जिस्म तो जलकर वापस मिट्टी का ढेला बन सकता है परन्तु रूह जब जलती है तो या तो सोने सी निखर जाती है या फिर सारे संसार में आग लगा देती है और भाई तो बचपन से ही उड़ती चिन्गारी में तब्दील हो चुके थे। ख्वाइशों का ज्वार-भाटा उछाल मारता था उनके अँदर पर मजाल क्या कि एक बूंद भी बाहर छलक जाए। संयम ही संयम था भाई के जीवन में, और थीं निजी वीरानियाँ… जैसे रेगिस्तान में खड़ा कैक्टस, जिजिषा से भरपूर पर अभिशप्त। हर विपरीत परिस्थिति से जूझता और जीतता, बेहद कंटीला पर अंदर से पूर्णतः तरल, जाने किस आस के रहते।
हमेशा उसे लगता कि यह जो कठोरता है भाई में बस ओढ़ी हुई है । भाई जितना सहज होने की कोशिश करते उतना ही अनन्नास बन जाते, पल भर में ही सारी मिठास और स्वाद को अपने कंटीले आवरण में छुपा और सहेज लेते । भाई को जानने के लिए इस बाहरी परत को हटाना बहुत जरूरी था।
कहते हैं प्यार, नफरत और अहंकार की तरह ही, भय भी जितना मन में समा लो, उतना ही रह जाता है। भाई के मन में भी यह असुरक्षा का भय कूट-कूट कर भर चुका था और आती-जाती सांस-सा मिनटों में इसे आसानी से बाहर नहीं निकाल फेंका जा सकता था। अपनों को, उनके लाड़-प्यार को तलाशते-तलाशते ही उम्र गुजरी थी उनकी । पर मिल जाने पर भी पहचानना और संभालना इतना आसान तो नहीं हरेक के लिए ।
पट्टे का पजामा पहने बगीचे में खड़े क्यारी को पैरों के अंगूठे से कुरेदते, सहमे-उदास उस लड़के को जब पहली बार देखा था, तो माली का बेटा समझा था उसने। पर जैसे ही पापा ने बताया कि उसका भाई है वह, तो नेह का सागर उमड़ पड़ा था मन में और तुरंत ही हाथ पकड़कर साथ खाना खिलाने ले गई थी वह माँ के चौके में उन्हें। उस दिन से परिवार के बीच ही तो पले-बढ़े थे भाई । पर अपने-पराए का फर्क कभी मिटा नहीं पाई थी वह भाई के जीवन से। जैसे जल के बीच कमल पानी में रहकर भी अलग और बिना भीगे-डूबे खिला रहता है , वैसे ही भाई भी रहा,परिवार का होकर भी परिवार का नहीं।
सब जानते-समझते मध्यस्तता की सारी जिम्मेदारी बहुत छोटी उम्र से ही उसने खुद अपने नन्हे कंधों पर ओढ़ ली थी। संयुक्त परिवार था उसका और चचेरे-ममेरे भाइयों के साथ ही पली बढ़ी थी वह। भाई ही नहीं, मित्र भी थे वे उसके। जानती थी, सबकी माँ थीं पर भाई की नहीं। भाई के पास कपड़े हैं या नहीं, पैसे हैं या नहीं, कहाँ गया , कब आया, सब पता रखने लगी थी । भाई चाहे या न चाहे… पिताजी यानी भाई के मामा को बताती रहती जब तब उनकी हर जरूरत के बारे में ।
पर भाई तो मानो जरूरतों से परे थे , शीघ्र ही बड़े होने की जिद में अपनी ही धुन के पक्के।
