभा के प्रतीक थे । अपनी जिज्ञासा को अभीत्सा में परिवर्तन करने में महापंडित पूर्णतः दक्ष थे । प्राच्य भारतीय वाड़मय के अधीती, भारतीय संस्कृति के अनुसंधित्सु नीति धर्म एवं परंपरा प्रतिरोपी, सार्वजनीन चिंतक, ज्ञान और अनुभव के अक्षय भंडारक महापंडित राहुल सांकृत्यायन का व्यक्तित्व विश्व साहित्य जगत में विशिष्ट स्थान रखता है ।
घुमक्कड शास्त्र के महर्षि तथा यायावरी जीवन के पुरोधा पद्मभूषण राहुल सांक्त्यायन का व्यक्तित्व प्रखर चिंतक का बहुआयामी था । वे धर्म, दर्षन, साहित्य, समाज, भाशा, विज्ञान, इतिहास, पुरातत्व और राजनीति की विभिन्न नदियों में स्वयं को समाहित कर विशाल समुद्र बन गये । उनका प्रत्येक मत और अनुभव जीवन की कसौटी पर सत्यता के साथ कसा हुआ था। अपनी यायावरी वृत्ति से प्राप्त ज्ञान को स्वयं लेखनी बद्ध करते गये। उनका संपूर्ण जीवन रुढ़ीवादिता और आडम्बर से मुक्त रहा और उनकी कृतियाँ दृढ़ मनोबल असाधारण पुरूषार्थ और अनुशासित कार्यप्रणाली का स्पप्ट प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। हिंदी के शलाका पुरूश महापंडित राहुल अपनी प्रबल इच्छाशक्ति के कारण ही संपूर्ण जीवन या़त्रा कर ज्ञानार्जन करते रहे और सदैव स्वछंदता के प्रेमी बने रहे । दूसरों की स्वतंत्रता में अवरोधक बनना तथा बाधक बनने वाली परंपराओं का उन्होंनें सदैव विरोध किया । उन्होंने समाज की आर्थिक गुलामी को तोड़ने और नप्ट करने मे मजदूरों और किसानों का समर्थन किया । समाज की कुप्रथाओं के कारण ही उसमें व्याप्त पूँजीवाद के जोकों के कट्टर विरोधी बन गये। उनका कहना था कि पूँजीवाद को समाप्त कर साम्यवाद लाने के लिए स्वयं में दृढ़ता और अपनी शक्ति पर विश्वास करना चाहिए ।
अपने स्वतंत्र विचारों और भाषा शैली के कारण उन्होंने धार्मिक आड़म्बरों का खंड़न किया और कहा कि ईश्वर पर भरोसा करके मनुष्य स्वयं को निर्बल बना देता है। उसकी आत्मशक्ति असक्त हो जाती है और कमजोर हो जाता है । वे धर्म को भौतिकवादी मानते थे । उन्होंने कहा -जो धर्म मनुष्य जीवन की समस्याओं और जटिलताओं को सुलझाने में समर्थ हो वही सबसे बड़ा धर्म है। उसे ही सर्वश्रेप्ठ धर्म मानना चाहिए । अपने विचारों की स्पप्टता के कारण ही वे जीवन की महायात्रा में निरंतर धर्म परिवर्तन करते रहे – सनातनी से वैष्णवी, वैष्णवी से आर्य समाजी, आर्य समाजी से साम्यवादी और अंततः बौद्ध मत के आजीवन अनुयायी बन गए। वे किसी भी धर्म की उपयोगिता जीवन की उपयोगिता से जोड़ते थे। जीवन में खरा न उतरने पर वे उसे छोड़ भी देते थे । उन्होनें धर्म का अर्थ – कर्तव्य से संबद्ध किया है और कर्तव्य भी वही जो मानव के हित में हो ।
