गजलः असरार उल हक ’मज़ाज’


ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं,
जिन्स-ए-उल्फ़त का तलबगार हूँ मैं

इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी,
फ़ित्नः-ए-अक़्ल से बेज़ार हूँ मैं

ख़्वाब-ए-इशरत में है अरबाब-ए-ख़िरद,
और इक शायर-ए-बेदार हूँ मैं

छेड़ती हैं जिसे मिज़राब-ए-अलम,
साज़-ए-फ़ितरत वही तार हूँ मैं

रंग-ए-नज़ारा-ए-कुदरत मुझसे,
जान-ए-रंगीनी-ए-कुहसार हूँ मैं

नश्शः-ए-नरगिस-ए-ख़ूबां मुझसे,
ग़ाज़ः-ए-आरिज़-ओ-रूख़सार हूँ मैं

ऐब, जो हाफ़िज-ओ-ख़य्याम में था,
हाँ कुछ उसका भी गुनहगार हूँ मैं

ज़िंदगी क्या है गुनाह-ए-आदम,
ज़िंदगी है तो गुनहगार हूँ मैं

रश्क-ए-सद होश है मस्ती मेरी,
ऐसी मस्ती है कि हुशियार हूँ मैं

लेके निकला हूँ गुहरहा-ए-सुख़न,
माह-ओ-अंजुम का ख़रीदार हूँ मैं

दैर-औ-काबः में मिरे ही चर्चे,
और रूसवा सर-ए-बाज़ार हूँ मैं

कुफ्र-ओ-इलहाद से नफ़रत है मुझे,
और मज़हब से भी बेज़ार हूँ मैं

अहल-ए-दुनिया के लिए नंग सही,
रौनक-ए-अंजुमन-ए-यार हूँ मैं

ऐन इस बे सर-ओ-सामानी में,
क्या ये कम है कि गुहरबार हूँ मैं

मेरी बातों में बेहयाई है,
लोग कहते हैं कि बीमार हूँ मैं

मुझसे बरहम है मिज़ाज-ए-शेरी,
मुजरिम-ए-शोख़ी-ए-गुफ़्तार हूँ मैं

हूर-ओ-गिलमां का यहाँ ज़िक्र नहीं,
नवा-ए-इन्सां का परस्तार हूँ मैं

महफ़िल-ए-दहर पे तारी है जुमूद,
और वारफ़्ता-ए-रफ़्तार हूँ मैं

इक लपकता हुआ शोला हूँ मैं,
एक चलती हुई तलवार हूँ मैं


मेरी वफ़ा का तेरा लुत्फ़ भी जवाब नहीं
मेरे शबाब की क़ीमत तेरा शबाब नहीं

ये महताब नहीं है कि आफ़ताब नहीं
सभी हैं हुस्न मगर इश्क़ का जवाब नहीं

मेरी निगाह में जलवे हैं, जलवे ही जलवे
यहां हिजाब नहीं है, यहां नक़ाब नहीं

न पूछिए मेरी दुनिया को, मेरी दुनिया में
ख़ुद आफ़ताब भी ज़र्रा है, आफ़ताब नहीं

सभी हैं मयकद-ए-दहर में ख़िरद वाले
कोई ख़राब नहीं है, कोई ख़राब नहीं

मज़ाज किसको मैं समझाऊं, कोई क्या समझे
कि कामियाबे-मुहब्बत भी कामियाब नहीं


19 अक्तूबर 1911 से 5 दिसंबर 1955

इंकलाबी, तरक्की पसंद और रूमानी शायर मजाज़ जो उर्दू शायरी के कीट्स भी कहे जाते हैं।

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