तीन चार वर्ष की उम्र से ही, कभी नाना के घर में तो कभी दादा के घर खानाबदोश बचपन कैसे और कब बीता , किसी को खबर नहीं होने दी थी भाई ने। पर वह खुद ही भाई की एक-एक जरूरत और गतिविधियों पर निगाह रखती, बिल्कुल माँ की तरह ही, वक्त-बेवक्त उनका बक्सा और अल्मारी तक खंगाल आती । पर जरूरतों की पूर्ति ही तो सबकुछ नहीं, जीवन में प्यार की कमी भाई को दिन-प्रतिदिन और-और कठोर व विद्रोही ही बनाती चली गई।
‘सेठ जी बेटे को संभालो, नहीं तो बहुत कुछ करवा सकते हैं हम भी। आगे आप खुद ही समझदार हो। नुमाइश में आग लगवा दी, तोड़-फोड़ करवाई सो अलग । बहुत नुकसान हुआ है हमारा।‘ धमकियों भरे फोन आने शुरू हो गए थे भाई के खिलाफ।
‘बात करूंगा, पता लगाऊंगा। वाकई में करवाया है, तो खुद कहूँगा कि कल आकर नुकसान की भरपाई ले जाना पर आँख उठाकर भी देखा भान्जे की तरफ तो आंखें नुचवा लूँगा। जिन्दा हूँ अभी, मैं। मरी बहन की आखिरी और अकेली निशानी है यह। जैसे तैसे पला है बिन मां का अनाथ। एक बात और भी भलीभांति जान लो- शहर के सारे गुंडे और आवारा लड़कों का ठेका नहीं ले रखा इसने। शिकायत और बात करने का भी आखिर एक तरीका होता है।‘ गुस्से से हाँफते पापा को पहली बार इतनी कसकर फोन पटकते देखा था उसने। और तब पापा को। पहला घातक तीव्र रक्तचाप का आघात हुआ था । शान्त हृदय और संयमित व स्वाभिमानी व्यक्तित्व दोनों ही इस आघात को सह नहीं पाए थे- कहाँ चूक हो गई उनसे और उनके लालन-पालन में। जरूर कोई लापरवाही , कोई कमी तो अवश्य ही रह गई होगी-आदर्शवादी पापा भाई की हर गलती और बदनामी का ठीकरा अपने सिर ही फोड़ते चले जाते।
भाई के साथ-साथ शिकायतें भी बढ़ती गईं और इन सबके साथ-साथ पापा का रक्तचाप भी।
अक्सर ही पापा उन्हें अकेले बन्द कमरे में डांटते और समझाते-‘कब संभलेगा तू, मैं हमेशा तो नहीं रहूँगा।’ जी भरकर नाराजगी दिखाते और फिर विवश, तुरंत ही उनके और अपने बहते आंसू पोंछने लग जाते। गोदी में भींचकर ढेरों प्यार करते और भौंचक्की-सी कोने में खड़ी वह तब भी अकेली ही गवाह होती इस पूरे भरत मिलाप की।
पर भाई ने तो पैदा होते ही किसी की बात न सुनने की कसम खा ली थी। ऐसा ही था उसका वह भाई , किसी की बात न मानने वाला, किसी से मन की न कहने वाला…अकेला पर असहाय नहीं, खुद को खुद में समेटे। बेहद जिद्दी और स्वाभिमानी, जैसे रेगिस्तान में उगा कैक्टस, अक्खड़ और जुझारू।
बहुत प्यार करते थे उनके दादा भी अपने पोते से। छोड़ ही न पाते और मज़ा यह कि नाना भी उतना ही। दोनों की ही इज्जत की जंग का मुद्दा भी बन चुके थे भाई अबतक दोनों खानदानों के बीच। नाना यानी हमारे दादा को भी कैसे बर्दाश्त होता कि तीन चार साल का नवासा सौतेली माँ के हाथों भटके-तरसे! बिगड़ जाए, अकेला-अकेला ही सब घुटता-सहता। शरीर, मन… आदत, बुद्धि सबसे ही लाचार हो जाए एकदिन !
