अंतिम प्रणाम मित्र! मेरे भाई…
अशोक गुप्ता जी से मिलना लेखनी के माध्यम से ही हुआ था। उनकी एक कहानी ‘ तिनके का पुल’ बहुत अच्छी लगी थी । जाने कबसे लेखनी में देना चाह रही थी। कुछ कहानियाँ भेजी भी उन्होंने, बस वही रह गई, वादा भी किया था… उन्हें भी मेरी कनुप्रिया कहानी बहुत अच्छी लगी थी और विशेषतः तब जब माधवी ने हंसकर कहा था कि इसे पढ़ते ही तुम आँखों के आगे घूमने लग जाती हो, तो तुरंत ही पुलककर बोले थे-मुझे पता था कि यह कहानी विशेष है। इत्तफाक ही था कि तीन जनवरी में पैदा 21 , 22 और 29 वाले मिले थे तो खूब जमी थी उसदिन। और तबतक तो कोई बड़ा या छोटा भी नहीं था , तीनों का ही जन्मवर्ष भी 1947 ही था।
मिलनसार और भावुक…एक अच्छे कवि, लेखक, विचारक और इन सबसे ऊपर अच्छे और जोशीले इंसान, गपियाने और फोटोग्राफी के शौकीन और साहित्य में तो विशेष रस लेते, उसके लिए पूर्णतः समर्पित…अच्छे समर्थ कवि, लेखक और आलोचक। खरहरा नामक समूह भी चलाते थे जहाँ लेखकों का जमावड़ा होता था अक्सर। जुड़े तो ऐसे जुड़े कि जुड़ते ही चले गए, कभी खतो खिताब से तो कभी फोन के माध्यम से। अपनी जुड़वा बहन मानने लगे थे मुझे। मुलाकात भी हुई थी दो बार। मिलने आए थे अशोक भाई, एक बार भांजी सुरमी के यहाँ पाम कोर्ट, गुड़गांव में और दूसरी बार सहेली माधवी के यहाँ सफदरजंग एनक्लेव देहली में। दोनों ही बार वादा किया था कि कमल भाभी से अवश्य मिलवाऊँगा… बहुत ख्वाइश थी उनकी कि उनके घऱ आऊँ , सबसे मिलूँ, अगली बार उनके पास ही ठहरूँ। कहते-होटल जैसा सुख तो नहीं मिलेगा, पर प्यार और गपशप खूब होगी- बड़े हक और आग्रह के साथ समझाने की कोशिश करते। बड़े भाई के नाते धौल जमाने की तक कह उठे। तुरंत ही मेरे यह कहने पर कि बड़े कैसे…दही के या चटनी के? आप तो मुझसे आठ दिन छोटे हो। हंसकर बोले, राज की बात बताऊँ बहना, बड़ा हूँ तुमसे । स्कूल में उम्र कम करके लिखवाई गई थी मेरी। तो ऐसे ही थे अशोक भाई- एक सच्चे लेखक की तरह झूठ बोलना सहज नहीं था उनके लिए। किसी मजबूरी वश बेटी नूपुर की शादी में शामिल न हो पाने का मुझे भी उतना ही दुख हुआ था, जितना कि उन्हें। इसबार तो माधवी ने भी पूछा था कि तुम फिर कभी अपने उन लेखक मित्र से मिलीं क्या शैल? और तब मैंने रुंधे गले से जबाव दिया, हाँ, अवश्य मिलना है इसबार। तबियत ठीक नहीं है उनकी। कैंसर से पीड़ित हैं । मैसेज दी है कि ‘ मिलना चाहता हूँ। पैरों में बहुत सूजन है। इसबार तुम ही आकर मिल लो, बहना।‘
कई बार फोन मिलाया, बात ही नहीं हो पाई। फोन ही नहीं उठा। देखो, मुलाकात हो भी पाती है या नहीं।‘
मुझे क्या पता था कि मेरी जुबां पर काल बैठा हंस रहा था उस वक्त। मुलाकात नहीं होनी थी तो नहीं ही हुई। एक शहर से दूसरे शहर की भागमभाग में और पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों में वक्त निकलता चला गया और इंगलैंड वापस लौट आई मैं। सोचा, कोई बात नहीं अगले वर्ष सही, जिन्दगी पड़ी है। क्या पता था कि जिन्दगी मनमाना वक्त नहीं देती। सोचा भी नहीं था कि इतनी छोटी-सी ख्वाइश भी पूरी नहीं कर पाऊंगी बीमार भाई और मित्र की।…अब बस ये चन्द शब्द हैं और यादें हैं। अश्रु-पूरित श्रद्धांजलि की तरह बांट रही हूँ स्नेहिल चन्द ये खतो-खिताब जो उन्होने ई. मेल द्वारा वक्त-वक्त पर मुझे भेजे थे।…प्रायः जवाब लिखूंगी, लिखूंगी, सोचती ही रह जाती थी। विशेशतः उस खत का जिसे उन्होंने एक आंतरिक कराह के साथ मां तुल्य बड़ी बहन की मृत्यु के बाद लिखा था। न लिखने की वजह संकोची स्वभाव था या आलस आजतक नहीं जान पाई पर यह क्षति निजी है और अपूर्णनीय भी। बेहद जिन्दादिल, संवेदनशील और अमूल्य मित्र व सहयोगी को खो दिया है लेखनी ने।
