पुस्तक समीक्षाः लठ्ठमेव जयते- राजेन्द्र वर्मा

सजग और पैनी दृष्टि का परिचायक: ‘लटृठमेव जयते’

‘लट्ठमेव जयते’ अशोक गौतम का हिंदी व्यंग्य विधा का चर्चित व्यंग्य संग्रह है। वे पिछले लगभग 30 वर्षों से सृजनात्मक साहित्य लिख रहे हैं । कविता और कहानी विधाओं से सृजनात्मक लेखन का प्रारंभ करने के बाद जब अशोक व्यंग्य लेखन की ओर मुड़े तो इस विधा को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया । आज की तारीख में व्यंग्य विधा पाठक वर्ग में सबसे अधिक लोकप्रिय है और जब बात अशोक गौतम की आती है तो यह कहने में कोई अतिवाद नहीं कि सम्पूर्ण उत्तर भारत में इनके व्यंग्य-लेखों का पाठक वर्ग को इंतजार रहता है । वेब-पत्रिकाओं के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इन्होंने अपनी प्रभावपूर्ण उपस्थिति दर्ज करवाई है ।

वास्तव में व्यंग्य विधा के माध्यम से एक संवेदनशील कलाकार राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र से जुड़ी समस्याओं और विसंगतियों को प्रखरता पूर्वक उजागर करता है। अपने ऐसे प्रयास द्वारा वह व्यवस्था से जुड़े हर आमोखास को लगातार सचेत करता है कि कोई है जो उन्हें देख रहा है और इसलिए वे बेलगाम नहीं हो सकते। अशोक गौतम पाठकों को भी बराबर झकझोरते हैं क्योंकि विसंगतियां, अव्यवस्था अथवा अराजकता सिस्टम में व्यक्तिगत और सामूहिक स्वार्थों द्वारा ही पोषित होती है। व्यंग्यकार सहज रूप में ही जीवन की उन विसंगतियों की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास करता है जिन्हें हम सामान्यतः हल्के में लेते हैं।

‘लट्ठमेव जयते’ वास्तव में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ मुहावरे का ही रूपांतर है । संकेत यही है कि हमारी राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था में आज भी लाठी वाला ही भैंस को हांक कर ले जाता है और सुनवाई कोई नहीं। व्यंग्य-संग्रह के अधिकतर आलेखों में वर्तमान राजनीतिक संरक्षण में फल-फूल रहे भ्रष्टाचार को निशाना बनाया गया है । समाज में व्याप्त विसंगतियां, मानवीय संबंधों का उथलापन, धक्काशाही, चापलूसी, मौकापरस्ती तथा विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे साधारण मनुष्य के जीवन की दुश्वारियां विविध रूप में इस संग्रह के आलेखों की विषय-वस्तु बने हैं।

आम आदमी के जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले विषयों पर अशोक जी सबसे अधिक मुखर हैं । ‘यमलोक में करप्शन का शुभारम्भ’ जैसा लेख सर्वव्यापी भ्रष्टाचार पर गहरा कटाक्ष करता है। इस व्यंग्य में बाजार के आकर्षण की अतिशयता को भी निशाना बनाया गया है। ‘चेला बन मौज कर’ व्यंग्य में लोगों के अन्धविश्वास, धर्मभीरुता और परलोक-भीरुता का फायदा उठाते हुए किस तरह ढोंगी बाबा मौज उड़ा रहे हैं इसकी एक बानगी बाबा के ही शब्दों में देखिए, “शब्दों का धंधा करने वाला चाहे संसद में बैठा हो चाहे सड़क पर , चाँदी ही बटोरता है । ……… मेरा चेला हो जा । परेशानी के मारे देवता तक तेरे पास नाक रगड़ते हुए तेरे द्वार आएंगे। वे चरणों की रज तो लेंगे ही तुझे मालामाल भी करेंगे, चाहे उन्हें खुद भूखों क्यों न रहना पड़े। बस फिर मौज ही मौज । हर महीने बच्चों को बुलाया और इकठ्ठा माल उनके हाथों घर भेज दिया ।”