बेहद भावुक और स्वाभिमानी थे दोनों और दोनों को ही अपनी समझ और क्षमता पर बेहद नाज भी था… नतीजा यह हुआ कि हर हफ्ते-दो हफ्ते पर खेल के मैदान से भाई का अपहरण हो जाता। और तुरंत ही सूचना भी आ जाती – कभी दादा से तो कभी नाना से, कि परेशान न हों। वह ले आए हैं भाई को अपने साथ और भाई सुरक्षित है।
घर और ननसाल में बस एक गांव की ही तो दूरी थी। फिर भाई कोई ऐसा-वैसा नहीं, रायसाहब का पोता था, उनकी पूरी रियासत का युवराज, परन्तु किस्मत का उतना ही खोटा।
किस्मत से ज्यादा और वक्त से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता, चाहे सामने कितना ही क्यों न बिखरा पड़ा हो! फिर भाई की कहानी तो सदा से ही आधी भरी-आधी खाली ही रही।
अच्छी तरह से याद है, उस दिन उनके दादाजी खुद ही लेकर आए थे अपने कलेजे के टुकड़े को नाना के घर पर हमेशा के लिए छोड़ जाने के लिए।
नाना के पैरों में भाई को डालकर खुद भी तो हाथ जोड़कर बैठ गए थे उनके आगे।
‘ बचा लो , मासूम को। तीन दिन का भूखा-प्यासा है। किसी के हाथों से कुछ नहीं ले रहा। जाने कब बंदर के बच्चे-सा लपककर छत पर चढ़ बैठा था। हाथ में ढेरों कंकर-पत्थर भी बटोर लिए थे । जब भी माँ आंगन से गुजरती, पत्थर बरसाने लगता वहीं बैठा-बैठा। देर रात तक वहीं बैठा रहा। कोई पास जाता तो इधर-उधर भागने लगाता। काटने को दौड़ता। जैसे-तैसे समझा-बुझाकर उतार पाया हूँ मैं । पर कुछ खिला पिला नहीं पाया, मुँह ही नहीं खोल रहा, खानदानी जिद्दी है।’ कहते-कहते दादा की आवाज थर्राने लगी थी और सुनते-सुनते नाना की।
सात-आठ वर्ष के भाई को चलते वक्त तब बस इतना ही समझाया था उन्होंने- ‘खेलना , जी भर कर खेलना, पर साथ में पढ़ना भी। बड़ों की बात मानना। और हाँ, छत पर पतंग उड़ाते समय मुंह खोलकर मत रखना। कभी-कभी चिड़िया बीट भी कर देती है।’
आखिरी बात सुनकर कमरे में उपस्थित सभी हँस पड़े थे और उदासी के वे बादल कुछ पल को ही सही, छँट भी गए थे।
पोते को छोड़कर जाते रायसाहब दरवाजे से पलटकर फफक-फफककर रो पड़े थे और ‘भूल तो नहीं जाएगा’- कहकर एकबार फिरसे भाई को वापस गले से लगा लिया था उन्होंने। पर भाई तो मानो उस उम्र में ही एक लौह-बालक में तब्दील हो चुका था।
उसके बाद ज्यादा नहीं चले थे वह। कुछ दिन बाद ही खबर आ गई थी कि नहीं रहे।…
नाना ने भी तो उस दिन जबाव में कुछ नहीं कहा था। कोई तसल्ली या आश्वासन नहीं दिया था उन्हें। बस भाई को लेकर अंदर चले गए थे चुपचाप। अपने खून की तीव्र गुस्सा और हट दोनों से ही भलीभांति परिचित थे वह । लाडली का बेटा था भाई और बेटी के दुख से गुजरे अभी ज्यादा वक्त भी तो नहीं गुजरा था।
स्वाभिमानी और जिद्दी स्वभाव की वजह से ही तो मिनटों में अनाथ कर गई थी दुधमुंहे को ।