प्रिय शैल जी,
नमस्कार. ;लेखनी; देखता हूँ और बहुत मन करता है कि तुम सामने हो तो तुमसे बहुत सी बातें करूँ.. शायद मन का यह करना कभी तो सच होगा… कहानी उपसंहार भेज रहा हूँ।
परिवार में सबको मेरा अभिवादन
अशोक गुप्ता
प्रिय शैल,
लेखनी के इस अंक में तुमने धूप को जिस तरह हज़ार बाहें फैला कर समेटा है वह सचमुच गहरी संवेदनात्मक दृष्टि का प्रमाण है. पूरे विश्व में सबके पास धूप के अपने अपने उजाले झुलसे कथ्य हैं, अपने इस अंक में तुमने कोई अपवाद नहीं छोड़ा है और बीच बीच में तुम्हारे कृतित्व के हस्ताक्षर भी हैं. विशेष रूप से तुम्हारी कविताओं में बिम्ब जैसे गीत बन कर छू जाते हैं. तुम योग्य रचनाकार और संपादक दोनो हो मेरी बहना…
ओह शर्मा जी, यह क्या कह दिया आपने…’फूल मुरझाया हुआ किस काम का..?’ अरे आपने जिंदगी नहीं देखी शायद. मेरी अंजुरी में कितने फूल हैं जिन्हें कोई मुरझाया हुआ कहा जा सकता है, लेकिन उन में से मेरे लिए साँसें फूटती है. मैं खुद न जाने कितनी बार कहीं मुरझाया फूल बन कर अपनी ऎसी ही किसी अंजुरी में गिरा हूँ और जी उठा हूँ. जिंदगी को पलट कर फिर देखो बंधु,
अभी पूरा अंक फिर से देखना है. धूप पर कुछ कवितायेँ भेजने का मन बना रहा हूँ. यहाँ भारत में पत्रिका ‘शुक्रवार’ के ताज़े अंक में मेरी कहानी ‘तितली’ छपी है. भेज देता हूँ.लेखनी नहीं तो, तुम और जीजू तो पढ़ ही लेंगे.
शुभेक्षु,
अशोक गुप्ता
प्रिय शैल,
नमस्कार बाद में पहले जयहिंद. लेखनी में तुम्हारा सम्पादकीय पढ़ा. सचमुच भारत देश भयंकर दुर्गति के दौर से गुज़र रहा है. राजनीति में, नौकरशाही में, सेना में यहाँ तक कि शिक्षा संस्थानों तक में देश प्रेम की भावना का गहरा अकाल है. नैतिकता का जितना घोर संकट है, उसकी उतनी ही ज्यादा छद्म नुमायश है. कई बार तुमसे हिस्सा बाँट करने का मन हुआ लेकिन लगा कि तुम ऐसे परदेस मैं बैठी हो जहाँ से हमने आज़ादी छीनी या पाई.. अब उनके सामने ही हमारी छीछालेदर खुले, इस से ज्यादा हंसी की क्या बात होगी… लेकिन इस विश्वग्राम में किसके चूल्हे का धुंआ किसको नहीं दिखता… खैर, बस आँख की शर्म है. लेकिन तुमने यह वर्क खोल ही दिया तो उसकी इबारत क्या छिपाना…
मेरा एक आलेख दिल्ली की एक पत्रिका ‘ सबलोग ‘ में आ रहा है, वह तुम्हें भी भेज रहा हूँ. देखना.. दर्द में हिस्सेदारी हो जाएगी.. वहां बसे भारतीय लोगों का इस सब से कितना सरोकार बचा है, पता नहीं. वैसे भी वह सब अपेक्षाकृत संपन्न लोग हैं, इसलिए भूख और असुरक्षा भाव की यहाँ की लहर उन्हें कितना छू पाएगी, पता नहीं. अगर उचित समझाना तो पाठकों के सामने रख देना, अन्यथा अगर, ‘ सुन इठलहियें लोग सब, बाँट न लेहै कोय ‘ जैसी आशंका हो तो छिपा ले जाना. वह तुम तक पहुंचा तो चलो ठीक पहुंचा.