साहित्य वाचस्पति स्वनिर्मित व्यक्तित्व थे । उन्होंने ईश्वर, परलोकवाद, पुनर्जन्म और धार्मिक विश्वासों में कभी आस्था नहीं की । अपनी अगली पीढ़ी को ही वे पुनर्जन्म मानते थे । एहिक जीवन को त्साग कर परलोक को सुधारने को वे हेय मानते थे । उनके लिए यही जीवन परलोक है । वे एहिक जीवन को ही सुखमय और समृद्ध बनाने में विश्वास करते थे । भगवान बुद्ध के विचारों से प्रभावित होकर वे अनात्मवादी और अनीश्वरवादी बन गए। वे बौद्ध धर्म से इतना अधिक प्रभावित हुए कि उसका गूढ़ अध्ययन-मनन करने के पश्चात ‘‘ श्रीलंका विद्यालंकार परिवेश ‘‘द्वारा सन् 1929 में ‘‘ त्रिपिटिकाचार्य ‘‘ की उपाधी से सम्मानित किए गए । बौद्ध धर्म और दर्शन के ज्ञान की तृषा ने उन्हें दुर्गम और अति कष्टपूर्ण चार तिब्बत यात्राएँ कराईं और तिब्बत के विहारों और मठों की खाक छानकर भारतीय ग्रथों का संग्रह करने पर मजबूर किया । इन तिब्बत यात्राओं में उन्होंने लगभग 150 ग्रंथों का उद्धार किया जिसे पटना संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। उन्होंने केवल विलुप्त ग्रथों की खोज ही नहीं की वरन् अनेक ग्रंथों का संपादन और अनुवादन भी किया । उनके संग्रहित ग्रथों को पुनः प्राप्त कर भारतीय साहित्य कृत कृत हो गया । वे आधुनिक युग के हुएनसांग थे ।
सांस्कारिक आलोक में महापंडित लोकभाषा , लोक चेतना और लोक संस्कृति के अनन्य पोषक थे। उन्होंने विषमतर परिस्थितियों के निमित्त रहकर भी अपनी भारतीय लोकभाषा और संस्कृति का सदैव हित और उत्थान किया । भाषा जन-गण में सामान्य रुप से बोली जाती है वही भाषा है। भाषा किसी विशिष्ट व्यक्ति की सर्जना नहीं है । किसी साहित्य रचना में से यदि जन अनुभवों कहावतों, शब्दों , लोंकोक्तियों और मुहावरों को निष्कासित कर दिया जाए तो वह साहित्य निष्प्राण और व्यर्थ हो जाएगा। यदि साहित्य की उन्नति करनी है तो उसकी रचना और सर्जना जनभाषा और जनपदीय बोलियों में ही होनी चाहिए ।
विश्वस्तर की छत्तिस भाषाओं के ज्ञाता महापंडित ने अपनी कृतियों की रचना हिंदी में ही की है। यह उनके हिंदी प्रेम को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त तमाम अंर्तराष्ट्रीय भाषाओं की अमूल्य कृतियों का हिंदी में अनुवाद करके हिंदी साहित्य कोष में अपना अमूल्य योगदान दिया है। इसके पीछे उनकी सोद्देश्यता यही थी कि सामान्य जन उनकी कृतियों को पढकर जीवन को उन्नतिशील और प्रगतिशील बना सकें। इस संबंध में उन्होने अपने विचार दिए ’’ अन्य बातों के लिए मैं बराबर परिवर्तनशील रहा, किंतु मेरे जीवन में एक हिंदी का स्नेह ही ऐसा है जो स्थायी रहा है।‘‘
उन्होंने खडी बोली में साहित्य रचना के अतिरिक्त भोजपुरी में भी अपने नाटक और ग्रंथों की रचना की । हिंदी को खडी बोली का नाम देने वाले महापंडित राहुल सांकृत्यायन ही थे।
महापंडित उन विचारकों और लेखकों में थे जिन्होंने हिंदी प्रदेश में साम्यवादी व्यवस्था का स्वप्न सबसे पहले देखा था। इस सपने को साकार रुप प्रदान करने में जो भी कुछ तत्कालीन परिवेश में जो संभव हो सकता था, किया । उन्होंने प्रगतिशील आदोंलनों में बडी सक्रियता से भाग लिया । स्वयं वे जीवन पर्यंत प्रगतिशील आदोंलनों से जुडे रहकर इसके लक्ष्यों और सिद्धातों के प्रचार-प्रसार के लिए दुर्धर्ष संघर्श भी करते रहे ।