परिवार की सबसे छोटी, सबसे सुंदर, 18-19 की फूलों सी सुकुमार, साथ-साथ कांटों सी सख्त भी थी उनकी बेटी भलीभांति जानते थे वह…पूरे परिवार पर अधिकार चलाती , अपना ही बात मनवाने वाली, बेहद स्वाभिमानी और हठीली उनकी लाडली।…जानते थे वह कि उसी मां का बेहद लाड़ला बेटा था यह, जिसे मां के द्वारा बनाए मुठ्ठी भर गेंहू के ढेर पर ही पेशाब तक उतरता था । यूँ अवहेलना और तिरस्कार कैसे सह पाता! धो-पोंछकर गौमाता की नांद में डाल आती थी फिर वह सारा अनाज । इन्हें भी तो कुछ पौष्टिक चाहिए ही -कहती और गुनती-बुनती।
बेटे की सुरक्षा और खुशहाली को नए-नए टोटके थे उसके पास। कभी कपड़े उसके सिर से उबारकर अनाथों में बांट आती, तो कभी खिलौने और किताबें। बेटे के जीवन का हर पल पूरी तरह से सुरक्षित रखना था उसे। बेटे को पल भर की भी तकलीफ न हो , इस बात का पूरा ध्यान रहता हर पल। अगल-बगल की औरतों और भाभियों को उसकी यह तन्मयता और तत्परता समझ में न आती। इनका तो भरा-पूरा घर है पर जो बस खाते-पीते लोग हैं वह कैसे ऐसी दान-दक्षिणा कर सकते हैं, वह भी दिन में छह-छह बार!
पर उसके तो जीने के बचपन से ही अपने ही नियम थे , जहाँ न दूसरों के दखल की गुजाइश थी और ना ही अपनों द्वारा की गई अवहेलना की ही।
भाभियों को घूँघट की ओट से बाहर देखते देखती तो छज्जे से पैर लटकाकर बैठ जाती। यूँ गाँव वालियों की तरह एक आँख से कानी बनकर देखोगी तो अभी यहीं से कूदकर जान दे दूँगी। और उसका ऐसा कहते ही भाभियाँ सहम जातीं। घूंघट पूरा खींच लेतीं- क्या पता बावरी सचमें कूद ही पड़े। पूरे गांव में अलग ही रुतबा था। छोटे बड़े सब डरते उसके गुस्से से। जानते थे कि प्यार और जिद में वाकई जान दे सकती थी है यह और ऐसा ही किया भी उसने। क्रोध की आंच के भभके से फफलती पल भर को भी न सोच पाई कि उसके बाद बेटे का क्या होगा !
बहुत छोटी सी बात थी, कोई और होता तो जान तो नहीं ही देता इसपर।
ससुर ने बस बड़ी बहन के बेटे के मुंडन में जाने को मना कर दिया था । उनके आठ महीने के पोते को हलका खांसी-बुखार जो था।
पहले तो अपनी तरफ से समझाने की भरसक कोशिश की थी । मिन्नतें भी की थीं, वादे और आश्वासन भी दिए थे कि इस दांत निकलने की उम्र में तो हर बच्चे की तबियत थोड़ी बहुत ऊंची-नीची होती ही रहती है। पूरा ध्यान रखेगी वह। बस तीन दिन की ही तो बात है। पर फिर भी जब घर के बड़े टस से मस न हुए, तो अपनी बेबसी पर, क्रोध और तिरस्कार की इस ज्वाला में धधक उठी थी । ऐसी भी क्या बेबस जिन्दगी -जहाँ अपने ही अपनों पर विश्वास न करें! नहाने के बहाने गुसलखाने में घुसी तो फिर कभी बाहर नहीं निकली। गुसलखाने से निकलती वे धू-धू करती लपटें उस दिन भाई की मां को ही नहीं, भाई का पूरा बचपन…पूरा भविष्य ही मानो निगल चुकी थीं। सुनते हैं नहाने के कपड़ों में छुपी मिट्टी के तेल की बोतल और दियासलाई सब थे क्रोधित और हताश के पास।