वहां सब को मेरा नमस्कार और जीजू को ख़ास सलाम.
अशोक गुप्ता
हे बहिना, ये फुटकी छोड़ कर चुप हो गईं तुम . भारत का फोन नंबर, पता ठिकाना..कब तक हो इसकी खबर, सब गोल . ऐसा न करो यार.. एकदम, before yesterday , खबर दो. नहीं तो जीजू से नमक मिर्च लगा कर शिकायत करूँगा तब अपन दोनों मिल कर तुम्हारी खबर लेंगें.
अशोक गुप्ता
प्रिय शैल,
पता नहीं तुम इन्ट्यूशन या टेलीपैथी पर कितना विश्वास करती हो लेकिन तुम्हारे इस बार के सम्पादकीय ने हिला दिया है और सचमुच तुम कहीं मुझसे गहराई से जुडी हो, यह लगने लगा है.
सुनो, बताता हूँ.
मेरे माता पिता की पहली संतान मेरी बड़ी जिज्जी और उनके बाद मैं. हमारे बीच पंद्रह बरस का फासला. यानि जिस बरस उनका विवाह हुआ मेरा जन्म उसी बरस उसके बाद का है. मेरे बाद मेरे तीन भाई बहन और हैं. मुझे नहीं पता की क्यों और कैसे, मेरा अपनी जिज्जी से बेहद गहरा जुडाव जन्म से ही रहा. अपने जीवन में मैंने कभी उनसे झूठ नहीं बोला, उनसे कभी कोई बात छुपाई नहीं. उनका और जीजाजी का विशेष रूप से मुझसे गहरा अनुराग रहा. मेरे भांजे भांजियां लगभग मेरी ही पीढी के हुए और मैं उनके बीच, मामा होते हुए भी उन जैसा ही रहा. मैं इस बात को अपनी दस बरस की उम्र से अब तक घोषित करता रहा की मेरे लिए जिज्जी से ज्यादा प्यारा कोई नहीं है.
मेरी माँ सामंती ढाँचे के सोच वाली थीं. पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे ,सो हमारी परवरिश में माँ के पुरुषार्थ का अनुपात बहुत घना कहा जा सकता है. मेरी माँ ने अपने जीवन में सहा भी बहुत जिसका मुझे खूब एहसास रहा लेकिन उनका सामंती सोच और उनका जालिमाना सास चरित्र मैं कभी नहीं स्वीकार पाया. मैं तो खैर बाहर ही बाहर रहा, लेकिन मेरे छोटे भाई की पत्नी ने इसे शिद्दत से झेला. मेरे और मेरे भाई के बीच बहुत अन्तरंग घनिष्टता है. मेरी माँ ने इसमें भी दरार बनाने की कार्यवाही की. मेरी जिज्जी मेरी माँ के लिए भीष्म पितामह जैसी प्रतिबद्धता ले कर माँ की अंतिम सांस तक रहीं. इस क्रम में उन्होंने मेरी माँ के अन्याय की भी पक्षधरता की लेकिन मेरे विरोध को नाकारा भी नहीं और अपने ममत्व भरे स्पर्श से शांत करती रहीं. जिज्जी ने मेरे उन मित्रों और संबंधों को भी प्रश्रय और स्वीकृति दी जिन्हें मेरी माँ वर्जित करार करती रहीं. मेरे संघर्ष के उन पलों में जिज्जी ने हमेशा मेरा साथ दिया भले ही माँ का विरोध भी नहीं किया. जिज्जी की इस दोहरी भूमिका के मर्म ने मुझे छटपटाहट के बावजूद उनके प्रति और श्रद्धानत किया. करीब तीस बरस से, अपनी माँ के सामने ही मैं उन्हें ही अम्मा कहने लगा. इस संबोधन में मेरा अपनी माँ के प्रति उनके रक्तसंबंध से नकार भाव था, हालांकि मेरी माँ यही कहती रहीं की तमाम विरोध के बावजूद मैं उन्हें बहुत प्यार करता हूँ. मेरा अम्मा और जिज्जी के साथ यह समीकरण लम्बा चला.