महापंडित वामपंथी विचारधारा के प्रमुख वैचारिक चिंतक और लेखक थे। उनकी वोल्गा से गंगा, तुम्हारी क्षय, साम्यवाद ही क्यों, दिमागी गुलामी और भागो नहीं दुनिया बदलो जैसी कृतियाँ समाज का आइना हैं । इन कृतियों ने खूब लोकप्रियता प्राप्त की और समाज को आंतरिक रुप से प्रभावित भी किया । महापंडित की उक्त कृतियों का मनन करने के पश्चात यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी संपूर्ण आस्था और विश्वास जीवन और जगत की सत्यता को स्वीकारनें में थी । वह सर्वधर्म, समभाव और धार्मिक सहिष्णुता के प्रचारक थे । उनके विचार से धर्म की अच्छाइयों को ग्रहण कर उसकी बुराइयों का हमें त्याग कर देना चाहिए । अपने जीवन में भी उन्होने इन्हीं विचारों को आत्मसात् किया । वे धर्म के उज्जवल पक्षों को लेकर कलुषित पक्षों को हमेशा छोडते गए ।
वे मानवता में समानता के पोषक थे इसलिए उन्होंने समानता को आधुनिक समाज का सबसे मूल्यवान सामाजिक तत्व माना। राहुल जी महाज्ञानी थे परंतु अपने पांडित्य और बौधिकता की वह लाठी कभी नहीं हाँकते थे । वे अपने तमाम ज्ञान और अनुभवों को जनता में बांट देने के अभिलाषी थे । उनकी महत्वपूर्ण हिंदी साहित्यिक कृतियाँ – जय यौधेय, सिंह सेनापति , विस्मृत यात्री, राजस्थानी रनिवास,मधुर स्वप्न, जीने के लिए, वाईसवीं सदी, सतमी के बच्चे, कनैला की कथा, दिवोदास, मेरी जीवनयात्रा । साहित्य से इतर कृतियाँ – घुमक्कड़ शास्त्र, जिनका मैं कृतज्ञ, मेरे असहयोग के साथी, लेनिन, कार्लमाक्र्स, तिब्बत में बौद्ध धर्म, मानव का इतिहास, किन्नर देश में, हिमालय यात्रा, पाली साहित्य का इतिहास, दर्शन दिग्दर्शन, मध्य ऐशिया का इतिहास, बौद्ध संस्कृति, दोहा कोश, दक्खिनी काव्य धारा, महामानव बुद्ध, घुमक्कड स्वामी, मेरी लद्दाख यात्रा, चीन में क्या देखा, रुस में पच्चीस मास, विश्व की रुपरेखा आदि हैं।
वे जीवन भर ज्ञान की पिपासा में धूमते ही रहे और उनकी यह पिपासा अतृप्त ही रही । इनकी अनेक कृतियां गुम हो गई और अनेकों अभी भी अप्रकाशित ही हैं जिनका प्रकाशन अत्यंत आवश्यक है। वे साम्यवादी चिंतक, सार्वदेशिक दृष्टि, सामाजिक क्रांति के अग्रदूत, और भारतीय मनीषा के अग्रणी विचारक थे। अतिशीलता ही उनका जीवन था। यही उनका धर्म भी था। आधुनिक हिंदी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन एक यात्राकार, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी और युगांतरकारी साहित्यकार के रुप में जाने जाते है।
ऐसे जनयोद्धा और महान स्वप्नदर्षी यायावर को मेरा शत शत नमन ।
डा संगीता श्रीवास्तव
सचिव
महापंडित राहुल सांकृत्यायन
शोध एवं अध्ययन केंद्र
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