अपनी बात अपनों को ही न समझा पाना सबसे बड़ा अपमान जो लगता था बचपन से ही उसे।
दुधमुंहे नाती के मोह में फंसकर, खुद अपनी बहन की बेटी से बाप की दूसरी शादी भी नाना ने ही करवाई थी- सोचकर कि मौसी अनाथ का पूरी ममता के साथ ख्याल रखेगी। पर न गुजरी बहन में ही कोई रुचि थी भाई की नई मां को और ना ही बहन के बेटे में ही।
हकीकत तो यह थी कि पहली की किसी याद, किसी पहचान की कोई जगह नहीं थी उसके राजपाट और जीवन में। नन्हे दस महीने के मासूम के लिए भी नहीं। सौतेली माँ की आँखों में दिनरात खटकने लगा था भाई। कैसे उसके शुरु के छह साल निकले, यह भाई के अवचेतन मन में गहरे जा धंसा था और आए दिन ही विद्रोह बन रिसते फोड़े-सा फूट पड़ता । पर अपने घर-संसार और पेट जायों से फुरसत ही न मिलती थी नई माँ को। भूखा भी भाई रोता तो सिर पकड़कर दीवार से दे मारती। पहले अपने पेट के जायों से निपटकर ही भाई की तरफ ध्यान देती।
भाई कैसे यह सब बर्दाश्त करता…भूखा-प्यासा रहने की तो आदत पड़ गई थी उसकी. पर उपेक्षा की आजीवन ही नही पड़ पाई और बदला भी खुद ही लेना जानता था बचपन से ही भाई। अस्त्र-शस्त्र से लैस खुद ही छत पर जाने कैसे चढ़ गया था एकदिन- और दो दिन वहीं चिपका बैठा रहा था। मजाल है कि कोई नीचे उतार ले। जो भी पास जाता काटने दौड़ता, बिल्कुल बन्दर के बच्चे की तरह ही । बयां करते-करते दादा का दर्द भी तो झरझर आँखों से बह निकला था । हार मानकर ही तो अपने आठ साल के पोते से दूर हुए थे वे ।
भाई के बचपन की ये अनगिनित कहानियाँ हम बच्चों ने दादी यानी भाई की नानी के मुंह से सुन रखी थीं। भाई को बड़े होते देखते, साथ-सात पढ़ते-लिखते, एक ही घर में बीता था हमारा बचपन। यह उनदिनों की बात है जब भाई-बहन बस भाई-बहन होते थे, कजन या अपने-पराए नहीं। पर पूरे तीन साल बड़े थे भाई, इसलिए अधिकांश बातें रहस्य ही रहीं, बिल्कुल भाई की तरह ही।
भाई बहुत तेज था, पढ़ने में ही नहीं, हर काम में। पेंटिंग करता तो खूब सुंदर, खाना बनाता तो खूब स्वादिष्ट और चटपटा । सारे गुण दिए थे भगवान ने उसे, सिवाय उस बांई आँख के जिसमें बचपन की मार की वजह से नस फट गयी थी और रौशनी भी आधी ही बची थी।
भाई के विद्रोह, अपमान और संघर्ष की नींव भी शायद उसी चोट में पड़ी थी। यही वजह थी कि सारी दुनिया उन्हें हर पल षडयंत्र रचती दुश्मन-सी ही नजर आती।