अपनी अपनी जीवन यात्रा में, पहले जीजाजी विदा हुए, फिर मेरी अम्मा. मेरे अंदाज़ को पूरी तरह झुठलाते हुए मेरी माँ की मौत ने मुझे बहुत हिला दिया, हालांकि वह नब्बे वर्ष से ज्यादा जी कर गई.
शैल, अभी सत्रह अगस्त को शाम साढ़े तीन बजे जिज्जी खाना खा कर ज़रा देर के लिए यह कह कर सोईं कि पांच बजे उनकी अन्तरंग उनसे भी बरस डेढ़ बरस बड़ी शारदा जी उनके पास आएंगी और चाय साथ साथ पियेंगी…… लेकिन पांच नहीं बजे. वही नींद उनकी चिर निद्रा बन गई. एकदम शांत निर्द्वंद मृत्यु पाई उन्होंने. बिना किसी से कुछ कहे, बिना किसी को बताए चुपचाप चली गईं. बेहद संपन्न घर संपत्ति अनायास छोड़ कर.
उस दिन के बाद से मैं सामान्य नहीं हूँ और तुम्हें याद कर रहा हूँ. यह सब बातें मैं दरअसल तुमसे उसके बाद कई बार, कई किस्तों में कह चुका हूँ. तुमने मुझे जिज्जी की ही तरह समेट कर सहलाया है और अब तुम्हारा यह शाश्वत दार्शनिक मृत्यु आख्यान.., जो काल्पनिक नहीं है बल्कि वैश्विक रूप से उजागर है.!
तुम, मेरी माँ, जिज्जी और मेरे बीच कहाँ हो शैल… कहीं हो तो सही ज़रूर.
अशोक
प्रिय शैल,
नमस्कार. तुमने मुझे जुड़वां छुटकों के दादा जी बना कर मेरे भीतर जो आनंद रचा है वह तुम लेखनी से भी नहीं कर पाओगी. तुमने वैसे भी मुझे खुद के रूप में एक जुड़वां संबंध दिया है. मित्र भी, बहन भी… मित्र के नाते खूब गपशप, खूब विचार विमर्श होगा और बड़े भाई के नाते तुम्हारी पीठ पर ‘धप्प’ लगाउंगा. एक बार अपन दोनों स्टैचू खेलेंगे और मैं तुम्हें वैसा ही छोड़ कर दोस्त के साथ कैरम खेलनें लगूँगा… और जरा भी तुम हिलीं, तो समझ लो, ज़बरदस्त सत्ता..सत्ता जानती हो ? यह राजनैतिक शब्द नहीं है, इस में सात मुक्के खाने पड़ते हैं. खैर, अभी को तुमने सतरंगी मिठाई जैसी खबर सुनाई है.. अंदाज़ लगा रहा हूँ कि तुम दादी बन कर कैसी इतरा रही हो… हाय राम, कहीं नज़र न लग जाय तुम्हें ..!
अब इस पत्र में किसी और प्रसंग की गुंजायश नहीं है.
नरेन्द्र ‘ दद्दू ‘ को मेरा सलाम.
अशोक
प्रिय शैल,
नमस्कार. एक बेहद अंतरंग शाम तुम लोगों के साथ बीती, जो इस बात की ज़रूरत को अनिवार्य कर गई कि अब जब तुम लोग आओ तो कम से कम एक पूरा दिन साथ बीते और वह अड्डा रोहिणी में बने. मेरी इस फ़रियाद को गंभीरता से लेना.