‘भटके कस्तूरों के नाम’ लेख में संतों के चैनल की परिकल्पना करते हुए इंगित किया गया है की धर्म किस प्रकार आजकल फैशन का रूप ले चुका है । मनुष्य की स्वार्थलोलुपता के कारण यह धंधा राजनीति के बाद सबसे अधिक आकर्षण का केन्द्र बन गया है। बतौर व्यंग्यकार ‘हमारे चैनल के संतों के पास ऐसे ऐसे तंत्र हैं कि चींटी भी अपना घर-बार बेच कर कबूतर की तरह उड़ कर लन्दन की नागरिकता पा जाए।’ भाव यही कि ज्योतिष जैसे विज्ञान को स्वार्थी तत्वों ने किस प्रकार अपने लाभ के लिए उपयोग किया है और जब यही काम संतों का चोला पहन कर किया जाता है तो व्यंग्यकार क्षुब्ध भी होता है और मानों कह रहा हो तुम्हारा कमीनापन पकड़ लिया गया है मेरे दोस्त ! किंतु इन्हीं पंक्तियों में आम लोगों की स्वार्थलिप्सा भी ध्वनित है अन्यथा ऐसी दुकानें न चलती। ‘मास्टर जी तुम्हें प्रणाम’ लेख में बड़े प्रभावी तरीके से प्रारंभिक शिक्षा की उन खामियों को उजागर किया गया है जिसके वशीभूत हो कर शिक्षक पढ़ाई-लिखाई के अलावा अन्य दूसरे कामों को करने को मजबूर भी हंै और कदाचित् उसमें उसकी अधिक रुचि भी है।
‘प्लीज कीप मम’, ‘चमचा नेता दोउ बड़े,’ ‘थूको थूको जम कर थूको,’ ‘उनकी हार का कारण’, ‘यों फंसे गुल्फाम’ इत्यादि अनेक लेख राजनीतिक अवसरवाद और भ्रष्टाचार को उजागर करते हैं । ‘पर फूँक तो मत मेरे यार’ व्यंग्य अशोक की पैनी दृष्टि और सधी हुई व्यंग्य शैली का परिचायक है। नेता किस प्रकार चुनाव के समय चुनावी समर में उतरने के लिए कमर कसते हैं। अपने चुनावी चिह्न लालटेन चमकाने का प्रयास करते हुए नेता की मनोदशा की सुन्दर अभिव्यक्ति इस व्यंग्य में हुई है । इसी सटीक और सामयिक व्यंग्य का एक नमूना देखिए- “बाहर से लालटेनवा की धूल झाड़ जब लगा कि लालटेनवा अब दूसरों को ललचाने वाली हो गई तो आवाज दी, रे रामकृपालवा ई तनिक भीतर से केरोसिन तो लाइयो । लालटेनवा जला के देख लेते हैं कि …पर तब याद आया कि …..तो दूसरे को आवाज दी, रे रघुवंशवा, अरे भाई भीतर से जरा केरोसिन तो….फिर अपना दिमाग ठोंकते हुए बोले, अरे क्या हो गया साले इस दिमाग को….जिन्हें आवाज दे रहा हूं वे तो घर में हैं ही नहीं।” व्यंग्य यही कि वे तो पहले ही पाला बदल चुके हैं और यह आम बात है। नेताओं के लिए निष्ठाएं बदलना ऐसे ही है जैसे पैर की जूती बदलना ।
धर्म और महाजनी सभ्यता का जो गठजोड़ हमने मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में देखा है उसकी एक व्यंग्यात्मक झलक ‘कहो माधो कैसी रही’ व्यंग्य में हमें देखने को मिलती है । ‘हे कुत्ते तुझे सलाम’ व्यंग्य में कुत्ता शब्द का लाक्षणिक रूप में प्रयोग द्रष्टव्य है। पड़ोसी की बीवी के मरने पर जहाँ उनके कुत्ते के आंसू नहीं थम रहे वहीं पड़ोसी स्वयं बीवी के मरने के दसवें ही दिन एक दूसरी औरत के साथ हनीमून मनाने निकल पड़ता है ।

संपूर्ण संग्रह पठनीय, प्रशंसनीय और चिंतन योग्य है । अपनी सहज सरल और प्रसंगानुकूल कभी चिउंटी करती तो कभी गुदगुदी करती भाषा से वे आपके आस-पास के परिवेश को पुनर्रचित कर नए रंगों के साथ आपकी आँखों के समक्ष प्रत्यक्ष कर देते हैं। ऐसे छोटे-छोटे प्रसंग जिनको हम अक्सर उपेक्षित कर देते हैं अनायास ही अशोक के व्यंग्य का हिस्सा बन जाते हैं। स्पष्ट है व्यंग्यकार की आँखें, कान और रोम-रोम परिवेश और परिस्थितियों के प्रति एक-दम सजग हैं और हर स्थिति-परिस्थिति के प्रति उनकी त्वरित प्रतिक्रिया व्यंग्य का रूप धारण कर लेती है। वे अपने पाठक के सामने स्थितियों को उघाड़ कर रख देते हैं और चुनौती प्रस्तुत करते हैं कि कब तक आप इनकी उपेक्षा करते रहेंगे तथा धार्मिक और राजनीतिक पाखंडों के शिकार अथवा मोहरा बनते रहेंगे ।

लट्ठमेव जयते, पृष्ठ, 160, नीलेश प्रकाशन, नई दिल्ली-110051, मूल्य 300रुपए।

डॉ. राजेंद्र वर्मा
‘श्यामकला’ ग्राम: कठार, पत्रालय: बसाल, तहसील व जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश-173213

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