बड़े होने की, अपना पुरुषार्थ आजमाने की बेताबी हर पल झलकती रहती उस सुर्ख आंख में। भाई दिन-प्रतिदिन विद्रोही होते जा रहे थे। आए दिन तरह तरह की शिकायतें आने लगीं। पर भाई पर कोई असर न होता। वह अपनी ही जिद में रहते। जैसे तैसे हर इम्तहान भाई ने अच्छे नम्बरों से ही पास किया-कभी पढ़कर तो कभी मेज में छुरा गाड़कर।
देखने में सुंदर और व्यवहार कुशल थे भाई, पर प्यार पाने की इस अतृप्त भूख ने कभी किसी लड़की को उनके करीब न आने दिया।
गलतफहमियों का एक जाला-सा बुनता जा रहा था भाई के इर्द-गिर्द।
बिगड़ैल, हठी और आवारा किस्म के लड़के समझे जाने लगे थे भाई।
थे या नहीं यह तो पता नहीं, पर जब विश्वविद्यालय में पढ़ने गई तो एक सहपाठिनी ने आगाह अवश्य किया था कि यहाँ विद्यालय में एक बेहद बदमाश टाइप का बिगड़ा लड़का है, उससे बचकर रहना। हर खूबसूरत लड़की को छेड़ने की आदत है उसकी। फिर लाइब्रेरी में जिस लड़के की तरफ इसारा करके बताया कि यही है वह लड़का , तो शर्म के मारे वहीं गड़ गई थी वह। शर्म से झुकी गर्दन और बंद आंखों से सिर्फ यही निकला था -नहीं ऐसा नहीं हो सकता। जरूर, तुम्हें कोई गलतफहमी हुई है। यह लड़का कोई और नहीं, मेरा भाई है। अगर तुम्हारी बात सच निकली तो मैं खुद खबर लूँगी इसकी ।
और खबर ली भी थी उसने।
घर आकर भाई की पूरी ही क्लास ले डाली थी उस दिन। भूल गई थी कि बड़ी नहीं, छोटी है वह भाई से। साफ-साफ पूछा था कि क्या वह सचमें ऐसे हैं, और अगर नहीं, तो अपने बचाव में क्या कहना है उन्हें।
पहले तो- ‘ अच्छा उस काली-कलूटी ने ऐसा कहा तुमसे? इतनी हिम्मत- शीशे में मुंह देखा है कभी उसने। ऐसी लड़कियों की तरफ तो मैं थूकता तक नहीं।’- कहकर भाई ने बात टालनी चाही थी, पर उसके दृढ़ इरादों के सामने अधिक देर तक हंसी का मुखौटा नहीं रख पाए थे वह। दोबारा पूछने पर चुप हो गए थे और उसके बाद कई दिनों तक सामने आने तक से कतराते रहे थे। तब उसने भी फिर और कोई बात नहीं की थी उस विषय पर । हाँ, बचपन से ही नाराजी की पराकाष्ठा पर मौनब्रत अपना लेना, सामने वाले को परास्त करने का सबसे सक्षम हथियार रहा है उसके पास । यदि प्यार है तो सामने वाला खुद आकर बताएगा- मनाएगा, वरना ऐसे मित्र खोना कभी भी बुरा नहीं, दृढ़ मान्यता थी यह भी एक उसकी।
भाई वाकई में प्यार करते थे। ज्यादा दिन तक वह मौन सिलसिला नहीं चल पाया।
भाई का कोई भी काम उसकी सहायता के बिना पूरा ही नहीं होता था और ना ही वे संतुष्ट ही हो पाते थे पूरी तरह से।
शादी की बात चली तब भी उस नासमझ पर ही पूरा बोझ डाल दिया भाई ने।
यह जिम्मेदारी भी तो निभानी ही थी उसे । बैंक में क्लर्क की तरह काम करते सहेली के बड़े भाई की खूबसूरत लड़की को जब उसने भाई के लिए पसंद किया तो सहर्ष राजी हो गए उसके परिवार वाले। भाई के लिए नहीं, उससे पांच साल छोटे चाचा के बेटे के लिए, जो घर का युवराज था और अथाह दौलत का उत्तराधिकारी भी। पर ऐसे खूबसूरत राजकुमार क्लर्कों की बेटियों को तो नहीं ही मिलते । बात वहीं पर खतम हो गई।