कहानियां पढ़ कर बेबाक टिप्पणी करना. मैं शेष – अशेष की खोज अपने कंप्यूटर पर जल्दी ही करूंगा. वह रचना सशक्त है.
नरेन्द्र जी को मेरा नमस्कार देना
.
शेष शुभ.
अशोक गुप्ता
मुझे इतना तंग क्यों किया जा रहा है, क्या मैं यह जान सकता हूँ ?
तुम तो अपने हिंदुस्तान आने का सुर्रा छोड़ कर चुप हो गयीं, क्यों भला…यह नहीं चलेगा…
दिल्ली में कब कहाँ रहोगी…तुम्हारा कार्ड कहाँ पहुंचाया जाय.. आने वाले दिन मुझे बहुत व्यस्त कर देंगे, तब मुझे खालिस अपने लिए लम्हें जुटाने का समय भला कौन देगा.. कुछ तो रहम करो.
तुम्हारी चुप्पी मुझे हताश कर रही है.
अशोक
प्रिय शैल,
सुबह उठते ही कम्प्यूटर पर इस विश्वास के साथ आ बैठा कि नयी नवेली लेखनी जरूर मिलेगी और मिली भी. किसी भी पत्रिका में सम्पादकीय पहले पढता हूँ. लेखनी का सम्पादकीय पढ़ कर बहुतों की धुंध छंट जायेगी, जैसे मैं उजास से भर गया. सामजिक सन्दर्भों का दर्शन और दर्शनशास्त्र की सामाजिकता इस विद्वतापूर्ण आलेख में रेशा रेशा साफ़ है… तुम इतनी विद्वान् हो बहना.. मुझे तो तुम मेरी छोटी नटखट सी ही लगीं…. ( ऎसी ही रहना भी …)
क्या ही अच्छा हो कि हर महीने का पहला दिन इतवार हुआ करे.
एक जरूरी बात तो छूट ही गयी.. लेखनी का सबसे सशक्त और मोहक पक्ष उस में प्रयुक्त तस्वीरें है. कई बार तो पढ़ते पढ़ते मन फिर उन्हीं की ओर दौड़ जाता है. बधाई.
१६ अक्टूबर को गुणाकर मुले और २५ अक्टूबर को कमला सांकृत्यायन इस संसार से विदा हो गये. अगले अंक में इन पर कुछ दें.
अशोक गुप्ता
ये म्हारे हिन्दुस्तान का जयपुर है बहना, है न खबसूरत.. और हमारे यहाँ एक दुर्गा पूजा होती है, उसका सीन है. कभी अक्टूबर में आओ तो साथ लेकर सब घुमा लाऊं. जयपुर तो समझ लो, मेरा घर है अब.. दुर्गा पूजा तो यहाँ हर शहर मोहल्ले में होती है.
सच्ची कहूँ, मेरा हिन्दुस्तान देखने में बहुत सुन्दर है, भुगतने में भले ही चाहे जैसा हो.. पर है तो अपना.. किसी दूसरे के हुस्न नजाकत पर क्या मरना ? उस पर तो बस वाह वाह किया जा सकता है.
मज़ा आया हो, तो कुछ और तस्वीरें भेजूंगा.
अशोक
प्रिय शैल,” लेखनी” के बाल विशेषांक का स्वागत है. लेकिन अगर इस अंक में मेरा और तुम्हारा फोटो न हुआ तो बेकार है. तुम और मैं धरती पर सचमुच में बच्चे हैं और उम्र भर रहेंगे क्योंकि हमें दुनिया भर में बचपना कायम रखना है… अन्यथा बचपना एक लुप्त प्रजाति होता जा रहा है… हैं न.आओ हम तुम मिल कर जैक एंड जिल गायें, लेकिन पहले दिखाओ, तुम्हारी मुट्ठी में क्या है..? अशोक गुप्ता
प्रिय शैल,
होली की भोर लेखनी की झलक से शुरू हुई. यार, यह तो ऐसा लगा कि कोई दोस्त पकवान से भरपूर थाल सामने रख कर खुद ओझल हो जाय… अब बताओ क्या करूं ?
अशोक गुप्ता
……..