अब वह भाई की शादी के मिशन पर थी। तीन महीने में वापस अपने घर लौटना था उसे, पर उसके पहले भाई का घर बसाना भी जरूरी था।
भाई 28 के हो चले थे। जब कि परिवार में सभी लड़के तेईस की उम्र तक ब्याह दिए गए थे। दो रिश्ते थे , पत्रियाँ भी मिल गई थीं दोनों की ही। अगले दिन ही दोनों लड़कियों देख ली गईं। पहली मशहूर और संपन्न परिवार से थी, पर सांवली । और दूसरी बिना बाप की अनाथ।
पीछे चुपचाप खड़ी विधवा माँ की आँख के आँसू विचलित करने वाले थे। तभी होनी पर मुहर लगाते वे शब्द भाई के मुंह से निकले-‘अगर सुबह वाली कौवा थी तो यह हंस।’
बड़ों ने भी भाई की पसंद को ध्यान में रखते हुए चटपट शादी कर दी। भाभी समझदार आईं। भाई का घर खूब कुशलता से बनाया-संवारा पर बेटियों को बिगाड़ने की आदत पर अक्सर भाई से झड़प पड़तीं।
बच्चे आए तो हर खुशियाँ दी भाई ने , कहीं कोई कसर न छोड़ी। किसी दुःख और ग्रंथियों की छाया तक न पड़ने दी बच्चों पर। बचपन में जो दुःख खुद उन्हें सालते रहते थे, बीन-बीन कर अलग करते रहे। बेटियाँ एक मांगतीं तो चार देते। यह स्नेह में उदार होने का वक्त उन्हें आसानी से नहीं मिला था । बहुत तपस्या, बड़ी मेहनत और सूझ-बूझ से संजोई थी यह निधि उन्होंने जीवन में।
लक्ष्मी की तो भरपूर कृपा थी भाई के परिवार पर, बस विधना की नहीं। चार-चार बेटियों के साथ एक बेटा मिला तो, पर आधा-अधूरा, असाध्य रोगी । बचपन पार कर ले तो बड़ी बात समझना।- कह दिया डॉक्टरों ने। और तब उसने उन्हें अपने पास बुलाया, बेटे के इलाज में जो कुछ बन पड़ा किया। पर खुशी रसगुल्ला तो नहीं, जो झटपट परोस देती ।
भाई के लिए तो हरगिज ही नहीं थी। समझौते पर समझौते करते ही जिन्दगी बीती उनकी कभी बेटियों के साथ तो कभी बीमार बेटे के परिवार के साथ। बहू आई तो सिर्फ अधिकार और हिस्सा मांगने वाली। लेने-देने के लिए उन दोनों के बीच कुछ नहीं रहा कभी।
बेटे ने अपनी पसंद की शादी की थी और बहू ने उसकी धन-ज्यादात देखकर।
नाराज होते हुए भी भाई बेटे की खुशी के लिए देते रहे, निभाते रहे। प्यार होता ही ऐसा है जितने समझौते न करवा ले ।
पर जब बेटे ने भी पोती ही गोदी में बिठाई तो भाई टूट गए- कौन संभालेगा इस राज-साज को ?
बहू की नजर शादी के बरसों बाद भी बस भाई के पैसे पर ही रही, और भाई की सिर्फ अपने फिसलते सपनों पर। नतीजन बेहद चिड़चिड़े हो गए भाई । धीरे-धीरे बहू ने पति को बहला-फुसला कर सबकुछ पति द्वारा खिंचवाना शुरू कर दिया- बीमार पति की जिन्दगी का क्या पता और कितना भरोसा!
जब अपने ही नींव का पत्थर खींचे तो इमारत तो ढहेगी ही।
टूटते सपनों की किरच कुछ ऐसी थी कि बातबात पर गालियाँ देना स्वभाव बन चुका था उनका। नारियल को तोड़ कर अंदर की गिरी तक कोई कभी न पहुंच पाया । पर भाई की हथेली और आंखों में सिर्फ वह गिरी और उसकी मिठास ही तो प्रमुख रही थी सदा। यह बात दूसरी है कि इसे चखना भाग्य में नहीं था ।…जिन्दगी से तो लड़ सकते थे भाई पर अपनों के विछोह से नहीं। बेटे की मौत ने सबकुछ होते हुए भी कंगाली की कगार पर ला खड़ा किया । तन और मन दोनों से ही बिखर गए भाई। किसी समझौते की गुंजाइश नहीं बची थी अब । फिर क्यों करते और किस मोह में पड़कर करते जब डोर ही टूट चुकी थी ? ना, उस ऊपर वाले के साथ भी नहीं अब तो।…अपनों की मौत की खबर एक ऐसी सजा है जिससे उबर पाना आसान नहीं। भाई ने पहली बार हार मान ली।
भाई नहीं रहे…कैसा अहसास था यह…अंतिम सदा दी थी अभी-अभी भाई ने उसे। उठी, और खयालों में ही भाई का माथा सहलाने लगी। भाभी की आवाज कानों में गूंज रही थी, ठीक से खाकर उठे थे, जीजी । थोड़ी देर में बोले -जी घबरा रहा है। मैंने ईनो भी बनाकर दिया पर जब तक एम्बुलेंस आए सब खतम। विदा के उस कठिन पल में भी भाई को यूँ निष्चेष्ट और निष्क्रिय विदा कर पाना बर्दाश्त नहीं हो रहा था । खुद से ही डरकर दो कदम पीछे खड़ी हो गई वह। सूने कमरे में उसके अलावा कोई और नहीं था उन जलते आँसुओं को पोंछने को। पापा कहते थे कि उन्हें सपना आया था भाई के पैदा होने के कुछ घंटे पहले। मरी बहन ने उनसे कहा था भाईसाहब मैं आ रही हूँ और उन्होंने सबको बता दिया था कि बेटी ही आ रही है उनके यहाँ । सब आश्चर्य में में डूब गए थे जब कुछ ही घंटों बाद वह आ भी गई थी। और यह कहानी सुनाकर तो वाकई में मां का मन रख दिया था पापा ने नन्ही बच्ची के सीने में। ये सपने, ये बातें सच हो या न हो, एक अटूट रिश्ता था उसका भाई के साथ ।
फिर सपने देखना बस सुबह-शाम का ही तो खेल नहीं, निरंतर का क्रम है यह तो। मानो भाई कह रहा था उससे । फटी आँखों से घूरती रही वह उस अंधेरे को…इतना शांत तो कभी नहीं देखा था पर उसने अपने इस भाई को। क्या मौत वाकई में हरा देती है…मिटा देती है सबकुछ? या फिर एक नए पन्ने पर वही कहानी फिरसे लिखनी होगी इन्हें! रीता मन रह-रहकर भर आता।
मौत को थकी जिन्दगी का अंतिम समझौता आप और हम मानते होंगे, भाई नहीं।
सामने खिड़की पर एक चिड़िया खट-खट कर रही थी मानो कुछ कहना चाहती हो।
यह आदमी ही तो है, जो न जीवन से हारता है और ना ही मौत से। फिर सपनों की ही नहीं, देखने वाली आँखों की भी तो अपनी एक पहचान होती है । अंतहीन कहानी है जीवन, एकाध जनम का खेल नहीं। बहुत-सी बातें और रहस्य थे जिन्हें जानना और मानना चाहती थी वह । भाई मरते नहीं। निष्प्राण लेटे भाई की बंद आँखें में भी नए रूप, नई उड़ान का सपना है, विश्वास करना चाहती थी वह ।
खिड़की खोल दी उसने पर चिड़िया अब वहाँ नहीं थी।…
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शैल अग्रवाल